धन के वर्चस्व ने बहुत चतुराई से साधारण जन को लोकतंत्र में निरुपाय कर दिया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत के साधारण वर्ग के नागरिक संवैधानिक अधिकार और पात्रता रखते हुए चुनाव नहीं लड़ सकते. हमने जो व्यवस्था बना ली है वह भारत की साधारणता को लोकतंत्र में कोई निर्णायक भूमिका निभाने से रोक रही है.

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मणिपुर में एक मतदान केंद्र पर मतदाता. (फोटो साभार: X/@ceomanipur)

पिछले कुछ दिनों से आम चुनाव की बड़ी गहमागहमी है और उसके चलते कई बातें सामने आती रही है जिन पर पहले ध्यान नहीं गया था. पहली है कि चुनाव बेहद खर्चीला मामला है. उसे करवाने में सरकारी तंत्र पर जो ख़र्च आता है उसके अलावा राजनीतिक दल और उम्मीदवार जो ख़र्च करते हैं वह हज़ार करोड़ों तक जाता है.

चुनावी बॉन्ड के भंडाफोड़ के बाद पता चला कि चुनावी चंदे और धंधे के बीच कितना लेन-देन है. चंदा भी हज़ारों करोड़ों में दिया-लिया गया है. इसके अलावा जो उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, उनकी निजी वित्तीय हैसियत के आंकड़े भी सामने आए हैं. उनमें बड़ी संख्या करोड़पतियों की है. उनमें से कई ऐसे हैं जिनकी निजी संपत्ति में कुल पांच बरस सांसद होने के बाद अप्रत्याशित इज़ाफ़ा हुआ है. एक नतीजा यह भी निकलता है कि हर सीट पर चुनाव करोड़ों का मामला बन चुका है.

यह गंभीर समस्या है कि सामान्य नागरिक ऐसे साधनों के अभाव में चुनाव लड़ ही नहीं सकता और अगर लड़ भी जाए हिम्मत कर, तो जीत नहीं सकता. यह हमारे लोकतंत्र में नागरिक भागीदारी को बहुत सीमित और संकीर्ण करता है. भारत के साधारण वर्ग के नागरिक संवैधानिक अधिकार और पात्रता रखते हुए चुनाव नहीं लड़ सकते. हमने जो व्यवस्था बना ली है वह भारत की साधारणता को लोकतंत्र में कोई निर्णायक भूमिका निभाने से रोक रही है. रुपये के वर्चस्व ने साधारण जन को बहुत चतुराई से लोकतंत्र में ही निरुपाय कर दिया है.

दूसरी है, चुनाव कराने वाली संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की विश्वसनीयता में भारी गिरावट, हर रोज़ गिरावट. आयोग इस दौरान स्वयं अपने द्वारा निर्धारित और लागू आचरण संहिता के उल्लंघन पर कुछ करने में बेहद सुस्त और पक्षपाती रहा है. सतारूढ़ राजनेताओं द्वारा ‘मटन, मछली, मंदिर, मस्जिद, मुसलमान, मंगलसूत्र, मुजरा’ आदि शब्दों का धड़ल्ले से अपने भाषाणों में इस्तेमाल करते जाना उनके इस यक़ीन से ही मुमकिन है कि आयोग कुछ नहीं करेगा.

आयोग इस सिलसिले में की गई सैकड़ों शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं की है, अगर उसकी कायर और डरपोक चुप्पी को भी कार्रवाई न माना जाए. इन दिनों यह संदेह व्यापक रूप से किया जा रहा है कि सत्तारूढ़ शक्तियों को जिताने के लिए आयोग गुपचुप कोई खेल कर सकता है. इतना कायर, सत्ता-पालतू, अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी निभाने में अनिच्छुक और आलसी, इतना अविश्वसनीय चुनाव आयोग भारतीय लोकतंत्र में पहला ही है. कोई शर्म- हया भी नहीं है.

तीसरी बात है, इस दौरान सोशल मीडिया की तत्परता,चौकन्नापन, लोकतांत्रिक प्रश्नवाचकता और निर्भयता. अगर गोदी मीडिया की जी हुजूरी, चापलूसी, सत्ता-भक्ति, झूठ-घृणा-आक्रामकता को फैलाने की स्वामिभक्त वृत्ति के बरक़्स सोशल मीडिया न होता तो सचाई और तथ्य, लोकतंत्र पर छाए संकट और ख़बरें हम तक पहुंच ही न पाते.

इस स्वतंत्र और निर्भीक मीडिया ने पत्रकारिता की ईमानदार और स्वतंत्रता के उत्तराधिकार को बखूबी, ख़तरे और साधनहीनता के बावजूद, निष्ठापूर्वक निभाया और यही मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर उभरा और सक्रिय-मुखर हुआ है.

एक कविता

अप्रैल 2014 में मैंने ‘आततायी की प्रतीक्षा’ शीर्षक से एक कविता लिखी थी जो ‘कभी-कभार’ में उस समय प्रकाशित हुई थी. अब उस कविता के दस वर्ष बाद एक संभावना-कविता लिखने का मुक़ाम आया है, उसके जोडे़ की तरह ‘बहिर्गमन’. उसका ‘कभी-कभार’ में जगह पाना उपयुक्त है.

बहिर्गमन

जैसे जब वह आया था
तब यह कहना मुश्किल था कि वह खुद आया था
या कि लोग उसे ला रहे थे
वैसे ही अब यह कहना मुश्किल है कि वह
खुद जा रहा है
या कि उसे लोग वापस अपने झोले के साथ भेज रहे हैं.

हम लाभार्थी रहे हैं
और उसने हमारे झोले में इतने झूठ और झांसे
नफ़रत और भेदभाव भर दिए हैं
कि झोला बिस्तर जैसा भारी हो गया है.
हम लाभार्थी हैं सो हमारा बहीखाता
झूठों और नफ़रत से हर सफ़े पर
इतना भर गया है
जैसे कोई पवित्र ग्रंथ
हर पृष्ठ पर अक्षत-चंदन से भर जाता है.

परमात्मा से भेजा गया अवतारी पुरुष
कैसे-कहां लौटेगा यह स्पष्ट नहीं हैः
टैम्पो से कि रामरथ से,
या किसी पुष्पक विमान से वापस
दिव्यलोक?
क्या उसका काम भारतलोक में पूरा हुआ?

उसके रंगीन लबादे
पाखंड और क्रूरता के किस संग्रहालय में रखे जाएंगे?

लंबी चली है नौटंकी
और हम तमाशबीनों ने बार-बार तालियां बजाते हुए पूरी देखी है.

यह भी पता नहीं
कि वह लौटते हुए अपने झोले में क्या-क्या ले जाएगा?
इतने सारे झूठ, झांसे, लांछन, नफ़रत, अज्ञान
वे उसके झोले में लदकर उसके साथ जाएंगे!
या वह अपनी स्वाभाविक उदारता में
उन्हें हमारे पास ही छोड़ जाएगा.

वह था तो दैनिक प्रहसन होता था —
हमारा मनोरंजन, हमारा दैनिक पतन अब कैसे-किससे संभव होगा!
हम उसके जाने के उत्सव या शोक में इस क़दर डूब जाएंगे
कि अन्याय-अत्याचार-हिंसा-हत्या-घृणा की
जो इबारतें उसने हर कहीं लिख दी हैं, हम
उन्हें मिटाने-भुलाने के लिए समय और फुरसत नहीं निकाल पाएंगे.

वह जाएगा तो
पर थोड़ा-थोड़ा हमारे आसपास कई तरह से यहीं रह जाएगा.

हमें यह याद नहीं रहेगा
कि हम ही उसे लाए थे, और अब हम ही उसे विदा कर रहे हैं!
तब भी हम हाथ हिला रहे थे, और अब भी हम हाथ हिला रहे हैं!
जो भी हो, हम भूल जाएंगे- पर क्या क्षमा भी कर देंगे
सिर्फ़ इसलिए कि आखि़रकार वह जा रहा है?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)