नेहरू के बाद भारत में जनतंत्र

नेहरू का कहना था कि यह अच्छी बात है कि भारत की जनता को यक़ीन है कि वह सरकार बदल सकती है. उन पर सवाल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. कविता में जनतंत्र स्तंभ की तेईसवीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

मकान अपनी पीठ गरमा रहे थे
जब शहर ज़र्द हो उठा और फिर अंजीरी बैंजनी
आख़िर में: अंधेरे ने निगल लिया माणिक .
कारखानों ने पत्थरी लबादे पहन लिए
उन्होंने बीड़ी जलाई, और फिर गीली क़मीज़ों को कंधों पर डाले,
वे लौटे दड़बों की ओर.
‘क्या हुआ, रे सुंद्रे?,
‘आज अगरबत्ती न जलाना. तूने नहीं सुना? नेहरू चले गए.’
‘अच्छा? फिर तो छुट्टी है आज.’
थकान से चूर, दुनिया ढेर हो गई बिस्तरे पर.

अकेला, मैं चलता रहा.
सड़कें डरावनी थीं.
मैं मिला एक हथठेलेवाले से, जो कंदील लिए जा रहा था.

‘कहां ले जा रहे हो इस रोशनी को?’
‘आप देख नहीं रहे जनाब!
वहां ऊपर अंधेरा अपने दांत दिखा रहा है!’
यह सब जब नेहरू मरे.

नारायण सुर्वे की कविता ‘जब नेहरू मरे’ को जेरी पिंटो की अंग्रेज़ी में पढ़ना और उससे हिंदी में उसका तर्जुमा करना ज़रा अटपटा है, लेकिन इस प्रक्रिया से हमारी अपनी आज की स्थिति पर रोशनी पड़ती है. हम ख़ुद अपने तक किसी और के रास्ते पहुंचते हैं. ख़ुद को किसी और की रोशनी में देखना और किसी और की ज़बान में समझना एक प्रकार की जनतांत्रिक प्रक्रिया है.

इस कविता का आख़िरी हिस्सा मानीखेज है. नेहरू की मौत हुई है. एक हाथ ठेलनेवाला काग़ज़ की कंदील में आग, या रोशनी लिए जा रहा है. वह इसलिए कि ‘वहां ऊपर अंधेरा अपने दांत दिखा रहा है!’ इस अंधेरे का रिश्ता नेहरू की मौत से है. क्या वह अब सबको डुबा देगा? अब जबकि नेहरू नहीं रहे, कौन उस लौ को बचाकर रखेगा जो जनतंत्र की लौ है? नेहरू के रहते जिसे लेकर एक तरह की निश्चिंतता थी.

नेहरू के बाद क्या होगा? यह सवाल नेहरू के रहते इतनी बार उठाया गया था कि एक बार नेहरू को कहना पड़ा था कि वे अभी हैं. दूसरे कि उन्हें इसकी परवाह नहीं है क्योंकि इस सवाल का जवाब करोड़ों हिंदुस्तानी लोग खोज लेंगे, उनके लिए नेहरू को इसका जवाब देने की ज़रूरत नहीं.

इस सवाल से उन्हें झुंझलाहट होती थी क्योंकि इसका मतलब यह है कि एक व्यक्ति पूरे राष्ट्र के लिए इतना अहम हो उठा है कि लोग उनके जाने के बाद उनका विकल्प नहीं खोज पाएंगे.

नेहरू के बाद भारत में जनतंत्र सुरक्षित रहेगा या नहीं, यह सवाल हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का भी था. अपनी बीमारी में और नीमबेहोशी में मुक्तिबोध की चिंता थी कि नेहरू न रहे तो क्या होगा? नारायण सुर्वे की कविता को पढ़ते हुए मुझे मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंधेरा एकदम अलग नज़र आया.

फिर धूमिल की कविता ‘जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर’ का अंधेरा याद आया:

….दिन
जो सुबह-सुबह शुरू हुआ
दोपहर में
ख़त्म हो गया
मेरा सूरज खो गया

शेष बचा जो कुछ, उसकी
काली छाया में
यह कोई बीमार रोशनी
अंधकार की ओर दौड़ती
धरती पर फिर फिसल गई है.

युग-युग से विकास-पथ
जिससे आलोकित था
आह! वही मोती की आभा
मेरी मुट्ठी खोल अचानक निकल गई है.

नारायण सुर्वे की कविता में अंधेरा माणिक निगल जाता है और धूमिल की कविता में मोती की आभा मुट्ठी से निकल जाती है.

यह आशंका जो इन कविताओं में है, वह एक दूसरे तरीक़े से नागार्जुन की कविता ‘विकल है गुलाब’ में व्यक्त होती है:

विकल है गुलाब
करेगा प्यार कौन
कंटकित वृंत को ?

विकल है गुलाब
समझेगा कौन
अंतर्भेदी मुकुलित सौरभ ?

विकल है गुलाब
मिटाएगा कौन, कैसा
जन्मजात अभिशाप?

विकल है गुलाब
सुनेगा अब कौन
गमलों का अरण्यरोदन ?

जनतंत्र क्या है? उसका काम या मक़सद क्या है? ‘कंटकित वृंत को प्यार’ कर पाना, ‘अंतर्भेदी मुकुलित सौरभ’ को समझना, किसी का ‘जन्मजात अभिशाप’ मिटाना, ‘गमलों का अरण्यरोदन’ सुन पाना.

नेहरू के बाद यह कौन करेगा?

अगर कवि जनता की आवाज़ हैं तो यही समझा जा सकता है कि लोगों को भरोसा नहीं था कि नेहरू के बाद कोई उनकी तरह जनता के प्रति लगाव और जतन के साथ यह करेगा. नेहरू को लेकिन इसे लेकर फ़िक्र नहीं थी. इसलिए उन्होंने किसी उत्तराधिकारी का नाम देना भारत के लोगों का अपमान समझा.

नेहरू को एक तरफ़ यक़ीन था कि भारत में जनतंत्र की जड़ें इतनी मज़बूत हो चुकी हैं कि वह अपना रास्ता और रहबर, दोनों ही खोज लेगा. दूसरी तरफ वे उन प्रवृत्तियों की ताक़त से भी परिचित थे जो इस जनतंत्र के भीतर सक्रिय थीं और ताकतवर भी थीं. एक बार उन्होंने ख़ुद भी आशंका ज़ाहिर की थी कि उनके न रहने पर भारत में कहीं सैनिक शासन न लग जाए.

ऐसा हुआ नहीं. नेहरू की मौत तक भारत में लोकसभा के लिए 3 आम चुनाव हो चुके थे. नेहरू की मौत के पहले कई उपचुनावों में उनकी कांग्रेस पार्टी की पराजय हुई थी. नेहरू ने ख़ुद कभी नहीं कहा था कि वे अपराजेय हैं. पहले आम चुनाव में ही उन्होंने कहा था कि वे चुनाव हारना पसंद करेंगे लेकिन वे किसी भी क़ीमत पर उन मूल्यों को गंवाना नहीं चाहेंगे जिन्हें स्वाधीनता आंदोलन में हासिल किया गया था.

1951 में नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखा कि चुनाव घोषित होते ही सांप्रदायिक शक्तियां सक्रिय हो गई हैं. आम तौर पर ये लोग मुसलमानों के तुष्टीकरण का इल्ज़ाम हम पर लगाते हैं और गाली-गलौज भरी भद्दी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. नेहरू ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि प्रायः भीड़ को यह सब कुछ पसंद आता है. फिर भी उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि वे हारना पसंद करेंगे, लेकिन किसी भी इस जगह समझौता नहीं करेंगे. अपनी जनसभाओं में उन्होंने सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाया और उस पर जमकर प्रहार किया.

तब नेहरू को लोगों ने सुना. जनतंत्र की शिक्षा के लिए चुनाव नेहरू को मुफ़ीद मौक़े मालूम पड़ते थे. वे इन्हें जनतंत्र के विश्वविद्यालय कहते थे और ख़ुद को जनतंत्र का प्रोफ़ेसर. प्रोफ़ेसर माधवन पलत ने लिखा है कि प्रोफ़ेसर की जगह उन्हें जनतंत्र के विश्वविद्यालय का कुलपति कहना अधिक ठीक होता. प्रायः नेहरू लंबी तक़रीरें लगाते थे और दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसके बारे में भी वे लोगों से बात करते थे.

हालांकि, चुनाव से एक स्तर पर उन्हें उलझन और चिढ़ होती थी क्योंकि चुनाव में लोगों की क्षुद्रताएं उभर आती थीं और समाज के मन के भीतर छिपी अश्लीलता बाहर आ जाती थी. चुनाव प्रचार के केंद्र में ख़ुद को देखकर भी उन्हें उलझन होती थी.

नेहरू का कहना यह था कि यह अच्छी बात है कि भारत की जनता को यक़ीन है कि वह सरकार बदल सकती है. उन पर सवाल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए, यह उन्होंने 1963 में अपनी सरकार के ख़िलाफ़ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देते हुए कहा. 4 रोज़ तक इस प्रस्ताव पर चली बहस को नेहरू ने ध्यान से सुना और आदरपूर्वक उसका उत्तर दिया.

उन्होंने कहा कि यह प्रस्ताव कुछ अवास्तविक लगता है क्योंकि आम तौर पर अविश्वास प्रस्ताव का लक्ष्य सरकार को अपदस्थ करना होना चाहिए, लेकिन यहां तो मालूम है कि ऐसा कुछ होने वाला नहीं. फिर भी उन्होंने कहा कि वक्त-वक्त पर इस तरह की जांच होते रहना अच्छा ही है. हालांकि, उन्होंने राममनोहर लोहिया पर अफ़सोस ज़ाहिर किया कि उन्होंने अपने भाषण में नीतियों की जगह नेहरू को केंद्र में रखा और अपना वक्त बर्बाद किया.

आज़ादी के दौरान नेहरू अपने साथियों के साथ मिलकर जनतंत्र का सिद्धांत विकसित कर रहे थे. और वह अंग्रेजों के साथ बहस में जिनकी समझ थी कि भारत के लोग अपना ख़्याल नहीं रख सकते. अंग्रेज कहते हैं कि जब हम इस लायक़ हो जाएंगे कि जनतंत्र का अभ्यास कर सकें तब हमें आज़ादी मिलनी चाहिए. नेहरू ने उन्हें ईसप की नीति कथाएं और भेड़िए और भेड़ की कहानी दोबारा पढ़ने का मशविरा दिया.

जनतंत्र को मजबूर करने का मतलब है सरकार को लोगों के सामने जवाबदेह बनाना. लोगों का स्तर, हर स्तर पर उन्नत करना. सामाजिक और आर्थिक प्रतिक्रिया की शक्तियों से लड़ना.

लोग यह भी भूल जाते हैं कि नेहरू ने हिंदू कोड बिल पारित कराने के चलते हिंदुत्ववादियों के कितने हमले झेले. यह कोई 1947 के बाद नेहरू की नीति नहीं थी. उसके पहले 25 साल से वे कहते आ रहे थे कि समाज की उत्पादक शक्तियों का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि मुनाफ़े की प्रवृत्ति पर लगाम लगाई जा सके और समाज के संसाधनों का वितरण समाज में बराबरी लाने के मक़सद से किया जाए. समाजवाद के बुनियादी उसूल को बार-बार दोहराने के बाद भी उन्होंने कहा कि वे रूस के रास्ते का बिना सोचे अनुकरण नहीं करना चाहते.

आज़ादी के पहले वे जो कहते हों, बाद में नेहरू ज़ोर देकर कहते रहे कि उनका रास्ता गांधी का सुझाया हुआ है. भारत की जटिल विविधता को समेटने के लिए व्यापक दृष्टि की आवश्यकता थी. ऐसा तरीक़ा जिसमें सभी ख़ुद को शामिल महसूस कर सकें.

युवा शोधार्थी सर्वेश ने एक शाम मुझे कहा कि नेहरू कुशाग्रबुद्धि ज़रूर थे, लेकिन गांधी का दिमाग़ बड़ा था. लेकिन गांधी की हत्या के बाद नेहरू ने गांधी की वह व्यापकता ले ली. नेहरू के लिए सबसे बड़ा काम था भारत के लोगों को एक रखना. और वह बिना गांधी वाली सर्वव्यापी दृष्टि के संभव न था. सर्वेश की यह बात मार्के की है. जनतंत्र का एक काम लोगों में एकता की भावना पैदा करना है. इसलिए उसमें किसी श्रेष्ठता के दावे की कोई जगह नहीं.

श्रेष्ठता और अपनी महानता के दावे की जनतंत्र में कोई जगह नहीं. यह मानना कि इतिहास बनाने या बदलने का नुस्ख़ा मेरे पास है, मुझे तानाशाह बनाने के लिए काफ़ी है. कवि-लेखक आक्तावियो पाज़ ने नेहरू की मौत के दो साल बाद लिखा, ‘इस सदी के ज़्यादातर नेताओं से उलट नेहरू नहीं मानते थे कि उनके हाथों में इतिहास की चाभी है. इस वजह से उन्होंने न तो अपने देश को और न दुनिया को खून से दाग़दार किया.’

नेहरू की मौत के बाद अंधेरे की आशंका थी नारायण सुर्वे को, धूमिल को, नागार्जुन को. वह अंधेरा अब भारत पर छा गया है. नेहरू की मौत की 60वीं सालगिरह पर मुक्तिबोध की बेहोशी की बड़बड़ाहट सुनाई देती है,‘कहीं ऐसा वैसा न हो जाए.’ यह सालगिरह फिर एक चुनाव के बीच है. जो रोशनी सुर्वे का ठेलवाला कंदील में संजोए जा रहा था, क्या उसमें इस चुनाव के बीच हमें नेहरू का सभ्य, सौम्य मुख देख पाएंगे? क्या गमलों का अरण्यरोदन सुनने वाला कोई है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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