कान फिल्म समारोह में पुरस्कृत पायल कपाड़िया बोलीं- लोकतंत्र के लिए आवाज़ों का आज़ाद रहना ज़रूरी

बीते दिनों कान फिल्म समारोह में अवॉर्ड जीतने वाली पायल कपाड़िया ने साल 2015 में एफटीआईआई के अध्यक्ष के रूप में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के ख़िलाफ़ चार महीने तक चले विरोध प्रदर्शन की अगुवाई की थी. यह प्रदर्शन एफटीआईआई कैंपस में सबसे लंबे चले प्रदर्शनों में से एक था.

पायल कपाड़िया और 'ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट' के कलाकार. (फोटो साभार: एक्स/@Festival_Cannes)

नई दिल्ली: फिल्म निर्माता पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट’ ने हाल ही में कान फिल्मोत्सव की मुख्य प्रतियोगिता श्रेणी में ग्रैंड प्रिक्स अवार्ड जीता है.

रिपोर्ट के मुताबिक, पायल ने इस जीत के बाद एक बयान जारी कर उन सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया है, जिन्होंने उन्हें बधाई दी है. इसके साथ ही पायल ने फिल्म निर्माण और कला क्षेत्र को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की आवश्यकता की ओर भी इशारा किया है.

पायल ने एक छात्र के रूप में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) पुणे में बिताए अपने समय को ‘सबसे बड़ी सीख’ बताया है. वहीं सार्वजनिक संस्थानों में बढ़ती फीस के चलते छात्रों की पहुंच सीमित होने पर चिंता जाहिर की है. इसके अलावा पायल ने अपने बयान में स्वतंत्र फिल्म निर्माण का दायरा और समर्थन बढ़ाने की भी बात कही है.

पायल कपाड़िया का पूरा बयान नीचे पढ़ें…

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पिछले कुछ दिन एक सपने जैसे रहे हैं!

हमारे घर में बहुत लोगों के बधाई और उत्साह बढ़ाने वाले मैसेज का तांता लगा रहा. हम पर इतना प्यार और स्नेह बरसाने के लिए मैं आप सभी के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहती हूं.

इस फिल्म को बनाने में काफी समय लगा. हम पोस्ट प्रोडक्शन पूरा करने के बीच में थे, जब हमें पता चला कि इसे कान में प्रतियोगिता के लिए चुना गया है. यह हमारी उम्मीद से परे था. इस खबर ने हमें उत्साहित और नर्वस दोनों कर दिया. बहुत सारे महान फिल्म निर्माता, जिनके काम की मैं प्रशंसा करती हूं, हमारी फिल्म देखने के लिए हमारे साथ मौजूद रहने वाले थे! जैसे-जैसे हमारी स्क्रीनिंग नजदीक आई, हम सभी चिंता को होने होने लगी. लेकिन जब फिल्म के प्रतिभाशाली कलाकारों के साथ हम कान के लिए रवाना हुए, तो मुझे हिम्मत मिली. ठीक एक साल पहले मॉनसून शुरू होने से पहले हमने फिल्म की तैयारी शुरू की थी और अब ठीक एक साल बाद हम सब फिर से एक साथ थे, लेकिन एक बिल्कुल अलग वजह और एक पूरी तरह से अलग दुनिया में.

ये हमेशा ही खुशी की बात होती है जब एक यूनिट दोस्तों से भरे एक परिवार की तरह होती है. और यह उसी का विस्तार है जिसके बारे में हमारी फिल्म है.

कलाकारों से जुड़े परिवार से होने के कारण मेरे पास कुछ प्रिविलेज (विशेषाधिकार) थे. लेकिन मेरे परिवार की महिलाओं के लिए भी जो पेशा उन्होंने चुना, उसे  चुनना हमेशा आसान नहीं था, हालांकि ये देश में कई अन्य महिलाओं की तुलना में जरूर आसान था. मेरी मां ने जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में पढ़ाई की और मेरी बहन ने जेएनयू में और इन संस्थानों ने हमें उस काम, उस पेशे को अपनाने का अवसर दिया, जो हम आज कर रहे हैं. मेरे लिए सबसे बड़ी सीख भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) में रहना था, जहां मैं पांच साल पढ़ी.

एफटीआईआई एक ऐसी जगह रही, जहां हम न केवल फिल्म निर्माण के बारे में बल्कि उस दुनिया के बारे में भी अपने विचार रख सकते थे, जिसमें हम रहते हैं. फिल्म निर्माण किसी वैक्यूम में नहीं होती, बहस और विचार-विमर्श, सवालों और आत्मचिंतन के जरिये हम उन फिल्मों के करीब पहुंचते हैं जिन्हें हम बनाना चुनते हैं. एफटीआईआई एक ऐसी जगह है जो स्वतंत्र विचारों को प्रोत्साहित करती है. मेरी कक्षा बहुत विविध थी!

हमारे पास देश के हर कोने से छात्र थे. हम हमेशा एक-दूसरे से सहमत नहीं थे और इन मतभेदों के कारण ही हमने एक-दूसरे से सीखा.

इसे संभव बनाने में किफायती सार्वजनिक शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. और यह सिर्फ एफटीआईआई नहीं है. अगर हम अपने देश में बन रही फिल्मों को देखें, तो आपको हमेशा क्रू में कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो किसी सार्वजनिक संस्थान में गया हो, जैसे- जामिया, जेएनयू, एचसीयू, एसआरएफटीआई, केआर नारायणन आदि.

दुर्भाग्य से, सार्वजनिक संस्थान आजकल अधिक महंगे होते जा रहे हैं. ये जगहें तभी प्रासंगिक बने रह सकते हैं और चर्चा को प्रोत्साहित कर सकते हैं यदि यह सभी के लिए सुलभ रहे. यदि यह एक अभिजात्य वर्ग की जगह बन जाता है जैसा कि विभिन्न सार्वजनिक विश्वविद्यालय कई वर्षों में बन गए हैं, तो यह देश के लिए बेकार होगा. ऐसे कई निजी संस्थान हैं जो केवल यथास्थिति बनाए रखने और अभिजात वर्ग को अवसर देने के लिए बनाए गए हैं. एफटीआईआई जैसा स्थान इस समय कहीं बीच में है. हमें इसे और भी अधिक सुलभ बनाने का प्रयास करना चाहिए. ये बात केवल उच्च शिक्षा पर लागू नहीं होती है, बल्कि इससे भी जरूरी ये सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा पर लागू होती है, जहां शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने की बहुत जरूरत है.

कान में लोगों ने मुझसे पूछा कि एक फिल्म के चयन में 30 साल क्यों लग रहे हैं. जबकि मैंने चयन समिति से यही सवाल पूछा था, हमें खुद से भी यह पूछना चाहिए. हम अधिक स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं का समर्थन क्यों नहीं कर सकते? जिन कारणों से मैं यह फिल्म बना पाई, उनमें से एक फ्रांसीसी सार्वजनिक फंडिंग प्रणाली है और मैं इस प्रणाली के बारे में विस्तार से बात करना चाहूंगी.

फ्रांस में फिल्म के हर टिकट की बिक्री पर एक छोटा कर लगाया जाता है और साथ ही टीवी चैनलों पर भी कर लगाया जाता है. इससे सीएनसी फंड बनाया जाता है जो स्वतंत्र निर्माता और निदेशकों को फंडिंग के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है. वितरकों और प्रदर्शकों (exobitors) को इन फिल्मों के पूरा होने के बाद वितरित करने के लिए धन भी मिलता है.

हमारे देश में दर्शकों से टैक्स वसूलना अनुचित होगा. हालांकि, ब्लॉकबस्टर फिल्मों से होने वाले मुनाफे़ पर कर निश्चित रूप से एक स्वतंत्र फिल्म फंड में मदद कर सकता है. यदि हमारे देश में फंड चलाने के लिए एक स्वायत्त निकाय के साथ ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है, तो इससे अधिक से अधिक स्वतंत्र फिल्म निर्माण को बढ़ावा मिलेगा. लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए आवाज़ों को बड़े स्टूडियो से स्वतंत्र रहना होगा जो अमीर उद्योगपतियों द्वारा चलाए जाते हैं.

हाल ही में, केरल सरकार ने एक ऐसा फंड शुरू किया है जो महिला फिल्म निर्माताओं के साथ-साथ कम प्रतिनिधित्व वाली जातियों के फिल्म निर्माताओं का भी समर्थन करता है. मुझे लगता है कि ये समय की मांग है. मैं जानती हूं कि फिल्म उद्योग में कई अच्छे लोगों ने अपने प्रोडक्शन हाउस शुरू किए हैं. लेकिन वे केवल उन्हीं फिल्म निर्माताओं का समर्थन करते हैं जिन्हें वे जानते हैं. प्रतिनिधित्व के साथ कुछ स्वायत्त प्रणाली होनी चाहिए, जो फिल्म निर्माताओं को अवसर दे सके, भले ही वे फिल्म उद्योग में किसी को नहीं जानते हों. सरकारों को भी खुद निर्माता नहीं बनना चाहिए बल्कि केवल फंडिंग की सुविधा देनी चाहिए. स्वतंत्र निर्माताओं को उन पर आवेदन करने में सक्षम होना चाहिए.

मैं केरल फिल्म उद्योग के लोगों की आभारी हूं. कई स्थापित अभिनेताओं और निर्माताओं ने हमारी टीम का बहुत सहयोग किया, जबकि मैं इस उद्योग के लिए एक बाहरी व्यक्ति थी. उन्होंने यह नहीं सोचा कि वे स्टार हैं, उन्होंने मुझसे मिलने और मुझे समय देने की इच्छा दिखाई. मैं उनकी बहुत आभारी हूं. केरल में, वितरक और प्रदर्शक भी अधिक आर्ट हाउस फिल्में दिखाने के लिए तैयार हैं. दर्शक विभिन्न प्रकार की फिल्में देखने के लिए तैयार हैं. हम ऐसे देश में रहते हैं जहां हम किस्मत वाले हैं कि हमारे पास इतने सारे सिनेमाघर हैं. हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि कई अलग-अलग तरह की फिल्में एक साथ मौजूद हो सकती हैं.

चूंकि जल्द ही आम चुनाव के परिणाम आने वाले हैं, मैं केवल इतना ही कह सकती हूं कि जो भी सत्ता में आए, उसे एक अधिक समान समाज बनाने की दिशा में काम करना चाहिए. जहां प्रत्येक व्यक्ति का हमारे देश के संसाधनों पर अधिकार हो और वे कुछ लोगों के हाथों तक सीमित न हों. संसाधन भी गैर-भौतिक हैं, जैसे सांस्कृतिक पूंजी, शिक्षा और कला तक पहुंच. देश के नागरिक होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम हर सरकार को इसके लिए जवाबदेह ठहराएं.’

एकजुटता और समावेशिता जिंदाबाद!
भारतीय सिनेमा अपनी तमाम विविधताओं के साथ जिंदाबाद.

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गौरतलब है कि पायल कपाड़िया को इससे पहले को 74वें कान फिल्मोत्सव में उनकी फिल्म ‘अ नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ के लिए सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री का ओइल डी’ओर (Oeil d’or – गोल्डन आई) पुरस्कार मिला था. ये डॉक्यूमेंट्री छात्र संघर्ष पर आधारित थी.

पायल ने खुद भी छात्र आंदोलन में हिस्सा लेते हुए साल  2015 में भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) के अध्यक्ष के रूप में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ चार महीने तक चले विरोध प्रदर्शन की अगुवाई की थी. यह प्रदर्शन एफटीआईआई कैंपस में सबसे लंबे चले प्रदर्शनों में से एक था. इस दौरान छात्रों ने संस्थान की अगुवाई के लिए चौहान की क्षमता पर सवाल उठाते हुए कक्षाओं का बहिष्कार किया था.

चौहान ने कई पौराणिक धारावाहिकों में काम किया है और नियुक्ति के समय वह भाजपा नेता थे. इस मामले में पुणे पुलिस ने पायल कपाड़िया और 34 अन्य छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज भी की थी.

दरअसल, एफटीआईआई के तत्कालीन निदेशक प्रशांत पथराबे ने अधूरे असाइनमेंट पर ही छात्रों को ग्रेडिंग देने का फैसला किया था, जिसके विरोध में कपाड़िया समेत इन छात्रों ने उनके ऑफिस में कथित तौर पर तोड़-फोड़ की थी और उन्हें बंधक बना लिया था. उस समय पायल कपाड़िया की छात्रवृत्ति ग्रांट में भी कटौती कर दी गई थी.

हालांकि, 2017 में हिदुस्तान टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि कपाड़िया की 13 मिनट की फिल्म ‘आफ्टरनून क्लाउड्स’ को कान में स्क्रीनिंग के लिए चुने जाने पर एफटीआईआई ने उनकी यात्रा का खर्च उठाने में मदद की पेशकश की थी. तब तक चौहान की जगह भाजपा समर्थक अनुपम खेर को एफटीआईआई का अध्यक्ष नियुक्त किया जा चुका था.