लोकसभा चुनाव: सपा का ‘पीडीए’ क्या भाजपा को भारी पड़ेगा?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा का ‘पीडीए’ आज उसी तरह केंद्र में है, जैसे कभी बसपा की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ हुआ करती थी. सभी जातियों को एक साथ लाने की सपा की रणनीति लोकसभा चुनाव को नया समीकरण देती दिख रही है.

(फोटो साभार: फेसबुक/@yadavakhilesh)

नई दिल्ली: समाजवादी पार्टी की एक हालिया विज्ञप्ति कहती है- ‘होगा पीडीए के नाम/अबकी एकजुट मतदान’.

सपा का ‘पीडीए’ इन दिनों उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति के उसी तरह केंद्र में है, जैसे कभी बसपा की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ हुआ करती थी. मुस्लिम-यादव (एमवाई) के समीकरण पर कई दशकों से राजनीति कर रही पार्टी ने एक नया रास्ता अख्तियार कर लिया है.

पिछड़ा-दलित और तीसरा?

‘अ का अर्थ अगड़ा भी है और अल्पसंख्यक भी. हमने इस फार्मूले को राज्य के जातिवार सर्वेक्षण के बाद लागू किया. सभी वर्गों को शामिल किया,’ समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक बाजपेयी द वायर से कहते हैं.

इस रणनीति ने सपा के टिकट वितरण को बुनियादी तौर पर बदल दिया है. 2019 में सपा ने कुल 37 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें दस यादव थे और चार मुसलमान. सपा इस बार 63 सीट पर लड़ रही हैं, जिसमें से केवल पांच यादव हैं और चार मुसलमान. पांचों यादव प्रत्याशी पार्टी के प्रथम परिवार से हैं- अखिलेश यादव (कन्नौज), डिंपल यादव (मैनपुरी), आदित्य यादव (बदायूं), धर्मेंद्र यादव (जौनपुर), अक्षय यादव (फिरोजाबाद).

पार्टी ने दलित समेत अन्य पिछड़ी जातियों को तो टिकट दिए ही हैं, कई ब्राह्मणों को भी अपना प्रत्याशी बनाया है. कुर्मी और पटेल बिरादरी के दस प्रत्याशियों के अलावा 17 दलित हैं, जिनमें से छह जाटव हैं. बसपा की कभी यह रणनीति हुआ करती थी कि जो जाति मजबूत हो, उसे टिकट दे दो. वही रणनीति सपा ने भी अपना ली है.

मसलन, एटा शाक्य-बाहुल्य ज़िला है, सपा ने देवेश शाक्य को प्रत्याशी बना लिया, जबकि 2019 में उसने देवेंद्र सिंह यादव को टिकट दिया था. बलिया में ब्राह्मण अच्छी संख्या में हैं, सपा ने सनातन पांडेय को फिर से टिकट दिया है.

पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक हालिया साक्षात्कार में पीडीए को परिभाषित करते हुए कहा था, ‘पीडीए के पीछे का विचार सभी को एक साथ लाना है… पीडीए में अक्षर पी का मतलब प्रगतिशील है, जबकि एनडीए में अक्षर एन ‘नकारात्मकता’ को दर्शाता है. जहां तक संक्षिप्त नाम पीडीए का सवाल है, इसे असरदायक साउंड इफेक्ट के लिए गढ़ा गया था. इसका मतलब भाजपा के एनडीए के साथ ‘संघर्ष’ करना था और ऐसा ही हुआ.’

इस रणनीति का भाजपा ख़ेमे में पड़ते प्रभाव को ऐसे देखें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सभाओं में कांग्रेस-सपा गठबंधन का निरंतर उल्लेख करते नजर आते हैं.

इसका ज़मीनी प्रभाव पिछले हफ़्ते प्रतापगढ़ में अखिलेश यादव की रैली में देखा जा सकता था. यह माना जा रहा था कि भाजपा प्रतापगढ़ के रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया को अपने ख़ेमे में ले आई है, लेकिन छठे चरण के मतदान से महज़ 48 घंटे पहले 23 मई को अखिलेश की रैली ने संकेत दिया कि स्थिति कहीं विपरीत है और पूर्वांचल में गठबंधन मजबूत हो रहा है.

जब समाजवादी पार्टी के मंच से राजा भैया की पार्टी जनसत्ता दल के नारे लगे, भाजपा की बैचेनी समझी जा सकती थी. यही वजह थी कि उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को तुरंत कहना पड़ा कि उनकी पार्टी राजा भैया के समर्थन से नहीं, बल्कि अपने बल पर चुनाव जीतेगी.

गौरतलब है कि राजा भैया ने कौशांबी और प्रतापगढ़, वे दोनों सीट जहां उनका जबरदस्त प्रभाव है, अपने प्रत्याशी नहीं उतारे हैं और सपा को समर्थन दिया है.

2019 में पूर्वांचल की 27 सीटों यानी अंतिम दो चरणों में से सपा ने एक भी सीट नहीं जीती थी, 21 भाजपा और 6 बसपा के पास गई थीं.

‘सपा ने समूचे पूर्वांचल में चुनाव को अगड़ा-पिछड़ा में तब्दील कर दिया है,’ दैनिक जागरण से जुड़े मैनपुरी के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं.

वे जोड़ते हैं कि डेढ़ दर्जन दलितों को टिकट मिलने से बसपा का वोट बैंक टूट रहा है. ‘दलित सपा गठबंधन से जुड़ रहा है. इस बार बसपा का हुक्म नहीं चल रहा है. जहां भी सपा या कांग्रेस भाजपा को टक्कर देती दिखाई दे रही है, अनुसूचित जातियां इनके साथ आ जा रही हैं. मथुरा में भी यही हुआ था. बसपा का जाटव भी कांग्रेस के पास चला गया. हेमा मालिनी जीत सकती हैं, लेकिन कहीं कम अंतर से.’

बाराबंकी में सपा की एक रैली. (फोटो साभार: फेसबुक/@yadavakhilesh)

बसपा की चुनौती

लेकिन समाजवादी को बसपा से दो प्रमुख चुनौतियों का सामना कर पड़ रहा है. पहली, बसपा ने तेईस मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट दिया है, जबकि 2019 में सिर्फ़ छह सीटों पर मुसलमानों को टिकट दिए थे.

गौरतलब है कि अमरोहा, संभल और सहारनपुर जैसे कुछ ही संसदीय क्षेत्र हैं जहां बसपा ने सपा-कांग्रेस गठबंधन के मुसलमान प्रत्याशी के सामने अपना मुसलमान प्रत्याशी खड़ा किया है. मायावती ने अपने मुसलमान प्रत्याशी अमूमन उन जगहों से तैनात किए हैं जहां गठबंधन ने गैर-मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट दिया है.

यानी अगर सपा मानती है कि मुसलमान उसके पास स्वयं ही आ जाएगा और इसलिए वह मुसलमान-बाहुल्य सीट पर मुसलमान प्रत्याशी न खड़े कर उस इलाके की प्रमुख जाति से उम्मीदवार चुनकर अपनी भूमि विस्तृत कर लेगी, तो इस रणनीति में बसपा सेंध लगा सकती है. मसलन, आजमगढ़ से बसपा के मशूद अहमद सपा के धर्मेंद्र यादव के परंपरागत वोट बैंक को तोड़ सकते हैं.

‘मुसलमान हमारे साथ हैं. बसपा एकदम एक्सपोज हो चुकी हैं. मुसलमान बहुत अच्छी तरह से इसे समझ रहा है,’ समाजवादी पार्टी के एक पूर्व मंत्री द वायर से कहते हैं जो खुद इस समुदाय से आते हैं.

दूसरी, सपा के करीब डेढ़ दर्जन प्रत्याशी बसपा से आए हैं जिनमें अफ़ज़ाल अंसारी (गाज़ीपुर), लालजी वर्मा (अंबेडकर नगर), बाबू सिंह कुशवाहा (जौनपुर) प्रमुख हैं. बसपा के वोट के बगैर इनमें से कितने जीत दर्ज करा पाएंगे, देखना बाकी है.

पश्चिमी यूपी में सपा की एक रैली. (फोटो साभार: फेसबुक/@yadavakhilesh)

गठबंधन: अतीत और वर्तमान

सपा ने पिछले दशक में भाजपा के खिलाफ़ दो बार गठबंधन किया है- कांग्रेस के साथ 2017 में और बसपा के साथ 2019 में. इन दोनों ही अवसरों पर भाजपा ने गठबंधन को मात दी थी. 2019 में भाजपा को बासठ सीटें मिली थीं और बसपा व सपा को क्रमशः 10 व 5 सीट, जबकि इन दोनों से अलग लड़ रही कांग्रेस को सिर्फ़ एक सीट मिली थी.

पर उल्लेखनीय है कि पिछली बार यह गठबंधन भाजपा से कई सीटों पर अत्यंत कम अंतर से पिछड़ गया था. भाजपा मछलीशहर सीट सिर्फ़ 181 मतों से, कन्नौज करीब बारह हजार, चंदौली चौदह हजार और सुल्तानपुर साढ़े चौदह हजार मतों, बलिया साढ़े पंद्रह हजार और फिरोजाबाद अट्ठाइस हजार मतों से जीती थी.

दूसरे, सपा को सीट भले ही केवल पांच मिली थीं लेकिन उसे 18.11 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे, जबकि वह केवल सैंतीस सीटों पर लड़ी थी. इसी तरह बसपा को 19.43 प्रतिशत मत मिला था. यानी जातियों के बेहतर समीकरण से और बसपा का वोट खींचकर सपा इस बार बड़ी चुनौती पेश कर सकती है.

‘बसपा ने हमेशा धोखा देने का काम किया है. भले ही वह पार्टी के साथ हो या जनता के. बसपा हमेशा निजी हितों की बात करती है. इस बार गठबंधन भिन्न है, कहीं मजबूत है,’ अभिषेक बाजपेयी कहते हैं.

गौरतलब है कि मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद समाजवादी पार्टी का यह पहला चुनावी संघर्ष है. यह अखिलेश के साथ पार्टी के भविष्य को भी निर्धारित करेगा.