कार्यकर्ता जनतंत्र का पहला व्यक्ति है जो जन के लिए इस तंत्र को संभव बनाता है

जनता और राज्य के बीच का रिश्ता उन संस्थाओं के ज़रिये तय होता है जो उसे उपेक्षा और ज़्यादातर बार तिरस्कार की निगाह से देखती हैं. इस तंत्र की पहचान जन को करवाना कार्यकर्ता का काम है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की चौबीसवीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

वक्त-बेवक्त
वह साइकिल दनदनाता हुआ चला आता है
कई बार मैं झुंझला उठता हूं
उसके इस तरह चले आने पर
उसके सवालों और उसके तंबाकू पर
तिलमिला उठता हूं मैं
मैं बेहद परेशान हो जाता हूं
उसकी ग़लत-सलत भाषा
उसके शब्दों से गिरती धूल
और उसके उन बालों पर
जो उसके माथे से पूरी तरह उड़ गए हैं

कई बार
उसकी भूकंप-सी चुप्पी
मुझे अस्तव्यस्त कर देती है

उसकी साइकिल में हवा
हमेशा कम होती है
हमेशा उसकी बग़ल में होता है
एक और कोई चेहरा
थाने बुलाया गया है

मुझे थाने से चिढ़ है
मैं थाने की धज्जियां उड़ाता हूं
मैं उस तरफ़ इशारा करता हूं
जिधर थाना नहीं है
जिधर पुलिस कभी नहीं जाती

वह धीरे से हंसता है
और मेरी मेज़ हिलने लगती है
मेरी मेज़ पर रखी किताबें
हिलने लगती हैं
मेरे सारे शब्द और अक्षर
हिलने लगते हैं

मैं उसे रोकता नहीं
न कहता हूं कल परसों
दोपहर
शाम
वह उठता है
और दरवाज़ों को ठेलकर
चला जाता है बाहर

मेरी उम्मीद
उसका पीछा नहीं करती
सिर्फ़ कुछ देर तक
चील की तरह हवा में मंडराती है
और झपट्टा मारकर
ठीक उसी जगह बैठ जाती है
जहां से वह चला गया था

(‘एक ठेठ देहाती कार्यकर्ता के प्रति’)

केदारनाथ सिंह की इस कविता में कोई भी राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता तुरत ख़ुद को पहचान लेगा. वह जो जनतांत्रिक प्रक्रिया की सबसे अहम और सबसे उपेक्षित कड़ी है. वह सिर्फ़ देहाती कार्यकर्ता नहीं है. क़स्बों, शहरों में वह पाया जाता है. जनतंत्र और जनता के बीच संपर्क की पहली इकाई.

जनतंत्र के एक नेता के लिए जनता चेहराविहीन होती है. ऐसे नेताओं की कहानी कही जाती है जो अपने इलाक़े के लोगों के चेहरे और नाम के बीच रिश्ता बैठा सकते हैं. फिर भी वे दावा नहीं कर सकते कि वे उन्हें ठीक-ठीक जानते हैं.

उनकी ज़िंदगियों के बारे में भी उनके पास अस्पष्ट धारणा भर है. वे नहीं जानते कि उनके परिवार में कितने लोग हैं, किसे क्या बीमारी है, किस बच्चे का किस क्लास में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के बच्चों वाली श्रेणी में दाख़िला करवाना है. किसकी ज़मीन सरकार ने अधिगृहीत कर ली है और उसका मुआवज़ा उसे नहीं मिला है. मनरेगा में किसका जॉब कार्ड नहीं बन रहा या उसकी उजरत उसे नहीं मिली.

कविता जनतंत्र के रोज़ाना ज़िंदगी के इस पहलू की तरफ़ भी इशारा करती है, जो रूमानी नहीं है. जिसमें जनता और राज्य के बीच का रिश्ता उन संस्थाओं के ज़रिये तय और व्यक्त होता है जो उसे उपेक्षा और ज़्यादातर बार तिरस्कार की निगाह से देखती हैं. उनमें भी जो सबसे दिखाई और दख़ल देने वाली संस्था है, वह है पुलिस. ब्लॉक, सबडिवीज़न, ज़िला के सरकारी दफ़्तर जिनकी पीली ठंडी दीवारों में जनता के लिए आमंत्रण नहीं. या स्कूल भी. और हस्पताल.

इन संस्थाओं को चलाने वाले अधिकारी होते हैं और होती हैं प्रक्रियाएं जो व्यक्ति-चेहरे को नहीं देखतीं या प्रायः उड़ती निगाह से देखती हैं. जनता के लिए या जन के लिए इन्हें अपना महत्त्व बता पाना असंभव है, यह कह पाना कि वही है जिससे यह तंत्र चलता है और वही इसकी लक्ष्य भी है.

इस तंत्र की पहचान जन को करवाना कार्यकर्ता का काम है. यह दुष्कर है, इसमें जनतंत्र की कोई ‘काव्यात्मकता’ नहीं. कार्यकर्ता जनतंत्र की इस ज़िंदगी से दिन रात जूझता है.

कार्यकर्ता, यह शब्द भी ज़रा कठिन जान पड़ता है. कारकुन बेहतर है, लेकिन हिंदी ने शुद्ध या राष्ट्रीय हिंदी होने के चक्कर में ऐसे शब्दों को इतनी दूर फेंक दिया है कि उन्हें पहचान पाना मुश्किल है. एक शब्द है एक्टिविस्ट. आरटीआई एक्टिविस्ट, आरटीई एक्टिविस्ट, फॉरेस्ट राइट एक्टिविस्ट, मनरेगा एक्टिविस्ट! ये संज्ञाएं भारतीय जनतंत्र के कोष में मान्य हैं.

शिक्षाविद् और लेखक कृष्ण कुमार ने एक बार पूछा कि इस एक्टिविस्ट का हिंदी अनुवाद क्या करेंगे. कई दिनों की माथापच्ची के बाद भी हम कोई क़ायदे का शब्द नहीं खोज पाए. ‘भागा दौड़ी करने वाला’ कह सकते हैं? कृष्ण कुमार ने किंचित् विनोद भाव से पूछा.

कार्यकर्ता ज़रूर काफी भागादौड़ी करता है, करती है. जनतंत्र को जनता के क़रीब लाने के लिए. सांसदों और विधायकों के यहां भी उनके मतदाता इन्हीं कार्यकर्ताओं के साथ ही या उनके बल पर आ पाते हैं. जब वे उनके रूबरू होते हैं तब भी भीड़ में और उनके लिए वह प्रायः उपेक्षा और उपहास के पात्र होते हैं.

नहीं भूल पाता कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने किस तरह एक देहाती औरत का सरेआम मज़ाक़ उड़ाया. उसने रोज़गार के लिए अपने इलाक़े में फैक्ट्री खुलवाने की विनती की. मुख्यमंत्री ने मखौल करते हुए कहा, ‘अगली बार जब चंद्रयान जाएगा, उसमें बिठाकर तुझे चांद भेज देंगे.’

क्या वह औरत अपने चुने हुए मुख्यमंत्री से चांद मांग रही थी? उससे ज़्यादा ध्यान देने की बात है वह रिश्ता जो उस औरत और उसके जनतांत्रिक नेता के बीच है.

इन दोनों के बीच जो है, जो जन का चेहरा पहचानता है और उसकी रोज़ाना की जद्दोजहद को भी पहचानता है, वही केदारजी की इस कविता का कार्यकर्ता है. उसकी जो चिंता है, वह कवि की समझ में नहीं आती. उसके लिए जनतंत्र एक अवधारणा है इसलिए उसे थाने की चर्चा नहीं सुनना चाहता:

मुझे थाने से चिढ़ है
मैं थाने की धज्जियां उड़ाता हूं
मैं उस तरफ़ इशारा करता हूं
जिधर थाना नहीं है
जिधर पुलिस कभी नहीं जाती

लेकिन कार्यकर्ता को ज़िंदगी का कहीं अधिक पता है और वह कवि के यथार्थ से परिचय पर मुस्कुरा ही सकता है:

वह धीरे से हंसता है
और मेरी मेज़ हिलने लगती है
मेरी मेज़ पर रखी किताबें
हिलने लगती हैं
मेरे सारे शब्द और अक्षर
हिलने लगते हैं

मुझे दिलचस्प लगा कि केदारजी की कविता में ज़िक्र जनता और पुलिस का है. क्या राज्य जनता के सामने सबसे पहले और सबसे अधिक दृश्य होता है पुलिस के रूप में? क्या थाना ही राज्य का प्रतिनिधि है?

किन लोगों की ज़िंदगी में थाने का वह स्थान है जो इस कविता में है? और कौन उस दिशा की तरफ़ इशारा कर सकते हैं जिधर थाना नहीं है? कविता इस रिश्ते और इन दो तरह के लोगों के बीच की फांक की बात भी करती है.

यह कार्यकर्ता जो करता है, उससे कवि जैसे लोगों को उलझन होती है और झुंझलाहट भी:

कई बार मैं झुंझला उठता हूं
उसके इस तरह चले आने पर
उसके सवालों और उसके तंबाकू पर
तिलमिला उठता हूं मैं
मैं बेहद परेशान हो जाता हूं
उसकी ग़लत-सलत भाषा
उसके शब्दों से गिरती धूल
और उसके उन बालों पर
जो उसके माथे से पूरी तरह उड़ गए हैं

कई बार
उसकी भूकंप-सी चुप्पी
मुझे अस्तव्यस्त कर देती है

कवि इस कार्यकर्ता की चुप्पी को नहीं समझ पाता. क्या वह जनतंत्र के यथार्थ के सामने साधारण जन की असमर्थता से पैदा हुई है? जनतंत्र के अपने वादे से फिर जाने से पैदा होती है?

यह कार्यकर्ता जनतंत्र का पहला कार्यकर्ता है जो जनतंत्र को जन के लिए वास्तविक और संभव बनाता है. मैं वैसे कार्यकर्ताओं को जानता हूं जो किसी दलित पर हिंसा के बाद एफआईआर कराने, किसी को ग़लत तरीक़े से गिरफ़्तार कर लिए जाने पर उसके लिए वकील से लेकर ज़मानती जुटाने तक और उस बीच में उसके परिवार की देखभाल करने, उसके बच्चों के स्कूल में दाख़िले से लेकर उनकी फ़ीस इकट्ठा करने के काम में लगे रहते हैं. पैरवी, चंदा, ज़मानती जैसे शब्द जनतंत्र के शब्दकोश के ही हैं!

यह कार्यकर्ता क्या करता है? वह जो करता है क्या उस पर जनतंत्र की उम्मीद टिकी है? जनतंत्र की उम्मीद है ही क्या? वह उम्मीद जो एक चील की तरह मंडराती है और उसी जगह बैठ जाती है जहां वह कार्यकर्ता बैठा था जिसकी भाषा कवि को समझ में नहीं आती.

जब चुनाव ख़त्म हो जाएगा और नई सरकार सत्ता में आ जाएगी, उसका क्या होगा जिसे थाने बुलाया गया है? क्या उसके और थाने के बीच फिर इस कार्यकर्ता की ज़रूरत रह जाएगी?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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