नई दिल्ली: भारतीय समाज की स्याह सच्चाई जाति, लोकसभा चुनाव 2024 की भी धुरी रही. टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव अभियान की शब्दावलियों तक में जाति की मौजूदगी दिखी. एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस) और ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इनक्लूसिव एलायंस), दोनों गठबंधनों ने जाति को अपनी-अपनी तरह से भुनाया.
जहां एनडीए के प्रमुख घटक दल भाजपा ने तमाम हिंदू जातियों को धर्म के आधार पर एक छाते के नीचे लाकर जन कल्याणकारी योजनाओं और मुस्लिमों का भय दिखाकर वोट की अपील की. वहीं इंडिया के प्रमुख घटक दल कांग्रेस ने जाति को सामाजिक न्याय का एक मुख्य आधार बनाते हुए प्रतिनिधित्व और कल्याणकारी शासन का वादा किया.
परिणाम बताते हैं कि मुसलमानों का भय दिखाकर हिंदू धर्म की अलग-अलग जातियों से एकमुश्त वोट पाने की भाजपा की तरकीब काम नहीं आई है. पिछले दो आम चुनावों में प्रचंड जीत दर्ज करने वाली पार्टी इस बार बहुमत को तरस गई है और 400 पार का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी क्षेत्रीय दलों के सहारे प्रधानमंत्री बनने की तैयारी में हैं.
कांग्रेस इस बार भी सत्ता नहीं पा सकी है. लेकिन उसकी सीटें बढ़ी हैं. इससे भी जरूरी बात यह है कि अलग-अलग जातियों, विशेषकर वंचित जातियों में उसका जनाधार बढ़ा है. वहीं भाजपा का वंचित जातियों में जनाधार घटा है.
दलितों और आदिवासियों के आरक्षित 113 लोकसभा सीटों में से भाजपा को 55 (25 एसटी और 30 एससी) पर जीत मिली है, पिछले चुनाव में यह आंकड़ा 77 था. वहीं कांग्रेस जिसे 2019 में मात्र सात आरक्षित सीटों पर जीत मिली थी, इस बार 32 सीट जीतने में कामयाब हुई है.
भाजपा ने उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, बिहार, पंजाब और पश्चिम बंगाल में दलितों के आरक्षित ऐसी 19 सीटें गंवा दी हैं, जहां पिछले चुनाव में उसके नेता जीते थे. ऐसे ही महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में भाजपा ने अपनी 10 अनुसूचित जनजाति सीटें खो दी हैं.
मामला सिर्फ इतना नहीं है कि भाजपा से दलितों और आदिवासियों का मोह भंग हुआ है. ध्यान इस तरफ भी दिया जाना चाहिए कि मतदाताओं ने भाजपा के सवर्ण उम्मीदवारों को भी खूब झटका दिया है.
धर्म और राष्ट्रवाद
मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में जय श्रीराम के नारे खूब लगाए. विकसित भारत और विदेशी धरती पर युद्ध रुकवाने का दावा कर भाजपा ने राष्ट्रवाद का कार्ड भी खेला. लेकिन मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने धर्म और राष्ट्रवाद को नकार दिया. साथ ही नकारा उन लोगों को जो हिंदू धर्म की चतुर्वर्ण व्यवस्था और ‘राष्ट्रवाद’ के सबसे बड़े लाभार्थी हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स ने स्पिनर प्रोजेक्ट द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाया है कि सवर्ण भाजपा सांसदों को अन्य समूहों के भाजपा सांसदों की तुलना में अधिक सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा है.
संसद में सवर्ण सांसदों का प्रतिनिधित्व पहले की तुलना में घट गया है. पहले लोकसभा में 155 सवर्ण सांसद थे, अब 140 हो गए हैं. मध्यवर्ती जातियों का प्रतिनिधित्व (इसमें अधिकांश ऐतिहासिक रूप से जमींदार कृषि जातियां जैसे लिंगायत, वोक्कालिगा, मराठा, रेड्डी या जाट शामिल हैं) लगभग स्थिर है. पहले इनकी संख्या 78 थी अब 74 हो गई है.
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हिंदी पट्टी को अलग करके देखें तो बदलाव ज्यादा स्पष्ट नजर आता है. 2024 में इन क्षेत्रों में सवर्ण सांसदों की हिस्सेदारी 38.9% थी, जो अब घटकर 32.7% हो गई है.
हिंदी पट्टी में भाजपा ने 51 सीटें खो दी हैं, जिनमें से 22 सीटें सवर्ण जाति के सांसदों के पास और केवल सात सीटें ओबीसी सांसदों के पास थीं. छह मध्यम जाति के भाजपा सांसदों ने भी अपनी सीटें खो दी है.
एनडीए से सवर्ण और ‘इंडिया’ से दलित अधिक
एनडीए के 31.3 प्रतिशत और ‘इंडिया’ गठबंधन के 19.2 प्रतिशत उम्मीदवार सवर्ण थे. एनडीए के कुल सांसदों में 33.2 प्रतिशत सवर्ण हैं, ‘इंडिया’ के कुल सांसदों में यह संख्या 12.4 प्रतिशत है. दोनों गठबंधनों ने सवर्ण उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा टिकट ब्राह्मणों को दिया है- एनडीए 14.9 प्रतिशत, ‘इंडिया’ 10.0 प्रतिशत.
कुल सांसदों में ब्राह्मण सांसदों की बात करें तो एनडीए के 14.7 प्रतिशत सांसद ब्राह्मण हैं, वहीं इंडिया के मात्र 5.9 प्रतिशत सांसद ही ब्राह्मण हैं.
जहां एनडीए ने ‘इंडिया’ की तुलना में सवर्ण नेताओं को अधिक टिकट दिया था. वहीं ‘इंडिया’ ने एनडीए की तुलना में दलितों नेताओं को अधिक टिकट दिया था.
एनडीए के कुल उम्मीदवारों में दलित थे 15.8 प्रतिशत. ‘इंडिया’ के कुल उम्मीदवारों में दलित थे 17.6 प्रतिशत. एनडीए के कुल सांसदों में दलित हैं 13.3 प्रतिशत. ‘इंडिया’ के कुल सांसदों में दलित हैं 17.8 प्रतिशत. लगभग यही हाल आदिवासियों के मामले में भी है.
आम चुनाव | दलित सांसदों की संख्या (प्रतिशत में) |
2019 | 15.5 |
2024 | 15.8 |
ओबीसी सांसदों की संख्या बढ़ी
ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ा है. पिछली लोकसभा में ओबीसी सांसदों की संख्या 124 थी, जो अब बढ़कर 138 हो गई है. आंकड़े को प्रतिशत में देखें, तो पहले ओबीसी सांसदों की संख्या 22.8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 25.4 प्रतिशत हो गई है.
सिर्फ हिंदी पट्टी की बात करें, तो पहले इन इलाकों से आने वाले कुल सांसदों में 25.7 प्रतिशत ओबीसी से थे, अब यह संख्या 31.0 प्रतिशत हो गई है. नए ओबीसी सांसदों की आमद में समाजवादी पार्टी का महत्वपूर्ण योगदान है. सपा के 37 में से 19 सांसद ओबीसी हैं.