नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के युवा बेरोज़गारी के मुद्दे पर राज्य की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की योगी आदित्यनाथ सरकार से इस वक्त काफी निराश हैं. भर्ती परीक्षाओं का लंबा इंतज़ार, परीक्षा के पहले पेपर लीक की समस्या, तो कभी बड़े स्तर पर धांधली के चलते परीक्षाओं का रद्द हो जाना, ये सब राज्य में अब आम सी बात हो गई है.
मालूम हो कि यूपी में सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन सरकारी नौकरी में धांधली और पेपर लीक के मामले नहीं. फिलहाल उत्तर प्रदेश में नक़ल एक बड़ा कारोबार बन चुका है. लोगों की मानें, तो ये सिर्फ भाजपा सरकार की बात नहीं है, इससे पहले भी कमोबेश यही स्थिति थी, लेकिन तब भर्ती परीक्षाएं बड़े पैमाने पर आयोजित होती थीं.
अब युवाओं का कहना है कि पेपर निरस्त होने के बाद परीक्षाएं आयोजित ही नहीं होती हैं, भर्तियां तक निकलनी बंद हो गई हैं.
सरकार ये मानना ही नहीं चाहती कि बेरोज़गारी की कोई समस्या है
युवाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठन ‘युवा हल्लाबोल’ के राष्ट्रीय महासचिव प्रशांत कमल ने द वायर को बताया कि पहले की सरकारों में भी रोज़गार और पेपर लीक की समस्या थी, लेकिन तब सरकारें इस मुद्दे को संज्ञान में लेकर उसके समाधान के लिए कोशिश करती थीं. लेकिन मौजूदा केंद्र की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार, इस मामले के प्रति बिल्कुल गंभीर नहीं हैं. सरकार मानना ही नहीं चाहती कि प्रदेश में बेरोज़गारी है. मझोले या बड़े उद्योग हैं ही नहीं, जिसके चलते युवाओं पर सरकारी नौकरी का और अधिक दबाव है.
यूपी के बीते विधानसभा चुनावों में योगी आदित्यनाथ के चार लाख नौकरियों के दावे वाले पोस्टर को देश के अन्य राज्यों में भी लगाया गया था. इसे लेकर प्रशांत कमल का कहना है कि ये एक झूठी खबर थी, जिसका उनके संगठन ने विरोध किया था. बाद में सरकार को इसे हटाना भी पड़ा था.
प्रशांत के मुताबिक, ‘ये युवाओं की ताकत ही है, जो अपने संघर्ष से इस बार चुनाव में बेरोज़गारी को एक बड़ा मुद्दा बनाने में कामयाब हुई है. कम से कम प्रमुख विपक्षी दल अब युवाओं के हक़ की आवाज़ उठा रहा है. सड़क से लेकर जन घोषणा पत्र तक रोज़गार का मसला पहुंचा है. पीएम मोदी के जन्मदिन को जुमला दिवस और बेरोज़गारी दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, जिससे सरकार कहीं न कहीं तो बैकफुट पर नज़र आती ही है.’
ये भर्तियां आखिरी बार इस साल में आईं और तब से अब तक युवा इनके इंतज़ार में बैठे हैं
साल | भर्ती |
2018 | प्राथमिक शिक्षक भर्ती |
2018 | सहायक अध्यापक राजकीय विद्यालय |
2020 | प्रवक्ता राजकीय इंटर कॉलेज |
2018 | असिस्टेंट प्रोफेसर राजकीय महाविद्यलय |
2020 | खंड शिक्षा अधिकारी |
2018 | खंड शिक्षा अधिकारी |
2015 | राजस्व निरीक्षक |
2017 | परिवहन निरीक्षक |
2018 | सहायक सांख्यिकीय अधिकारी |
2013 | प्रधानाचार्य एडेड माध्यमिक विद्यालय |
2018 | वन दरोगा |
2019 | बोरिंग टेक्नीशियन |
2018 | वन रक्षक |
(स्रोत- सेवायोजन कार्यालय, उत्तर प्रदेश सरकार)
यूपी में इलाहाबाद सरकारी नौकरियों की तैयारी के लिए एक बड़ा ‘हब’ माना जाता है. यहां शिक्षक भर्ती की तैयारी में जुटे कई युवाओं ने द वायर को बताया कि प्रदेश में शिक्षकोंं के 50 हजार से अधिक पद खाली हैं. ये जानकारी खुद यूपी सरकार ने 12 जून 2020 को सुप्रीम कोर्ट को दी थी. तब सरकार ने बताया था कि उस समय राज्य के प्रथमिक स्कूलों में शिक्षकोंं के 51,112 पद खाली थे. उसके बाद हर साल हज़ारों की संख्या में शिक्षकों की सेवानिवृत्ति से और भी पद खाली हुए हैंं, बावजूद इसके साल 2018 के बाद से इसकी नियुक्ति प्रक्रिया ही शुरू नहीं हो सकी है.
इन अभ्यर्थियों ने ये जानकारी भी दी कि प्रदेश में शिक्षकों के 5,180 पदों पर विज्ञापन जारी होने के बाद भी भर्ती प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है. इसका कारण है कि उत्तर प्रदेश शिक्षा चयन आयोग सात साल बाद भी सक्रिय नहीं है, जिसके चलते लाखों युवाओं का भविष्य अधर में लटका है.
ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग और माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड को एक साथ विलय कर उत्तर प्रदेश शिक्षा चयन आयोग बनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया था. इस साल मार्च में आयोग की बैठक भी हुई थी, लेकिन अब तक इसके नियमित अध्यक्ष, परीक्षा नियंत्रक और सचिव की नियुक्ति नहीं हो सकी है. इस आयोग का कामकाज भी कब शुरू होगा इसे लेकर कुछ स्पष्ट नहीं है.
चयन आयोग के चलते लटकीं कई भर्तियां
परीक्षार्थियों का कहना है कि इसी आयोग के जरिये बेसिक शिक्षा परिषद् के डेढ़ लाख से अधिक स्कूलों, 4500 से अधिक सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों से लेकर प्रधानाचार्य तक की नियुक्ति होनी है. इसके अलावा सहायता प्राप्त संस्कृत विद्यालयों और 331 महाविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर और प्रधानाचार्य आदि की भर्ती भी इसी आयोग के माध्यम से होगी, जो फिलहाल खाली पड़े हैं.
लखनऊ निवासी मधु पाठक बताती हैं कि उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग ने एडेड कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसर के 1017 पदों और माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड ने सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों में प्रशिक्षित स्नातक (टीजीटी) के 3539 और प्रवक्ता (पीजीटी) के 624 कुल 4163 पदों पर साल 2022 में आवेदन मांगे थे. इन पदों के लिए लाखों अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था. यह भर्ती भी अब नए आयोग से होनी है, जो फिलहाल लटकी पड़ी है.
करीब एक दशक पहले साल 2013 में एडेड माध्यमिक स्कूलों में प्रधानाचार्य भर्ती की परीक्षा में बैठे बलिया के ब्रजेश यादव बताते हैं कि उस साल प्रधानाचार्य के 632 पदों पर भर्ती के लिए माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन आयोग ने प्रक्रिया शुरू की थी. कई साल मामला ठंडे बस्ते में रहने के बाद चयन बोर्ड ने नबंवर 2022 के बीच 632 में से 581 पदोंं का परिणाम घोषित किया.
लेकिन अभी आधे चयनित लोग ही कार्यभार ग्रहण कर सके थे कि हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने चयन प्रक्रिया में नौ साल समय लगने का हवाला देते हुए फरवरी 2023 में भर्ती ही निरस्त कर दी. ये उन हज़ारों, लाखों अभ्यर्थियों के साथ मज़ाक था, जिन्होंने अपने जीवन के कई साल इसमें झोंक दिए.
सेवायोजन कार्यालय में पंजीकृत बेरोज़गार
साल | बेरोज़गार |
2019 | 1,65,807 |
2020 | 1,74,417 |
2021 | 1,93,093 |
2022 | 1,63,946 |
2023 | 1,72,787 |
(स्रोत- सेवायोजन कार्यालय)
लखनऊ के एक अभ्यर्थी ने बताया कि उत्तर प्रदेश में किसी भी सरकारी नौकरी में ग्रुप बी और सी पदों के लिए उम्मीदवारों को पहले यूपीपीईटी यानी उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग प्रारंभिक पात्रता परीक्षा देनी होती है. ये एक साल के लिए ही वैध होती है. लेकिन एक साल में अगर भर्ती परीक्षा नहीं आई तो इस परीक्षा का परिणाम अवैध हो जाता है और आपको फिर दोबोरा परीक्षा देनी पड़ती है. यहांं सालों साल भर्ती परीक्षा ही नहीं हो रहीं, ऐसे में अभ्यार्थी यूपीपीईटी की परीक्षा कितनी बार दें.
वहीं, कई छात्रों का ये भी कहना है कि एक भर्ती चार-पांच साल में पूरी हो रही है. प्राथमिक शिक्षा भर्ती 6 साल से नहीं आई है. टीजीटी, पीजीटी एलटी भर्ती भी वर्षों से नहीं निकली है. इसके चलते लाखों छात्र अवसाद से गुजर रहे हैं. कई बार भर्ती परीक्षा का आयोजन, आवेदन के इतने समय बाद होता है कि वो भूल चुके होते हैं कि उन्होंने परीक्षा के लिए आवेदन भी किया था. कई बार एडमिट कार्ड जारी होने में समस्या होती है. आयोग की हेल्पलाइन पर फोन कोई उठाता नहीं, कहीं और से कुछ जानकारी मिलती नहीं है, ऐसे में कई छात्रों के पैसे भी बर्बाद हो जाते हैं.
कई छात्र आवेदन किए बगैर ही ओवरऐज हो गए
इन उम्मीदवारों के बीच बेरोज़गारी की कुछ ऐसी कहानियां भी हैं जहां कोई रिक्ति आने के इंतजार में छात्र सालों से खड़े हैं. हज़ारोंं छात्र आवेदन किए बगैर ही ओवर ऐज यानी पात्रता की आयुसीमा से ऊपर होकर नौकरी की रेस से बाहर हो जा रहे हैं. इसके बाद भी यदि सालों बाद कोई भर्ती आ भी जाए तो नकल माफिया पेपर लीक कराकर उनके मंसूबों पर पानी फेर दे रहे हैं. सरकार और सिस्टम सिर्फ ‘सख्त कानून’ और ‘बेहतर कानून व्यवस्था’ का डंका पीटते रह जा रहे हैं.
नोएडा उत्तर प्रदेश का नया ‘कोचिंग हब’ बन रहा है. यहां कई सालों से सरकारी परीक्षा की तैयारी करवा रहे अभिषेक तिवारी बताते हैं कि उनके संस्थान में ज्यादातर गरीब, मध्यम वर्ग के छात्र पढ़ने आते हैं. ग्रुप बी और सी के लिए भी आजकल आवेदन बहुत बढ़ गए हैं, इसलिए छात्र अपनी ओर से तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ते. कुछ के मांं-बाप ने उन्हें ज़मीन बेचकर पढ़ने के लिए भेजा होता है, कई नौकरी लगने के इंतजार में भूखे-प्यासे रहकर पढ़ाई करते हैं, जिससे अपने बचे पैसे का इस्तेमाल फीस और किताबों के लिए कर सकें.
लोक सेवा आयोग के कई उम्मीदवारों ने बताया कि आयोग ने पिछले छह सालों से यूपी एलटी ग्रेड शिक्षक का विज्ञापन नहीं निकाला है. खंड शिक्षा अधिकारी (बीईओ भर्ती) का भी कुछ पता नहीं. सिपाही, सहायक समीक्षा अधिकारी (एआरओ) और समीक्षा अधिकारी (आरओ) के पेपर लीक से लाखों छात्र निराश है. लेखपाल भर्ती की जॉइनिंग अभी तक नहीं आई है. ऐसे में हज़ारों-लाखों छात्र दिन-रात तनाव से गुज़र रहे हैं क्योंंकि उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की कार्य प्रणाली बहुत सुस्त है. पहले परीक्षा होने में साल लग जाते हैं और फिर पेपर लीक या धांधली की खबर से सब एक झटके में खत्म हो जाता है.
सरकार क्या कर रही है?
इन उम्मीदवारों की तमाम परेशानियों के बीच राज्य की योगी आदित्यनाथ सरकार लगातार प्रदेश में निवेश बढ़ने, बेरोज़गारी दर घटने और धांधली करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का दावा करती रही है. रोज़गार की स्थिति सुधारने के लिए प्रदेश में रोज़गार मेले और कई इंवेस्टमेंट समिट भी आयोजित हुई हैं.
हालांकि, ये योजनाएं युवाओं को कितना बेरोज़गारी के दलदल से निकालने में सफल रहीं, अभ्यर्थियों ने एक शब्द में इसका जवाब देते हुए इसे ‘ढकोसलेबाज़ी’ बताया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के प्रतिष्ठित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पीएचडी स्कॉलर अनुपम कुमार बताते हैं कि जब किसी विश्वविद्यालय में कमजोर पृष्ठभूमि से छात्र पहुंचते हैं, तो उनके मां-बाप अपना पेट काटकर उनकी पढ़ाई-लिखाई रहने का खर्चा उठाते हैं, जिससे बच्चा आगे पढ़े और सरकारी नौकरी पकड़ ले. क्योंकि इसमें जॉब सुरक्षा होती है. उन्हें बेवजह नौकरियों से नहीं निकाले जाने की गारंटी है लेकिन जब इन नौकरियों पर ही संकट है, तो छात्रों के भविष्य पर भी संकट मंडराने लगा है.
रोज़गार मेले के सवाल पर अनुपम कहते हैं कि इसमें कितनी और कैसी नौकरियां मिल रही हैं, ये देखने वाली बात है.
वो सवाल उठाते हैं कि सरकार क्या इन नौकरियों में जॉब सुरक्षा दे रही है? क्या इन नौकरियों में सरकारी नौकरियों की तरह सुविधा और अन्य इंसेंटिव शामिल हैं? क्या ये नौकरियां उम्मीदवारों की योग्यता के अनुसार उसे पैसे भी दे रही हैं? अगर इन सबका जवाब न है, तो सरकार को ये रोज़गार मेले का नाटक बंद कर देना चाहिए, क्योंकि ये महज़ लोगों को गुमराह करने की कोशिश है. ये सरकारी नौकरियां खत्म कर लोगों को निज़ी क्षेत्र में ढकेलने की साजिश है.
निवेश तो आ रहा है, लेकिन रोज़गार कितना मिल रहा है?
अनुपम आगे कहते हैं कि राज्य में अगर बाहर से बड़ा निवेश आ रहा है, तो ये अच्छी बात है, लेकिन क्या इससे युवाओं को रोज़गार मिल रहा है, या ये सिर्फ कॉरपोरेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश है. ये सोचना चाहिए. अगर सरकार की जीडीपी बढ़ रही है, और युवा सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं, तो ये समझना मुश्किल नहीं है, कि इससे फायदा किसको है. जब कॉरपोरेट टैक्स 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया जाता है, वहीं आम जनता को महंगाई से कोई राहत नहीं मिलती तो इससे अंदाजा लगा लेना चाहिए कि ये सब किसके फायदे के लिए हो रहा है.
‘पूरब के ऑक्सफोर्ड’ कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर जीएन झा हॉस्टल के छात्र इस चुनाव में बेरोज़गारी की समस्या को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं.
उनका कहना है कि शॉर्ट टर्म एम्प्लॉयमेंट जिसमें, अग्निवीर, ओला, उबर, जोमैटो वाले डिलीवरी के काम, अस्थायी कर्मचारियों आदि के अलग-अलग काम शामिल हैं, ये कोई स्थाई रोज़गार नहीं है, जिसे सरकार बेरोज़गार दर को कम करने के लिए इस्तेमाल कर रही है. ये सब केवल सरकारी नौकरियों को खत्म करने का तरीका है.
इन छात्रों का कहना है कि वैसे भी सरकार में अब लीपिक और चपरासी का पद संविदा से ही भरा जा रहा है. जो लोग सेवानिवृत्त हो गए हैं, उनके पद पर भी संविदा वाले ही काम कर रहे हैं. ऐसे में इसे भला स्थाई रोज़गार कैसे माना जा सकता है. ये सब सिर्फ ‘गिग इकोनॉमी’ का हिस्सा है. क्योंकि अब सरकारी नौकरी की तैयारी करने वालों को भी लगने लगा है कि वो पूरी तरह से खप गए हैं, किसी को नहीं पता कि कब नौकरी मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. इसलिए पेट पालने और घर चलाने के लिए अभ्यर्थी इस ओर जा रहे हैं.
पेपर लीक इन छात्रों की सालों की मेहनत और पैसा दोनों बर्बाद कर देता है, जिसे लेकर छात्र शासन-प्रशासन से और ज्यादा नाराज़ हैं. इनका कहना है कि पेपरों की सुरक्षा के लिए इतने पुख्ता इंतजाम होते हैं, सरकार के लाखों रुपये खर्च होते हैं, फिर भी ये लीक कैसे हो जाते हैं. क्या ये युवाओं को नौकरी से दूर रखने के लिए एक भम्र वाली स्थिति बनाने की कोशिश है, जिससे सरकार को उन्हें नौकरी न देनी पड़े.
उत्तर प्रदेश में नकल कानून का इतिहास
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश देश में पहला ऐसा राज्य था, जिसने इंटर हाईस्कूल की परीक्षाओं में नकल पर जेल भेजने का कानून बनाया था. 1991 में कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री काल में राजनाथ सिंह यूपी के शिक्षा मंत्री थे. तब नकल को रोकने के लिए सरकार द्वारा नकल विरोध का एक अध्यादेश लागू किया गया. सरकार के ज्यादातर मंत्री ही इस अध्यादेश के खिलाफ थे. अध्यादेश लागू होने के बाद 1992 में यूपी में इंटरमीडिएट के सिर्फ 14 प्रतिशत और हाईस्कूल के 30 फीसदी अभ्यर्थी ही पास हो पाए थे.
हालांकि इसका खामियाजा, कल्याण सिंह की सरकार को 1993 में हुए विधानसभा चुनावों में भुगतना पड़ा. कल्याण सिंह की सत्ता गई और चुनावों में समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला. सत्ता में आने के बाद मुलायम सिंह ने नकल अध्यादेश को वापस ले लिया था.
आज लगभग तीन दशक बाद भी उत्तर प्रदेश में नकल एक बड़ी समस्या है. बोर्ड परीक्षाओं से इतर नौकरी की परीक्षा में नकल और पेपर लीक को रोकने में आज की योगी आदित्यनाथ सरकार नाकाम साबित हो रही है. प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता भी इस मामले में फीकी ही नज़र आती है. उनके कई समर्थक भी मानते हैं कि बाकि मोर्चों पर हिट मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार यहां विफल दिखाई पड़ती है.
इस बार चुनाव में बेरोज़गारी एक बड़ा मुद्दा
प्रदेश में बेरोज़गारी कितनी विकराल है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन ‘राष्ट्रीय बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मना रहे हैं और सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं.
पिछले कुछ महीने से बेरोज़गारी को लेकर विपक्ष, युवाओं और कुछ दूसरे सगंठनों के हंगामे के बाद सरकार अपने चुनावी प्रचार के दौरान इस मुद्दे को लेकर थोड़ी असहज भी नज़र आई है.
बीते कई सालों से कानपुर में सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे एक युवा वैभव कुशवाहा बताते हैं कि बीते चुनाव के मुकाबले इस बार के चुनाव में बेरोज़गारी एक बड़ा मुद्दा है. लोग इसके बारे में गुमटी, चौपालों में चर्चा कर रहे हैं. युवाओंं में आक्रोश भी है. बस यही देखना है कि क्या ये गुस्सा वाकई वोट में तब्दील हो पाएगा.
वो आगे जोड़ते हैं कि चूंकि विपक्ष ने भी इस बार रोज़गार को लेकर अपने भाषणों और मेनिफेस्टों में कई वादे किए हैं, इसे मुद्दा बनाने की शुरुआत से ही कोशिश की है. बिहार में तेजस्वी-नीतीश की सरकार ने ये करके भी दिखाया है. यूपी के अभ्यर्थी बिहार जाकर नौकरी ढूंढ रहे हैं. ये राज्य सरकार की नाकामी है.
वैभव कई छात्र आंंदोलनों में भी हिस्सा ले चुके हैं और बताते हैं कि रोजगार के मुद्दे पर डबल इंजन की सरकार फेल है.
उनका कहना है, ‘सरकार को रोजगार का अवसर प्रदान करना चाहिए. अर्थव्यवस्था बढ़ रही है. मेक इन इंडिया, मैन्युफैक्चरिंग, जीएसटी, राम मंदिर जैसे काम बढ़िया किया है, लेकिन रोजगार के मुद्दे पर फेल है. रोजगार इस वक्त सबसे बड़ी समस्या है. दो करोड़ का वादा सरकार ने किया था पूरा नहीं हुआ. अग्निवीर भर्ती योजना से युवा काफी निराश हुए हैं. ऐसे में सरकार से आगे की उम्मीद भी धुंधली ही नज़र आती है.’