‘ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था!’

पुण्यतिथि विशेष: विद्रोही अभी ज़िंदा हैं. सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लेंगे, सारे तानाशाह और ज़ुल्मी मर जाएंगे, उसके बाद विद्रोही मरेंगे आराम से, वसंत ऋतु में.

//

पुण्यतिथि विशेष: विद्रोही अभी ज़िंदा हैं. सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लेंगे, सारे तानाशाह और ज़ुल्मी मर जाएंगे, उसके बाद विद्रोही मरेंगे आराम से, वसंत ऋतु में.

कवि रमाशंकर यादव 'विद्रोही'. (फोटो: फेसबुक/मृत्युंजय)
कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’. (फोटो: फेसबुक/मृत्युंजय)

अक्टूबर, 2015 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नॉन नेट फेलोशिप खत्म करने का निर्णय लिया तो जेएनयू के छात्र यूजीसी के सामने धरने पर बैठ गए. यह प्रदर्शन बहुत लंबा चला. अक्यूपाई यूजीसी नाम से चल रहा यह आंदोलन फेलोशिप खत्म करने, शिक्षा का निजीकरण करने और मौजूदा सरकार की नीतियों के खिलाफ था.

इसी आंदोलन में एक कवि शरीक था, जिसकी दुनिया बस जेएनयू की चहारदीवारी और जेएनयू के छात्र थे. कविता और वास्तविक जीवन दोनों में समान रूप से ‘विद्रोही’ यह कवि अपनी कविताओं के साथ छात्रों के साथ खड़ा था. लेकिन ‘बड़े-बड़े लोग पहले मर लें/फिर मैं मरूं- आराम से/उधर चल कर वसंत ऋतु में’ जैसी पंक्तियां लिखने वाला यह कवि वसंत आने से पहले प्रदर्शनस्थल पर ही आठ दिसंबर, 2015 को अचानक जहान-ए-फानी को अलविदा कह गया.

‘मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा’

यह कवि थे रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’. विद्रोही सिर्फ एक कवि नहीं थे, जेएनयू के छात्रों के लिए विद्रोही व्यवस्था के खिलाफ उठती जनपक्षधर आवाज़ों के प्रतीक थे. विद्रोही अपनी कविताओं में जैसा विद्रोह रचते थे, उन्होंने उसी तरह विद्रोह करते हुए अंतिम सांस ली.

विद्रोही छात्रों के साथ सरकार विरोधी मार्च में शामिल होने गए थे लेकिन उन्हें लगा कि उनकी तबियत कुछ खराब है तो वे धरनास्थल पर ही लेट गए. दोपहर दो बजे के करीब उनके शरीर में अचानक कंपकंपी होने लगी. जब तक लोग कुछ समझ पाते, उनकी नब्ज बंद हो गई. डॉक्टरों ने ब्रेन डेड होना मौत का कारण बताया था.

विद्रोही का नाम विद्रोही यूं ही नहीं था. वे वाकई विद्रोह करके विद्रोही बने थे. हुआ यूं कि एक सामान्य परिवार का युवक वकालत की पढ़ाई छोड़कर जेएनयू आया हिंदी साहित्य पढने. 1983 में जेएनयू में एक बड़ा छात्र-आंदोलन हुआ जिसमें विद्रोही जी शामिल हुए. इस कारण उनपर मुकदमा चला और आंदोलन करने के जुर्म में उन्हें कैंपस से निकाल दिया गया. इसके बाद विद्रोही जेएनयू के छात्र तो वे नहीं रहे लेकिन उन्होंने जेएनयू कैंपस कभी नहीं छोड़ा. स्वभाव से विद्रोही युवा कवि ने घोषणा कर दी कि वह जेएनयू कैंपस से नहीं जाएगा.

नाक में नासूर है और नाक की फुफकार है,
नाक विद्रोही की भी शमशीर है, तलवार है.
जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,
ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है.
और ये गिरे तो आदमीयत का मकीदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो बलंदियों का पेंदा गिर पड़ेगा.
ये गिरा तो मोहब्बत का घरौंदा गिर पड़ेगा,
इश्क और हुश्न का दोनों की दीदा गिर पड़ेगा.
इसलिए रहता हूं जिंदा
वरना कबका मर चुका हूं…

जेएनयू में रहने का ठिकाना न होते हुए युवा कवि जेएनयू के जंगलों में, पगडंडियों पर, गलियारों में घूमता रहा, सोता रहा, कविता लिखता रहा, छात्रों को पकड़ पकड़ कर व्यवस्था की पोल खोल खोलता रहा.

जेएनयू कैंपस के छात्रों को विद्रोही की विद्रोही कविताओं से प्यार हो गया. कुछ ने उनको एक खानाबदोश कवि के रूप में जाना, कुछ ने उनका नाम सुना, कुछ ने उनकी कविताएं इंटरनेट पर पढ़ीं, कुछ ने उन्हें यूट्यूब पर सुना.

विद्रोही करीब दो दशकों तक जेएनयू परिसर में ही रहते रहे. शायद जेएनयू की विद्रोही हवा, परिवर्तनकामी आकांक्षा और उनकी हिंदी साहित्य पढ़ने की इच्छा ने उन्हें रोके रखा हो. लेकिन वे जब तक जिंदा रहे, ‘आसमान में धान बोते रहे’ और अंत में छात्रों के साथ संघर्ष करते हुए ही चले गए.

मैं किसान हूं
आसमान में धान बो रहा हूं
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूं पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

विद्रोही ऐसे कवि थे जो आजीवन सिर्फ कविता ‘कहता’ रहे और सुनाता रहे. विद्रोही को कविता के लिए कभी कॉपी कलम की जरूरत नहीं पड़ी. वे कविताओं को अपने दिमाग में लिखते थे और छात्रों को सुनाते जाते थे. उनके साथी बताते हैं कि अन्य कवियों की तरह उन्होंने अपना उपनाम खुद नहीं रखा था. रमाशंकर यादव जब विद्रोह की कविताएं लिखने लगे तो उनके चाहने वालों ने उन्हें ‘विद्रोही’ कहा. विद्रोही को साथियों का दिया यह नाम पसंद आया.

विद्रोही खुद को जनता का कवि कहते थे और अंग्रेजीदां जेएनयू कैंपस में ठेठ भाषा में कविताई करते थे. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वे खुद को कबीर की मौखिक परंपरा से जोड़ते थे और कभी उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया उनकी कविता कहीं छपे. विद्रोही का दिमाग सिर्फ और सिर्फ कविता के लिए बना था. वे अपनी कविताओं को अपने दिमाग में संग्रह करते थे, ठीक उसी तरह जैसे कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी आदि की तमाम कविताएं उन्हें जबानी याद थीं.

दिल्ली और जेएनयू में होने वाले प्रदर्शनों में अक्सर विद्रोही पहुंचते और अपनी कविताएं सुनाते. कई बार उनकी कविताओं से ही कार्यक्रमों या प्रदर्शनों का समापन भी होता था. वे सत्ता के चरित्र को बखूबी पहचानते थे.

हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत.
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है.

विद्रोही उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के ऐरी फिरोजपुर में 3 दिसंबर 1957 को जन्मे थे. विद्रोही को करीब से जानने वाले बताते हैं कि शांति देवी नाम की एक बच्ची से उनका बाल विवाह हुआ था. शांति जी पढ़ने स्कूल जाती थीं और विद्रोही जी भैंस चराते थे. गांव के लोग कहते कि रमाशंकर अनपढ़ है, इसकी पत्नी इसे छोड़ देगी.

पत्नी के छोड़ देने के डर से रमाशंकर ने पढ़ना शुरू कर दिया. बीए किया, एलएलबी करने की कोशिश की लेकिन पैसे के अभाव में पूरी नहीं हो सकी. उन्होंने एक नौकरी की, जो उन्हें पसंद नहीं आई तो 1980 में 1980 में वे एमए करने जेएनयू आ गए. जेएनयू ने उन्हें आंदोलन में शरीक होने के जुर्म में छात्र नहीं रहने दिया. वे एक ऐसे विद्रोही, खानाबदोश, फक्कड़ और फटेहाल कवि में तब्दील हो गए, जिसकी जिंदगी में चंद खूबसूरत कविताएं रह गईं.

…और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियां
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियां बिखेरना.

विद्रोही की कविता वंचित जनों की कविता है, जो दुर्भाग्य से जेएनयू की चहारदीवारी से बाहर जनता तक नहीं पहुंच पाई. जन संस्कृति मंच से जुड़े उनके साथियों ने उनकी कविताओं का संग्रह ‘नई खेती’ प्रकाशित करवाया है. विद्रोही जेएनयू में हिंदी साहित्य में एमए करने आए थे जो कभी पूरा नहीं हो सका. लेकिन विद्रोही ने यह दिखाया कि बिना डिग्री लिए भी वे हिंदी साहित्य के अनूठे शिल्पी बने. वे एक विद्रोही जनकवि के रूप में जाने गए, विद्रोही जीवन जिए और विद्रोह करते हुए दुनिया को अलविदा कह गए.

जाने कब से चला आ रहा है
रोज का ये नया महाभारत
असल में हर महाभारत एक
नए महाभारत की गुंजाइश पे रुकता है,
जहां पर अंधों की जगह अवैधों की
जय बोल दी जाती है.
फाड़कर फेंक दी जाती हैं उन सब की
अर्जियां
जो विधाता का मेड़ तोड़ते हैं…

सदियां बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाकी रह जाती है खून की शिनाख़्त,
गवाहियां बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि कागजात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी.

विद्रोही के लिए ‘कविता खेती है’. उनकी कविता ही उनका ‘बेटा-बेटी’ है. उनके लिए कविता ‘बाप का सूद है, मां की रोटी है.’ उनके लिए कविता इंसाफ, मानवता, बराबरी का हथियार है. उन्हें अपनी कविता के ‘कर्ता’ होने का भरोसा है जहां वे कहते हैं, ‘मैं कवि हूं, कर्ता हूं… मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ/औरतों की अदालत में तलब करूंगा/और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा. मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा/जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं/मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा/जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.’

विद्रोही के भीतर का कवि यह पहचान गया था कि प्रकृति और मनुष्य के बीच तालमेल बनाने में क्रूर व्यवस्थाएं ही बाधा हैं और वह इन व्यवस्थाओं के प्रति क्रोध से भर गया था. वे चाहते थे कि वे ‘साइमन न्याय के कटघरे में खड़े हों’ तो ‘प्रकृति और मनुष्य गवाही दें.’ वे ‘मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी’ पर खड़े होकर बोलते हैं जहां ‘एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियां बिखरी पड़ी हैं.’

विद्रोही को बेबीलोनिया से लेकर मेसोपोटामिया तक प्राचीन सभ्यताओं के मुहाने पर एक औरत की जली हुई लाश और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां मिलती हैं, जिसका सिलसिला अंतत: सीरिया के चट्टानों से लेकर बंगाल के मैदानों तक चला जाता है. वे इसके खिलाफ खड़े होकर कहते हैं:

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी मां रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूंगा.

विद्रोही को गए हुए दो साल हो गए हैं लेकिन विद्रोही की कविता से गुजरते हुए लगता है कि विद्रोही अभी जिंदा हैं. सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लेंगे, सारे क्रूर लोग, तानाशाह, जुल्मी मर जाएंगे, उसके बाद विद्रोही मरेंगे ‘आराम से, उधर चल कर वसंत ऋतु में, जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है.’

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq