संपूर्ण क्रांति और भारतीय जनतंत्र पर उसके दूरगामी प्रभाव

आम तौर पर आपातकाल को भारतीय जनतंत्र के इतिहास में बड़ा व्यवधान माना जाता है. पर उसके पहले हुए उस आंदोलन के बारे में इस दृष्टि से चर्चा नहीं होती है कि वह जनतांत्रिक आंदोलन था या ख़ुद जनतंत्र को जनतांत्रिक तरीक़े से व्यर्थ कर देने का उपक्रम. कविता में जनतंत्र स्तंभ की सत्ताईसवीं क़िस्त.

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1974 में गुजरात में नवनिर्माण प्रदर्शन. (फोटो साभार: narendramodi.in)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी ख़त्म नहीं होगा क्या
पूर्ण क्रांति का भ्रांति विलास
प्रवचन की बहती धारा का
रुद्ध हो गया शांति विलास
खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
मिला क्रांति में भ्रांति विलास

मिला भ्रांति में शांति विलास
मिला शांति में क्रांति विलास
मिला क्रांति में भ्रांति विलास

पूर्ण क्रांति का चक्कर था
पूर्ण भ्रांति का चक्कर था
पूर्ण शांति का चक्कर था
पूर्ण क्रांति का चक्कर था

टूटे सींगोंवाले सांडों का यह कैसा टक्कर था!
उधड़ा दुधारू गाय अड़ी थी
इधर सरकसी बक्कर था !
समझ न पाओगे वर्षों तक
जाने कैसा चक्कर था !
तुम जनकवि हो, तुम्हीं बता दो
खेल नहीं था, टक्कर था !

‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ शीर्षक नागार्जुन की यह कविता 1975 में लिखी गई. लेकिन इसका प्रसंग 1974 का बिहार का वह आंदोलन है जिसे जेपी एजीटेशन’ के नाम से जाना जाता है. जेपी यानी जयप्रकाश नारायण. भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लोकप्रिय नेता. आरंभ में मार्क्सवादी और फिर समाजवादी. जवाहरलाल नेहरू के गहरे मित्रों में से एक. उनकी पत्नी प्रभावती जी नेहरू की पत्नी कमला नेहरू की गहरी मित्र थीं. माना जाता है कि नेहरू बहुत चाहते थे कि जेपी उनके मंत्रिमंडल में शामिल हों. वे संभवतः उनमें भारत का भावी प्रधानमंत्री भी देख रहे थे. लेकिन जेपी ने नेहरू का आग्रह नहीं माना. अनेक दूसरे समाजवादी सहयोगी अब नेहरू के विरोधी थे. जेपी इनके साथ भी न रहे और उन्होंने राजनीति से ख़ुद को अलग कर लिया.

नेहरू की मृत्यु के ठीक 10 साल बाद जयप्रकाश नारायण ने राजनीति में फिर से प्रवेश किया. बिहार में छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व संभालने के नानाजी देशमुख के आग्रह को वे ठुकरा न सके. नानाजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नेता थे. एक समय जयप्रकाश आरएसएस के कठोर, समझौताविहीन आलोचक थे. लेकिन 1974 में उन्हें जनतंत्र ख़तरे में जान पड़ा और उसे बचाने के लिए उन्होंने आरएसएस के साथ जाना अपना कर्तव्य माना. यह उनके पूर्व मित्र राममनोहर लोहिया की उस नीति का ही अनुसरण था जिसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वे शैतान से भी हाथ मिला सकते हैं.

1974 का बिहार छात्र आंदोलन आज़ादी के बाद हुआ कोई पहला आंदोलन न था. उसके ठीक पहले गुजरात में छात्रों ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया था जो बाद में नवनिर्माण आंदोलन में बदल गया. उसके कारण और फिर मोरारजी देसाई के आमरण अनशन के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुजरात की चिमनभाई पटेल की पूर्ण बहुमतवाली सरकार को बर्खास्त कर दिया. इस आंदोलन के पीछे भी आरएसएस की भूमिका की चर्चा हुई है.

यह एक बड़ा और ख़तरनाक कदम था. गुजरात आंदोलन की पीठ पर बिहार में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ. इस आंदोलन का क़ायदे से अब तक कोई अध्ययन नहीं हुआ है. लेकिन इसे व्यापक जन आंदोलन में बदलने के लिए आरएसएस द्वारा जयप्रकाश के इस्तेमाल से इनकार करना कठिन है. आरएसएस इसका श्रेय नहीं लेता. लेकिन जयप्रकाश नारायण इसी आश्वासन के साथ इस आंदोलन का नेतृत्व संभालने को तैयार हुए थे कि आरएसएस के स्वयंसेवक इसके सिपाही हों. उन्होंने आरएसएस को इस आंदोलन की मांसपेशी कहा था.

आंदोलन  का तर्क जनतांत्रिक था. लेकिन जेपी ने इसकी महत्त्वाकांक्षा का दायरा बढ़ाते हुए इसे आज़ादी का दूसरा आंदोलन घोषित किया. इस दूसरी आज़ादी के घोषणा पत्र या उसके तर्क के रूप में उन्होंने संपूर्ण क्रांति का प्रस्ताव पेश किया. यानी यह साधारण जन आंदोलन न था, भारत को एक ग़ुलामी से आज़ाद करने और पुरानी व्यवस्था को समूल नष्ट करने के मक़सद से की गई क्रांति थी. जेपी उसके सिद्धांतकार और नेता थे.

जिस आंदोलन की शुरुआत बिहार में भ्रष्टाचार हटाने के नाम पर हुई थी, वह जल्दी ही गुजरात की तरह सरकार की बर्ख़ास्तगी के लिए होने वाले आंदोलन में बदल गया. उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफ़ूर थे. उनके इस्तीफ़े की मांग पर जेपी अड़ गए.

आंदोलन का लोकप्रिय नारा था, ‘गाय हमारी माता है, गफ़ूर उसको खाता है.’ इस नारे से अब्दुल गफ़ूर के इस्तीफ़े की मांग की राजनीति को समझा जा सकता है. लेकिन जेपी, जो एक समय आरएसएस को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे और जिनके संप्रदायवाद विरोध पर कोई सवाल नहीं कर सकता था, इस नारे को सुनते रहे.

जेपी ने ख़ुद अब्दुल गफ़ूर की तारीफ़ की, उन्हें स्वाधीनता सेनानी बतलाया, लेकिन उनके ख़िलाफ़ अपने आंदोलन में लग रहे इस घृणापूर्ण नारे को उन्होंने नहीं रोका. यह मुसलमान विरोधी नारा जेपी आंदोलन लगा रहा था. लेकिन इसे यह कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि एक बड़ा उद्देश्य सामने है और वह जनतंत्र की रक्षा है.

वह जनतंत्र क्या है, जिसकी रक्षा के लिए मुसलमान विरोधी घृणा का इस्तेमाल किया जाना उचित है, जेपी ने स्पष्ट नहीं किया. साफ़ है कि वे आरएसएस को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. आख़िर उनकी एक सभा में उन्होंने कहा भी था कि अगर आप फ़ासिस्ट हैं तो मैं भी फ़ासिस्ट हूं.

बाद में जेपी ने अपनी मांग बढ़ाकर प्रधानमंत्री के इस्तीफ़े को अपना लक्ष्य बना लिया. उन्होंने छात्रों से शिक्षा संस्थानों के बहिष्कार का आह्वान किया और लोगों को कर न देने के लिए कहा. सेना और पुलिस को भी सरकार का हुक्म न मानने का आह्वान जेपी ने किया. भारत के मुख्य न्यायाधीश से भी असहयोग की अपील की.

एक तरह से यह भारत में जनतंत्र को उलट देने का आह्वान था. जेपी के शब्दों में क्रांति, संपूर्ण क्रांति. इसके आसपास इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला आया जिसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि उनके चुनाव प्रबंधन में एक सरकारी अधिकारी शामिल थे.

देश के सामने असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई थी. 26 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दिया.

आम तौर पर आपातकाल को भारतीय जनतंत्र के इतिहास में बड़ा व्यवधान या दुर्घटना माना जाता है. लेकिन उसके पहले हुए उस आंदोलन के बारे में इस दृष्टि से चर्चा नहीं होती है कि क्या वह जनतांत्रिक आंदोलन था या वह ख़ुद भारतीय जनतंत्र को जनतांत्रिक तरीक़े से व्यर्थ कर देने का एक उपक्रम था.

नागार्जुन फणीश्वरनाथ रेणु समेत उन साहित्यकारों में थे जो इस आंदोलन में शामिल हुए और जेल भी गए. लेकिन उन्होंने कुछ दिन बाद ख़ुद को इस आंदोलन से अलग कर लिया. पचरूखी जेल में उनके साथ आरएसएस के लोग भी थे. नागार्जुन ने आरएसएस के साथ के इस अनुभव के बारे में लिखा,

रहा उनके बीच मैं!
था पतित मैं,नीच मैं

दूर जाकर गिरा,बेबस उड़ा पतझड़ में
धंस गया आकंठ कीचड़ में
सड़ी लाशें मिलीं,
उनके मध्य लेता रहा आंखें मींच, मैं …

यह सिर्फ़ नागार्जुन नहीं थे जो फंस गए थे. जयप्रकाश क्या स्वयं एक फंदे में जा फंसे थे? स्वेच्छा से? या क्या मामला कुछ और था? उनके मन के भीतर की कोई कुंठा?

1977 में आपातकाल रहते ही में ही इंदिरा गांधी ने अचानक चुनाव का ऐलान किया. सारे विपक्षी नेताओं को रिहा कर दिया गया. जयप्रकाश जिन्होंने संपूर्ण क्रांति का आंदोलन शुरू किया था और दलविहीन लोकतंत्र का प्रस्ताव किया अब एक नए गठजोड़ के नेता थे जो समाजवादियों, रूढ़िवादी कांग्रेसियों और जनसंघियों ने मिलकर बनाया था.

क्या जेपी संपूर्ण क्रांति को भूल गए थे? क्या वह सिर्फ़ एक मोहक नारा था जिसका कोई वास्तविक अर्थ न था? जेपी के नेतृत्व में चुनाव जीतकर जनता पार्टी की जो सरकार बनी, वह किसी मायने में पिछली सरकार से बेहतर न थी. फिर जेपी चुप क्यों थे?

नागार्जुन ने पूछा,

पूर्ण हुए तो सभी मनोरथ
बोलो जेपी, बोलो जेपी
सधे हुए चौकस कानों में 
आज ठूंस ली कैसे ठेपी?

ज़ोर जुल्म की मारी जनता
सुन लो, कैसी चीख रही है
तुमको क्या अब सारी दुनिया
ठीकठाक ही दिख रही है

‘संपूर्ण क्रांति’ के नाम पर नौजवानों को गोलबंद करनेवाले जेपी अब ख़ामोश क्यों थे? चंडीगढ़ में उनकी निगरानी करने वाले अधिकारी देवसहायम ने लिखा है कि जब वे उनसे मिलने गए तो जेपी बहुत निराश थे. लेकिन क्रांतिकारी जेपी ने उस धोखे के बारे में जनता को क्यों नहीं बतलाया जो वे कह रहे थे कि उनके साथ किया गया. और उसके ख़िलाफ़ क्यों न उठ खड़े हुए? क्या जेपी कुछ और हासिल करना चाहते थे?

नागार्जुन को जेपी पर अब गहरा संदेह है:

तुमने क्या चाहा था जेपी
क्या कुछ जी में भरा पड़ा था
सच बतलाओ, दिल के अंदर
कैसा कांटा कहां गड़ा था

क्रांति तुम्हारी पूर्ण हो चुकी
सुफल हो चुका अमृत-महोत्सव
बोलो जेपी, बोलो जेपी
पूर्ण हुए तो सभी मनोरथ!

नागार्जुन का क्रोध जैसे इस कविता में उबल पड़ा है. कदम कुआं में जेपी का घर था:

नित नए मिलन हैं पुराने यारों के
घिनौने इंगित हैं रंगे सियारों के
दिखावा है, छल है
मल ही मल है
हल्ला है, शोर है, हुआं-हुआं है
कुआं है, कुआं है, कदम कुआं है

इधर नहीं बढ़ना-

दुखियारे ग़मगीनो, होशियार
क्रांति का कुहासा है इस ओर
क्रांति का धुआं है इस ओर
कदम कुआं है इस ओर…

इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती थी कि क्रांति के झंडे के नीचे तमाम प्रतिक्रियावादी शक्तियां इकट्ठा हो गई थीं. निर्बंध पूंजीवाद के पैरोकार पुराने दक्षिणपंथी कांग्रेसी, धर्मनिरपेक्षता के विरोधी आरएसएस के लोग, ज़मींदारी के समर्थक: सबके सब. क्रांति का वादा था, हुआ यह:

चंदन का चर्खा निछावर है इस्पाती बुलेट पर
निछावर है अगरबत्ती चुरुट पर, सिग्रेट पर
नफ़ाख़ोर हंसता है सरकारी रेट पर
फ़्लाई करो दिन-रात, लात मारो पब्लिक के पेट पर !

पुलिस आगे बढ़ी
क्रांति को संपूर्ण बनाएगी
गुमसुम है फ़ौज-
वो भी क्या आज़ादी मनाएगी

यह भी अजीब बात है कि संपूर्ण क्रांति के नारे की अर्द्ध शताब्दी के बाद भी जेपी की ‘संपूर्ण क्रांति’ का विश्लेषण नहीं किया गया है. इस बात पर भी विचार नहीं किया गया कि क्यों जेपी ने ख़ुद इस पर आगे ज़ोर नहीं दिया. क्या मक़सद सिर्फ़ इंदिरा को सबक़ सिखाना था या उनसे बदला लेना था?

संपूर्ण क्रांति के नाम पर जेपी ने जो आंदोलन चलाया जिसका तरुणों ने भरपूर साथ दिया, उसको पर्दा बनाकर भारत की प्रतिक्रियावादी ताक़तों ने कैसे भारत पर क़ब्ज़ा किया, इस पर ठीक से विचार नहीं हुआ है. इसके परिणाम भारतीय जनतंत्र के लिए दूरगामी होने वाले थे.

एक दूसरी कविता ‘भारतपुत्री का मुखमंडल…’ में नागार्जुन जैसे भविष्यवाणी करते हैं:

नाती-पोते ही समझेंगे नानाजी की लीला
भगवा ध्वज का वो बंधन क्या कभी पड़ेगा ढीला

‘संपूर्ण क्रांति’ का इंद्रजाल दिखलाकर भारतीय जनतंत्र के गले में आज से 50 साल पहले जो भगवा ध्वज का फंदा डाला गया, वह और कस गया है और उसका दम घुट रहा है. जेपी ने क्या यह नहीं समझा था?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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