जनतंत्र साझा हितों के निर्माण की परियोजना है, आरएसएस इस साझेपन के ख़िलाफ़ है

भारतीय जनतंत्र का बुनियादी सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता है. लेकिन आरएसएस का लक्ष्य इसके ठीक ख़िलाफ़ हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 29वीं क़िस्त.

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(फोटो साभार: पीआईबी/फ्लिकर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

देवरस-दानवरस
पी लेगा मानव-रस
होंगे सब विकृत-विरस
क्या षट् रस, क्या नवरस
होंगे सब विजित-विवश
क्या तो तीव्र क्या तो ठस
देवरस-दानवरस
पी लेगा मानव-रस

सर्वग्रास-सर्वत्रास
होगा अब इतिहास
फैलाएगा उजास
पशु-विप्लव पशु-विलास
जन-लक्ष्मी अति उदास
छोड़ेगी ऐन उसांस
चरेगी हरी घास

संस्कृति की गलित लाश
कूड़ों के आस-पास
ढूंढेंगे प्रात-राश
ग्रामदास-नगरदास
देखेगा जग विकास
अंत्योदय-अंत्यनाश
होगा अब इतिहास
सर्वत्रास-सर्वग्रास !

नागार्जुन की कविता ‘देवरस-दानवरस’ 1978 में लिखी गई थी. कविता में नागार्जुन का क्रोध मुखर है. देवरस वास्तव में दानवरस है और वह मानवरस को पी जाएगा. इतना ही नहीं, सारे रस, चाहे षट् रस या नवरस, सब विजित और विवश हो जाएंगे. कूड़े के आसपास संस्कृति की सड़ी हुई लाश का दृश्य वीभत्स है.

यह सब देवरस के कारण है. लेकिन देवरस क्या है या कौन है?

इस कविता को समझने के लिहाज़ से इसका संदर्भ जानना ज़रूरी है. देवरस एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है: मधुकर दत्तात्रेय देवरस का लोकप्रिय नाम था बालासाहब देवरस. देवरस की प्रसिद्धि का कारण है उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सरसंघचालक होना. वे 1964 से 1994 तक आरएसएस के प्रमुख रहे.

देवरस के नेतृत्व में आरएसएस भारत की राजनीति की मुख्यधारा में स्वीकृत हुआ, देवरस के नेतृत्व में ही विश्व हिंदू परिषद का गठन और विस्तार हुआ, देवरस के नेतृत्व में ही राम जन्मभूमि अभियान चला और बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया गया. यह कहा जा सकता है कि भारत या भारतीय जनतंत्र आज जिस अवस्था में है उसके लिए बहुत कुछ देवरस ज़िम्मेदार हैं.

कविता में भले ही व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में देवरस का ज़िक्र है, कविता आरएसएस के बारे में है. देवरस मात्र उसके लिए प्रतीक है.

‘देवरस-दानवरस’ 1978 में लिखी गई थी. भारतीय जनतंत्र की यात्रा में यह वर्ष, या काल-खंड बहुत महत्त्वपूर्ण है. 1977 में पहली बार एक ग़ैर-कांग्रेसी दल या गठबंधन ‘जनता पार्टी’ ने संघीय सरकार बनाई थी. जनता पार्टी समाजवादियों, दक्षिणपंथी कांग्रेसियों और जनसंघ के विलय से बना दल था.

इन सबमें जनसंघ की स्थिति विशेष थी. यह था तो भारत के संसदीय गणतांत्रिक सिद्धांतों के तहत काम करने वाला एक राजनीतिक दल, लेकिन यह दूसरे राजनीतिक दलों की तरह मात्र एक राजनीतिक दल नहीं था. यह आरएसएस की राजनीतिक शाखा था. पहली बार आरएसएस भारतीय जनतंत्र का लाभ उठाकर सत्ता में आ गया था.

वही आरएसएस जो भारतीय जनतंत्र के उस स्वरूप के विरुद्ध था, जो संविधान ने निर्धारित किया था. वह तिरंगे के ख़िलाफ़ था और संविधान के ख़िलाफ़ था. अब वह सत्ता में था.

आरएसएस का उद्देश्य भारत के धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक गणतंत्र को हिंदू राष्ट्र बनाना था और है. इस तरह यह भारत के बुनियादी उसूल के ही ख़िलाफ़ है. आरएसएस के अनुसार भारत पर पहला अधिकार हिंदुओं का है, जैसा उन्हें वह परिभाषित करता है. हिंदू संगठन भारत की भलाई के लिए आवश्यक है. लेकिन हिंदू कौन हैं?

1974 में देवरस ने अपने एक भाषण में हिंदू को परिभाषित किया. देवरस के मुताबिक़ हिंदू कौन है, इसका उत्तर तभी मिल सकता है जब यह जान लिया जाए कि कौन-कौन हिंदू नहीं है. इसके लिए देवरस ने एक दिलचस्प तरीक़ा खोजा. 1956 में भारत की संसद ने जो हिंदू कोड बिल पारित किया था वह मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों के निजी मामलों पर लागू नहीं होता. तो इन्हें छोड़कर सब हिंदू हैं.

नीलांजन मुखोपाध्याय ने आरएसएस पर अपनी किताब में देवरस को उद्धृत करते हुए लिखा है कि वे अपने और आरएसएस के मक़सद को लेकर बिल्कुल साफ़ थे:

हम सारे हिंदुओं को एकत्र और संगठित करना चाहते हैं. संगठन का मतलब भीड़, कोई मंच या सभा नहीं होता. संगठन का मतलब है लोगों को साथ लाना और उन्हें साथ रहने के उद्देश्य के बारे में जागरूक करना.

हिंदुओं के संगठन का उद्देश्य क्या हो सकता था? 1947 में भारत से अंग्रेजों के जाने और बंटवारे के समय की खूंरेजी और आबादी की अदला-बदली के समय आरएसएस की भूमिका पर काफ़ी कुछ लिखा गया है. उस वक्त आरएसएस ने नवनिर्मित पाकिस्तान से आनेवालों को दो हिस्सों में बांटा था: घुसपैठिए और शरणार्थी.

यह कोई ताज्जुब की बात नहीं कि आज 75 साल बाद भी आरएसएस और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा द्वारा घुसपैठिया सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों में एक है. दो शब्द आरएसएस के कोश के हैं: आक्रांता और घुसपैठिया. आरएसएस की कूटभाषा में ये शब्द मुसलमानों के लिए इस्तेमाल होते हैं. जैसे बाद में बाबर की औलाद या औरंगज़ेब की औलाद.

1947 में भारत को परिभाषित करने के लिए दो विचार एक दूसरे से प्रतियोगिता कर रहे थे. एक विचार था भारत का ऐसे राष्ट्र का जो यहां रहने वाले सारे लोगों का है और दूसरा विचार यह था कि भारत हिंदू राष्ट्र है. भारतीय जनतंत्र क्या धार्मिक अथवा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को स्वीकार करेगा या सामाजिक राष्ट्रवाद को?

गांधी, सुभाष चंद्र बोस, सरोजिनी नायडू, मौलाना आज़ाद, जवाहरलाल नेहरू, पटेल जैसे नेता सामाजिक राष्ट्रवाद के समर्थक थे और आरएसएस या हिंदू महासभा धार्मिक या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के. पाकिस्तान के निर्माण और उसके पहले जिन्ना की सीधी कार्रवाई ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के ज़रिये उन्हें भारत से खदेड़ने का मौक़ा पैदा कर दिया था.

आरएसएस इस मौक़े का इस्तेमाल कर भारत को मुसलमानों से ख़ाली करके हिंदू राष्ट्र बनाने की तैयारी कर रहा था. वह आबादी की अदला-बदली के सिद्धांत के पक्ष में था. लेकिन इस रास्ते में गांधी और नेहरू बड़ी बाधा थे. गांधी मुसलमानों पर हिंसा और उन्हें भारत से बेदख़ल करने के ख़िलाफ़ अपनी मुहिम में दिल्ली में डेरा डाले बैठे थे.

आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख गोलवलकर ने गांधी को चेतावनी देते हुए कहा था कि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें ख़ामोश भी किया जा सकता है. इसके कुछ दिन बाद ही नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी. आरएसएस ने ख़ुद को गोडसे से अलग कर लिया और गांधी की मृत्यु के बाद 13 दिन का शोक घोषित किया. लेकिन नागार्जुन इसे उसका छल बतला रहे थे:

कौन बताए कालनेमि की लीला अपरंपार
काली टोपी जला-जला वह आज कर रहा
तेरी जय-जयकार ?

रोकर धोकर ठोक ठठाकर
तेरह दिन तक शोक मनाकर
भले और कुछ नहीं हुआ हो
भस्मासुर की आयु तो बढ़ी!

(‘शपथ’)

यह भस्मासुर या कालनेमि आरएसएस है.

गांधी, जिनसे आरएसएस की घृणा का नतीजा उनकी हत्या था, अब उसके लिए प्रातःस्मरणीय हो गए. इस कपट पर नागार्जुन का क्रोध बरस पड़ता है:

आहत बापू,
मृत्यु-समय की तेरी सौम्य मुखाकृति की ही
छवि उतारकर
रुद्ध कंठ हो, सजल नेत्र हो
जन-समूह से मांग रहा है भीख क्षमा की
गांव-गांव में
नगर-नगर में
सत्य अहिंसा शांति और करुणा, मानवता
तेरी बनी बनाई टिकिया बांट रहा है
सांझ-सवेरे
यातुधान की अद्भुत माया मुझसे कही न जाए

(‘शपथ’)

आरएसएस के किसी भी कार्यकर्ता से अगर ईमानदारी से पूछा जाए तो वह बतलाएगा कि वह गांधी से घृणा करता है. इसलिए कि उन्होंने बंटवारा नहीं रोका, भारत को हिंदू राष्ट्र नहीं बनने दिया और हिंदू मर्दों को अपनी अहिंसा से नपुंसक बना दिया. इसलिए भी कि उन्होंने जाति के आधार पर भेदभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष किया. गांधी को हिंदू धर्म को दूषित और दुर्बल करने का अपराधी माना जाता है. यह कोई नहीं पूछता कि ख़ुद आरएसएस ने बंटवारा रोकने के लिए क्या किया.बल्कि वह तो बंटवारे का लाभ उठाकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देख रहा था.

गांधी की हत्या के बाद गृहमंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस को प्रतिबंधित किया. उनकी सहानुभूति आरएसएस के प्रति थी क्योंकि उन्होंने गोलवलकर को कहा कि आरएसएस के सदस्यों को कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि यदि आरएसएस भारत के संविधान की शपथ ले और राजनीति से ख़ुद को अलग कर ले तो उस पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सकता है. यह शर्त मान तो ली गई, लेकिन गोलवलकर ने बाद में हर जगह कहा कि उन्होंने कोई वचन भारत सरकार को नहीं दिया है.

आरएसएस ख़ुद को सांस्कृतिक संगठन कहता रहा और आज भी कहता है. लेकिन उसकी गहरी दिलचस्पी भारत का स्वरूप बदलने में है जो बिना राजनीति के नहीं हो सकता. इसके लिए उसने पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी का सहारा लिया.

भारतीय जनतंत्र का बुनियादी सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता है. उसका एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा. लेकिन आरएसएस का लक्ष्य इसके ठीक ख़िलाफ़ हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. वह कभी मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू कहता है, कभी उन्हें घुसपैठिया, अवांछित बतलाता है. वह कभी कहता है कि उनका अधिकार बराबर है और कभी यह कहता है कि उनकी जनसंख्या हिंदुओं के लिए ख़तरा है.

आरएसएस हिंदुओं को लगातार यह समझाता है कि उनके हित और मुसलमानों के हित परस्पर विरोधी हैं. यह बात सबसे फूहड़ और हिंसक तरीक़े से 2024 के चुनाव प्रचार में आरएसएस के पूर्व प्रचारक और अभी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कही. वे हिंदू मतदाता को यह कहकर डरा रहे थे कि अगर कांग्रेस सत्ता में आ गई तो उनकी संपत्ति वह मुसलमानों को दे देगी.

जनतंत्र साझा हितों के निर्माण की परियोजना है. आरएसएस इस साझेपन के ख़िलाफ़ है. उसके मुताबिक़ मुसलमान अगर पढ़ रहे हैं, अगर ज़मीन ख़रीद रहे हैं, अगर सरकारी नौकरी हासिल कर रहे हैं तो यह सब उनकी एक सामूहिक साज़िश है भारत पर क़ब्ज़ा करने की.

आरएसएस इस तरह भारत में किसी साझा मानवता की संभावना से इनकार करता है. यह जनतंत्र के उसूल के ख़िलाफ़ है. जनतंत्र का अर्थ है बहुलता, विविधता, विभिन्नता, यहां तक कि परस्पर विरोधी मतों का सह अस्तित्व. आरएसएस इसके ख़िलाफ़ है. नागार्जुन के मुताबिक़ आरएसएस का मुसलमान और ईसाई विरोध वास्तव में मानवता विरोध है:

देवरस-दानवरस
पी लेगा मानव-रस
होंगे सब विकृत-विरस
क्या षट् रस, क्या नवरस
होंगे सब विजित-विवश
क्या तो तीव्र क्या तो ठस
देवरस- दानवरस
पी लेगा मानव-रस

1974 में आरएसएस के आमंत्रण पर कांग्रेस विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने को जयप्रकाश नारायण तैयार हुए. एक समय ख़ुद वे इसके सख़्त विरोधी थे. अभी उन्होंने भोली शर्त रखी कि वह अपना दरवाज़ा ग़ैर हिंदुओं के लिए खोलेगा. आरएसएस ने इसका पालन भी वैसे ही किया जैसे उसने पटेल को दिए अपने वचन का पालन किया था.

नागार्जुन देख पा रहे थे कि आरएसएस भारत को पूरी तरह विकृत कर देगा:

होंगे सब विकृत-विरस
क्या षट् रस, क्या नवरस
होंगे सब विजित-विवश

दावा उसका सांस्कृतिक उन्नयन का है. लेकिन होगा यह:

संस्कृति की गलित लाश
कूड़ों के आस-पास
ढूंढेंगे प्रात-राश
ग्रामदास-नगरदास
देखेगा जग विकास
अंत्योदय-अंत्यनाश
होगा अब इतिहास
सर्वत्रास-सर्वग्रास !

सर्वत्रास! नागार्जुन जो 1978 में देख रहे थे, उस सर्वग्रासी त्रास के ताप से भारतीय जनतंत्र आज जल रहा है. उससे उसकी मुक्ति कैसे होगी?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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