ग्राउंड रिपोर्ट: एक विधानसभा सीट वाले डांग ज़िले में रोज़गार के लिए पलायन और आदिवासियों की धार्मिक पहचान अहम मुद्दा है.
आहवा/डांग: डिजिटल इंडिया के इस दौर में मोबाइल नेटवर्क विकास का वाहक बन गया है. इस आधार पर हम कह सकते हैं गुजरात के आदिवासी ज़िले डांग में विकास इसलिए नहीं पहुंच पाया है क्योंकि यहां मोबाइल का नेटवर्क ढंग से नहीं पहुंचा है.
डांग जिले के मुख्यालय आहवा जाने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग बना हुआ है लेकिन राजमार्ग पर करीब 30 से 40 किमी. तक आपको मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता है जबकि इस राजमार्ग के अलग-बगल बड़ी संंख्या में गांव बसे हुए हैं.
डांग गुजरात का सबसे छोटा ज़िला है. यहां पर सिर्फ एक विधानसभा सीट है. अगर गांवों की संख्या देखें तो कुल 311 गांव हैं. ज़िले के 75 फीसदी इलाके में जंगल है सिर्फ 25 फीसदी इलाके में लोग रहते हैं.
इस ज़िले भारत के ज़्यादातर इलाकों में लड़कियों की गिनती लड़कों से कम हैं, वहीं डांग में 1,000 पुरुष पर 1,007 महिलाएं हैं. कुल आबादी का लगभग 95 फीसदी हिस्सा आदिवासियों का है.
डांग का शाब्दिक अर्थ लकड़ा होता है. यहां के जंगलों में सागौन के पेड़ बहुत मिलते हैं. यह लकड़ी बहुत कीमती होती है इसलिए ज़िले का नाम डांग पड़ गया.
जानकार बताते हैं कि यहां के जंगलों पर अंग्रेज़ों की भी नज़र थी इन पर अधिकार करने के लिए उन्होंने यहां के आदिवासियों से कई लड़ाइयां लड़ी.
यहां के लोग दावा करते हैं कि अंग्रेज़ इस इलाके को कभी जीत नहीं पाए. बस समझौते के तहत वो यहां के जंगलों को लीज़ पर लेने में कामयाब हो गए थे.
फिलहाल हम चुनाव पर लौटते हैं. डांग ज़िले की इकलौती विधानसभा सीट पर 2012 में कांग्रेस के मंगलभाई गंगाजीभाई गावित ने 45,637 वोटों के साथ जीत हासिल की थी. उन्होंने भाजपा के विजय भाई पटेल को 2,422 वोट से हराया था. इस बार भी यही दोनों उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं.
प्रस्तावित बांध और नदी जोड़ो परियोजना से विस्थापन का भय
डांग ज़िले में प्रस्तावित बांध और नदी जोड़ो परियोजना से होने वाले विस्थापन का भय लोगों में बहुत ज़्यादा है. ज़िले के ज़्यादातर लोग इस मुद्दे पर बात करते नज़र आए.
स्थानीय लोगों के मुताबिक डांग के कुल 311 गांवों में से 37 गांव इसके चलते डूबने वाले हैं और करीब 1700 परिवार विस्थापित होंगे.
आहवा में रहने वाले एडवोकेट भरत भोईया बताते हैं, ‘दक्षिण गुजरात में पार, तापी और नर्मदा लिंक योजना के अनुसार चिकार, दाबदर और कंलवण में तीन बड़े बांध बनने हैं. बांध की वजह से 37 से अधिक गांव को नुकसान हो रहा है.’
भरत कहते हैं, ‘नेशनल वाॅटर डेवलपमेंट एजेंसी द्वारा दक्षिण गुजरात में छह बड़े बांध बनाने के लिए गुजरात और महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र की सरकार के साथ करार किया था. हालांकि अभी चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल के लोग कह रहे हैं कि कोई भी बांध नहीं बनेगा लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से कोई बयान नहीं आया है. वहीं, कांग्रेस के विधायक कह रहे हैं कि चुनाव के बाद बांध के निर्माण का काम शुरू हो जाएगा.’
वे आगे कहते हैं, ‘योजना इस बांधों से सौराष्ट्र को पानी दिए जाने की है लेकिन इनके बनने से आदिवासी जनता को भारी नुकसान होगा. ये यहां के लोगों के साथ अन्याय है. यहां पर खूब बारिश होती है लेकिन पानी इकट्ठा न कर पाने की वजह से खेती बहुत अच्छी नहीं हो पाती है. यहां ज़रूरत छोटे-छोटे बांध बनाने की है लेकिन तैयारी बड़े बांधों की हो रही है. वैसे भी पश्चिम डांग की ज़मीन खेती करने लायक हैं. वहां 1700 परिवारों के विस्थापन की तैयारियां हो रही हैं. एक तरह से यह पूरी आदिवासी संस्कृति को ख़त्म करने की साज़िश है.’
जिन गांवों के विस्थापन की बात कही जा रही है. वहां इस बात को लेकर भय का माहौल ज़्यादा है. ऐसी ही एक गांव कासिम पाटल है.
इस गांव के रहने वाले मंगल भाई कहते हैं, ‘हमने अपनी पूरी ज़िंदगी इस इलाके में बिता दी है. अब कहा जा रहा है कि बांध बनेगा और आपको यहां से हटाया जा रहा है. यह सब विकास के नाम पर किया जा रहा है लेकिन यह विकास हमारे लिए विनाश बन गया है. अभी हम गांव के लोग इस बात पर सहमति बना रहे हैं कि हम इस चुनाव में किसी को वोट करने ना जाएं.’
रोज़गार भी बड़ा मुद्दा
इस ज़िले में दूसरी बड़ी समस्या रोज़गार की है. खनिज संपदा और अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर डांग में रोज़गार के लिए पलायन आम है.
याद कीजिए बालीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन ने गुजरात टूरिज़्म के लिए एक विज्ञापन किया था जिसमें डांग ज़िले के एक पर्यटन केंद्र सापूतारा की चर्चा की गई थी.
उस विज्ञापन की लाइन है, ‘गुजरात की आंखों का तारा है- सापूतारा. इस हिल स्टेशन पर बात करने के लिए कोई नहीं है, सिवाय बादलों के.’
सापूतारा या पूरे डांग की खूबसूरती को सिर्फ एक लाइन में समाहित नहीं किया जा सकता है. बड़ी संख्या में गुजरात के दूसरे हिस्सों और महाराष्ट्र से लोग घूमने के लिए आते हैं लेकिन इसके बावजूद रोज़गार के लिए यहां बहुत कुछ नहीं है.
आहवा में हमारी मुलाकात स्थानीय पत्रकार लक्ष्मण बांगुल से होती है. वे बताते हैं, ‘रोज़गार यहां की सबसे बड़ी समस्या है. यहां की करीब 40 फीसदी आबादी रोज़गार के लिए पलायन करती है. ज़्यादातर लोग चीनी मिल में काम करने या फिर खेती या छोटी-मोटी मज़दूरी के लिए पलायन करते हैं.’
उन्होंने बताया, ‘पलायन के साथ यह समस्या है कि पूरा परिवार मज़दूरी करने के लिए चला जाता है. वो चार महीने डांग में रहते हैं और आठ महीने बाहर रहते हैं. इससे उनके बच्चों की पढ़ाई रुक जाती है.’
वे आगे कहते हैं, ‘जब ये मज़दूर वापस डांग लौटते हैं तो उन्हें त्वचा संबंधी तमाम रोग हो जाते हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में महिलाओं को यौन शोषण का सामना करना पड़ता है. उन्हें यह सब सहना पड़ता है लेकिन मजबूरी यह है कि डांग में किसी के पास कोई काम नहीं है.’
कुछ ऐसा ही कहना सामाजिक कार्यकर्ता मोनीला का है. वो कहती हैं, ‘हम सरकार से महिलाओं के लिए आदिवासी इलाकों में रोज़गार की मांग करना चाहते हैं. आदिवासी महिलाएं जब अपने इलाकों से बाहर जाती हैं तो उन्हें बहुत ज़्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है. हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर हैं. बाहर के समाज में महिलाओं को वो दर्जा नहीं हासिल है. जब रोज़गार की तलाश में हमारी महिलाएं बाहर जाती हैं तो उन्हें परेशान किया जाता है.’
डांग के आदिवासियों में फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र दिए जाने को लेकर भी काफी आक्रोश है. अखिल भारतीय आदिवासी महासंघ के अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता लालू भाई वसावा कहते हैं, ‘हमारे लिए चुनाव में फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र बड़ा मुद्दा है. हमारे लिए अलग धर्म कोड चाहिए. अभी जो जनगणना रजिस्टर चल रहा है. उसमें सिर्फ छह धर्म है. हम इसमें से किसी धर्म के नहीं हैं. 2021 की जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग कॉलम चाहिए.’
वे आगे कहते हैं, ‘आदिवासी मुख्यधारा में आने के लिए तैयार है लेकिन हमारी संस्कृति, कस्टमरी लॉ (प्रथागत क़ानून) का विनाश नहीं होना चाहिए. अभी हमारा विकास सरकारी नज़रिये से हो रहा है. गुजरात में सरकार हमारे धार्मिक रीति रिवाजों को न मानते हुए हिंदू धर्म के रिवाज़ों को हम पर थोपा जा रहा है. आदिवासी समाज ऐसे विकास से नाराज़ है.’