सुरक्षा के मोह में ही सबसे पहले मरता है आदमी अपने शरीर के इर्द-गिर्द
दीवारें ऊपर उठाता हुआ
मिट्टी के भिक्षापात्र आगे और आगे बढ़ाता हुआ गेहूं
और हथियारबंद हवाईजहाज़ के लिए
केवल मोहविहीन होकर ही जब कि नंगा भूखा बीमार
आदमी सुरक्षित होता है
…
अपनी देह सीमाओं के विषय में ईश्वर के प्रति
एक ही प्रार्थना हो सकती है आधुनिक मनुष्य की व्यक्तिगत प्रार्थना
अपनी मुक्ति के लिए –
संगठन और संस्थाओं के विरुद्ध हो जाना अर्थात् शासन-तंत्र और सेनाओं
के
विरुद्ध हो जाना अपनी इकाई बचाने के लिए एक ही प्रार्थना
वास्तविक जीवन में और कविता में
…
आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियां केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
आदमी को इस लोकतंत्री संसार से अलग हो जाना चाहिए
चले जाना चाहिए कस्साबों गांजाखोर साधुओं
भिखमंगों अफ़ीमची रंडियों की काली और अंधी दुनिया में मसानों में
अधजली लाशें नोचकर
खाते रहना श्रेयस्कर है जीवित पड़ोसियों को खा जाने से
हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है
इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की
साज़िश में
राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ 60 साल पहले लिखी गई थी. भारत के जनतंत्र का रूमानी दौर जवाहरलाल नेहरू की मौत के साथ ही ख़त्म हो चला था. स्वाधीनता आंदोलन में जिस स्वतंत्रता की कल्पना की गई थी, वास्तविकता में वह कहीं नज़र नहीं आती थी. स्वाधीनता का अर्थ देश के दूसरे देश की ग़ुलामी से आज़ाद होना तो था, लेकिन असल सवाल यह था कि यह देश क्या है या इसे क्या होना है.
स्वाधीन होने का क्या अर्थ है? स्व क्या है, किसका है और इसका गुण क्या है?
नेहरू से पूछा गया कि देश के बारे में उनकी चिंता क्या है. उन्होंने कहा कि उनके दिमाग़ में 35 करोड़ चिंताएं है. 35 करोड़ अलग-अलग दिल और दिमाग़, अलग-अलग व्यक्ति. उन सबको देशवासी, भारतीय आदि कहकर एक अमूर्त सत्ता में तब्दील नहीं कर दिया जा सकता.
जनतंत्र के साथ परेशानी यह है कि वह टिका तो हुआ है एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत और उसके व्यवहार पर, लेकिन क्या यह व्यक्ति प्रामाणिक व्यक्ति है? क्या वह मतदान देने के पहले, उस समय और उसके बाद स्वतः संपूर्ण, आत्म निर्णय के अधिकार के प्रति आश्वस्त व्यक्ति है? या जनतंत्र की यह पूरी प्रक्रिया राज्य और जनतांत्रिक संस्थाओं के द्वारा हमेशा उससे उसकी अद्वितीयता छीनने की प्रक्रिया है?
जो सवाल राजकमल चौधरी कर रहे हैं, वह तक़रीबन इसी समय भारत से बहुत दूर यूरोप के विचारक हरबर्ट मार्क्यूज़ ‘मुक्ति पर एक निबंध’ में कर रहे थे:
अभी आवश्यकताओं, ज़रूरतों का सवाल ही सबसे बड़ा सवाल है. इस वक्त प्रश्न यह नहीं है बिना दूसरों को नुक़सान पहुंचाए एक व्यक्ति अपनी ज़रूरतें पूरी कैसे करेगा, बल्कि यह है कि वह ख़ुद अपने को नुक़सान पहुंचाए बिना अपनी ज़रूरतें कैसे पूरी करेगा? अपनी इच्छाओं और संतोष को पूरा करने के लिए वह जिस शोषणकारी तंत्र पर अपनी निर्भरता को पुनरुत्पादित करता जाता है और इस तरह अपनी ग़ुलामी को और गहरा करता जाता है (उससे वह मुक्त कैसे हो सकता है?).
जनतंत्र को जन परिभाषित करता है, लेकिन कवि और दार्शनिक निराशा के साथ इस जन में व्यक्ति का लोप होते हुए देखते हैं. जनतंत्र बिना राज्य के मूर्त नहीं होता. वह राज्य का गठन करता है. और राज्य फिर उस जन को अपने अधीन कर लेता है. सबसे पहले उसे सुरक्षित करने के नाम पर. और सुरक्षा के इस मोह में व्यक्ति ख़ुद को हवाले कर देता है तंत्र के जो राज्य है. इतना ही नहीं वह अकेला भी कर दिया जाता है.
बिना ख़ुद को चहारदीवारी में घेरे वह सुरक्षित कैसे हो सकता है? अपने पड़ोसियों से उसे ख़ुद को सुरक्षित करना है और उन पर नज़र भी रखनी है:
सुरक्षा के मोह में ही सबसे पहले मरता है आदमी अपने शरीर के इर्द-गिर्द
दीवारें ऊपर उठाता हुआ
यह शरीर जो घेरा जा रहा है एक व्यक्ति का है और राष्ट्र का भी है. 1960 के दशक के भारत और विश्व को जानने वाले इन पंक्तियों की मार्मिकता को महसूस कर सकते हैं. एक साथ मिट्टी के भिक्षापात्र और हथियारबंद जहाज़ जिसकी प्राथमिक आवश्यकता हो, वह क्या स्वाधीन व्यक्ति है?
20वीं सदी के 60 के दशक में मुक्ति का यह प्रश्न मात्र भारत के इस कवि का नहीं था. मार्क्यूज़ अपने निबंध में कहते हैं कि युवा विद्रोहियों को मालूम है कि उनकी पूरी ज़िंदगी ही दांव पर लगी हुई है, इंसानों की ज़िंदगी जो राजनेताओं, मैनेजरों और जनरलों का खिलौना बन गई है. विद्रोही इस जीवन को इनके हाथों से ले लेना चाहते हैं और उसे जीने लायक़ बनाना चाहते हैं. उन्हें एहसास है कि यह अभी भी मुमकिन है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक संघर्ष ज़रूरी होगा जो एक आज़ाद ऑर्वेलियाई दुनिया में छद्म जनतंत्र के क़ायदों और रस्मों में बंधकर नहीं किया जा सकता. हमें जॉर्ज ऑर्वेल का उपन्यास ‘1984’ बार-बार याद आता है. हर जनतंत्र में ‘1984’ की आशंका है.
जनतंत्र के शुरू होते ही एहसास होने लगता है कि इसमें कुछ है जो नक़ली है. आदमी ख़ुद को ख़ुद से आज़ाद ताक़तों से पाबंद पाता है जो उसे यक़ीन दिलाती हैं कि वे जो क़ायदा बना रहे हैं, वह उसकी भलाई के लिए ही है, उसे सुरक्षित रखने के लिए है. मनुष्य को मात्र आर्थिक इकाई में शेष कर देना जनतंत्र की सबसे बड़ी विफलता है:
केवल वर्तमान में जीते हैं अब समस्त प्रजाजन
मर जाते हैं अतीत में और भविष्य में मर जाते हैं
भीड़ जुलूस लाठीचार्ज जन आंदोलन आम सभाओं के श्रोता वक्ता भोक्ता
गेहूं के सिवा कोई बात नहीं करते
आदमी चंद्रमा को बना ही डाले अपना उपनिवेश
आदमी ईश्वर शैतान धर्म नीति से स्वाधीन हो जाए क्या होता है
…
आदमी ख़ुद बिके अथवा बेच ही डाले अपनी स्त्री अपनी आंखें अपना देश
मगर भीड़ अब खाने के लिए गेहूं
और सो जाने के लिए गंदे बिस्तरे के सिवा कोई बात नहीं
कहती है
प्रजाजनों के शब्दकोश में नहीं रह गए हैं दूसरे शब्द दूसरे वाक्य
दूसरी चिंताएं नहीं रह गई हैं
किन दूसरी चिंताओं की बात कविता कर रही है? और कवि की चिंता क्या है:
…अभी मैं चुप हूं और अभी मैं चिंताग्रस्त हूं
केवल यह तमाशा देखता हूं मैं अभी लोग किस तरह
ऊंची दीवारों पर सीढ़ियां-दर-सीढ़ियां लगाकर
उस पार कूद जाते नहीं आंखें बंद किए पेट और पिंडलियों पर रखे हुए
दोनों हाथ
और हाथों में अपना ही कटा हुआ सिर आत्मरति और
परपीड़ा के लिए …
इस इंसान का सपना तो नहीं था! अपने इर्द गिर्द दीवार उठाकर व्यक्ति सुरक्षित होता है या अकेला होता है? वह ख़ुद को दूसरों से इंसानी रिश्ते में जोड़ता है या उनके प्रति संदेह की दूरी बना लेता है? क्या वह जनतंत्र के नाम पर ऐसा जाल तो नहीं बन रहा जिससे निकलना उसके बस में नहीं रह जाएगा, वह जाल एक ऐसा समाज है जिसमें हर पड़ोसी दूसरे पर निगाह रखता है? आत्मरति और परपीड़ा, एक दूसरे के बिना नहीं. लेकिन क्या यही है वह इंसान जिसका वादा था?
जनतंत्र का पहला वादा था मुक्ति का. आत्म की मुक्ति. लेकिन हुआ क्या? क्या वह होना अवश्यंभावी था? और क्या जो हुआ उससे मुक्त नहीं हुआ जा सकता? यह बेचैन सवाल भारत में राजकमल चौधरी, अमेरिका में एलेन गिंसबर्ग पूछ रहे थे. जिस रास्ते चल पड़े हैं, उससे वापस कहां जाएं और कैसे:
क्यों नहीं है मेरे लिए कोई नाम कोई नदी कोई चिड़िया कोई फूल कोई सिद्धांत
कोई दरख़्त कोई राजनीति दल कोई जंगल
…
वापस लौट जाऊं मैं जहां एक बार फिर से अपनी यात्रा
शुरू करने के लिए
क्यों नहीं है मेरे लिए जीने में अथवा मर जाने में कोई कारण
कोई सत्य कोई न्याय कोई आकर्षण
लौटने की शुरुआत हो सकती है अगर व्यक्ति ख़ुद को संगठन से मुक्त करे. वह प्रार्थना है उससे मुक्ति की:
संगठन और संस्थाओं के विरुद्ध हो जाना अर्थात् शासन-तंत्र और सेनाओं के
विरुद्ध हो जाना अपनी इकाई बचाने के लिए एक ही प्रार्थना
मार्क्यूज़ जिसे छद्म जनतंत्र कहते हैं या ऑर्वेलियाई आज़ादी कहते हैं उससे मुक्त होना पहली ज़रूरत है क्योंकि उसे भ्रम होता है कि वह जीवित है लेकिन
आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियां केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
ख़ुद को शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक के रूप में शेष होने से कैसे बचाएं?
राजकमल चौधरी के इस संसार से विदा लेने के 60 साल बाद क्या उनका यह सुझाव सुना नहीं जाना चाहिए?
आदमी को इस लोकतंत्री संसार से अलग हो जाना चाहिए
चले जाना चाहिए कस्साबों गांजाखोर साधुओं
भिखमंगों अफ़ीमची रंडियों की काली और अंधी दुनिया में मसानों में
अधजली लाशें नोचकर
खाते रहना श्रेयस्कर है जीवित पड़ोसियों को खा जाने से
हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है
इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की
साज़िश में
60 के दशक के कविता में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों में जो स्त्री विरोध है या दूसरे दुराग्रह हैं उनमें विद्रोही तेवर तो है, लेकिन वह जनतांत्रिक नहीं है. यह इन पंक्तियों में इस्तेमाल शब्दों या धूमिल की प्रसिद्ध पंक्ति ‘जिसकी पूंछ उठाई मादा पाया है’ में देखा जा सकता है. इसके बारे में उसी वक्त अशोक वाजपेयी ने सावधान किया था. भाषा में गुंथे हुए पूर्वाग्रहों के साथ जनतंत्र के लिए संघर्ष कैसे किया जा सकता है?
कविता लेकिन नियमबद्धता को तोड़ने का आह्वान करती है. एक ऐसी दुनिया में रहने से इनकार जिसमें जीवित पड़ोसियों को खाने का रिवाज है.
इज़रायल अभी जो ग़ाज़ा में कर रहा है वह इस लोकतंत्र की आड़ में ही. पूरी जनतांत्रिक दुनिया इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की साज़िश में शामिल है. उससे अलग हुए बिना उसका सामना कैसे किया जाए? लेकिन अलग होने का मतलब क्या जनतंत्र को ही ठुकरा देना होगा? या वास्तविक जनतंत्र हासिल करना?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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