हिंदी साहित्य हिंदी समाज का राजनीतिक प्रतिपक्ष बन गया है: अशोक वाजपेयी

परंपरा पर जो दबाव हिंदी अंचल पर पड़े हैं, वे केरल या महाराष्ट्र में नहीं थे. वहां परंपरा अधिक सजीव रही है, सुरक्षित रही है और उसे आत्म विस्तार, आत्माविष्कार  का अवसर मिलता रहा. यहां बार-बार आक्रमण होते रहे हैं. इसलिए यहां की संस्कृति अस्थिर है. इसके जो दुष्परिणाम हैं, उनमें से एक है हिंदुत्व.

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अशोक वाजपेयी. (फोटो साभार: रज़ा फाउंडेशन)

हिंदी कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की उपस्थिति देशव्यापी है. वे देश की तमाम भाषाओं और उनके साहित्य से निरंतर संवादरत हैं. उनके सरोकार राजनीतिक हैं और कलात्मक भी. गणतंत्र का पतन और लेखकों का गिरता स्तर उन्हें समान रूप से विचलित करता है. वे अनेक वर्षों से वर्तमान सत्ता के ख़िलाफ़ पूरी निष्ठा के साथ खड़े हैं और एक प्रखर बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं.

प्रस्तुत है उनके साथ मराठी लेखक रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ का साक्षात्कार.

वर्तमान में लगभग सभी भाषाओं में साहित्य एक तरफ और समाज दूसरी तरफ, ऐसा चित्र दिखाई दे रहा है. हिंदी में क्या स्थिति है, ऐसा क्यों हो रहा है और उस का असर क्या होगा?

दुर्भाग्य से हिंदी क्षेत्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा हिंसा, हत्या, बलात्कार, घृणा, झूठ, विस्मृति, और इन सबसे जो मानसिकता बनती है, उसकी गिरफ्त में है. एक तरह की सतही धार्मिकता, आक्रामक सांप्रदायिकता, हिंसक व्यवहार – चाहे वाणी में या कर्म में – और इन सबकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति लगभग वैध विधा बन गई है. ऐसे में सौभाग्य से आज के हिंदी साहित्य का एक बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा इस मानसिकता से विरोध और असहमति जाहिर कर रहा है. कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य हिंदी समाज का राजनीतिक प्रतिपक्ष बन गया है, जो  नैतिक अधिक है, राजधर्मी कम है. यह बात थोड़े संतोष की है कि हिंदी साहित्य ने (धार्मिक उन्माद के प्रति) आत्म-समर्पण और वफादारी से अपने को दूर रखा है.

दूसरी बात ये है कि हिंदी में विचारधारा और विचारों की बहस अभी भी जारी है, वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंची. गत दशकों में विचारधाराओं का, खासकर अपने को वामपंथी कहलाने वाली धाराओं का बुरा हश्र हुआ है. लेकिन इन विचारधाराओं को मानने वालों का आग्रह रहा है कि अगर आपके पास विचारधारा, वह भी उनकी नहीं है, तो आपके पास विचार ही नहीं हैं! वे अभी भी इस गलतफहमी से मुक्त नहीं हो सके हैं.

वामपंथ पर आया हुआ संकट विश्वव्यापी है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया भारत और अन्य देशों में भिन्न रही है. सोविएत यूनियन के पतन के बाद यूरोप तथा लैटिन अमरीका में वामपंथियों ने उस पर काफी बहस की है. पर भारत के वामपंथ में इस बात को लेकर अब तक ईमानदारी से चर्चा भी नहीं होती. ऐसा क्यों?

हम लोग इसके लिए तैयार नहीं हैं कि हम किसी विचारधारा को परखें. अगर किसी विचारधारा के अनुयायियों ने भारी मात्रा में हिंसा की है, लगभग नरसंहार किया है, तो उसका कारण सिर्फ ये नहीं हो सकता कि अनुयायियों ने उस विचारधारा को ठीक से नहीं समझा.

यानी यह सिर्फ व्यक्तिगत विकृति नहीं है.

विचारधारा में भी खोट हो सकती है, जो ऐसी विचलन को जन्म देती है. विचारधारा का यह जो प्रभाव या आतंक है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है. वह सच्चाई को उसकी पूरी जटिलता और सूक्ष्मता से  समझने से इनकार करता है. मैं तो यह व्यंग्य भी करता रहा कि विचारधारा में विचार कम है और धारा अधिक. भारत में धीरे-धीरे कुछ ऐसे लोग नज़र आते हैं, जो अपनी दृष्टि में प्रगतिशील होते हुए भी विचारधारा के चंगुल से अपने को थोड़ा-बहुत मुक्त कर पाए हैं, हालांकि उन की संख्या कम है.

दूसरी तरफ एक और नई विकृति पनप रही है. इस समय जो भयानक राजनीति चल रही है जिसने सारे सामाजिक जीवन को घेर रखा है, उसके चलते युवा पीढ़ी में राजनीति का बोध या समझ बहुत कम है. ये अपने आप में बहुत घातक बात है क्योंकि लोकतंत्र एक तरह से हर व्यक्ति को राजनीतिक बनाता है. यह उसकी अनिवार्य शर्त है. आपको चुनना होगा, यानी आप एक राजनीतिक इकाई होंगे.

गैर राजनीतिक होना तो बहुत खतरनाक है आज के माहौल में.

अक्सर हम राजनीति के आतंक के चलते बहुत सारे जीवन को, जो राजनीति के घेरे में नहीं आता; जो स्पंदित है, जीवंत है, अलक्षित कर देते हैं. उस जीवन को राजनीति के प्रभाव से मुक्त होकर देखें, उसे साहित्य में शामिल करें, तो ये अच्छी वृत्ति होगी. लेकिन ऐसे समाज में, जो अनपेक्षित ढंग से राजनीति के ही इर्दगिर्द घूमने लगा है, राजनीति के प्रति तटस्थता वांछनीय नहीं है.

यह महज़ तटस्थता है या आतंक से घबराकर किया हुआ पलायन? महाराष्ट्र में अपनी सोच रखने वाले बहुत सारे युवा बड़ी शान से कहते हैं उन्हें राजनीति से कोई लेना देना नहीं है. वास्तव में वे डर के मारे सच्चाई से दूर भाग रहे हैं.

यह स्थिति दोनों चीज़ों के लिए हानिकारक है- साहित्य के लिए  हानिकारक है, क्योंकि उसका जो वितान है, व्याप्ति है, उसे वह विचित्र ढंग से सीमित करेगी. दूसरी ओर लोकतंत्र की असली शक्ति… एक सजग,जिम्मेदार नैतिक जनसंपदा को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगी. ये लोकतंत्र और साहित्य- दोनों की क्षति है.

आज के दौर में देश में व्याप्त विभाजन रेखाएं और गहरी हो रही हैं. देश का धर्म के नाम पर विभाजन पहले हुआ है और अब दक्षिण और पूर्व बनाम पश्चिम और उत्तर वाले विभाजन की खुलकर बात हो रही है. लोगों ने उत्तरी भारत को गाली के तौर पर गाय पट्टी (Cow Belt) कहना  लगभग स्वीकार कर लिया है. वे मानने लगे हैं कि कोई प्रगतिशील तत्त्व उत्तर भारत में कभी रहे ही नहीं. ऐसा क्या हुआ?  

इसकी जो ज़िम्मेदारियां हैं, वे सौभाग्य से साहित्य पर नहीं हैं. हिंदी साहित्य में खुलापन रहा है, वह ग्रहणशील रहा है. हिंदी में जितना दूसरी भाषाओं से अनुवाद हुआ है, उतना दूसरी भाषाओं में हिंदी या अन्य भाषाओं में नहीं हुआ. हिंदी साहित्य के किसी भी महत्त्वपूर्ण लेखक ने  कभी हिंदी को अकारण गौरवान्वित करने की चेष्टा नहीं की. दूसरी बात यह कि ये (विभाजनकारी) शक्तियां पैदा तो महाराष्ट्र में हुई हैं.

हां, हिंदुत्व की सभी धाराओं का जन्मस्थान महाराष्ट्र ही रहा है.

सवाल यह है कि इनका सबसे अधिक अनुनयन हिंदी अंचल में क्यों हो रहा है? इसका एक कारण है सांस्कृतिक क्षरण. साहित्य को छोड़ें, पिछले 50 वर्षों में हिंदी के सबसे बड़े रंगकर्मी गैर-हिंदीभाषी रहे हैं– सत्यदेव दुबे को छोड़ बाकी सभी. दूसरी तरफ शास्त्रीय संगीत के सारे घराने उत्तर भारत से हैं, लखनऊ हो या आगरा, ग्वालियर हो या बनारस. इन घरानों का नाम तक इन शहरों में नहीं बचा है. अगर महाराष्ट्र न होता, इन घरानों की गायकी न बचती, और बंगाल न होता, तो वादन की शैलियाँ न बचती. तीसरी बात, ललित कला के क्षेत्र में हिंदी अंचल में कई कला विद्यालय थे. आज आप पच्चीस मूर्धन्य भारतीय कलाकारों की सूची बनाएं, तो जनसंख्या के मान से हिंदी अंचल में कम से कम आधे होने चाहिए थे. लेकिन यहां एक चौथाई भी नहीं हैं- हुसैन, रजा, राम कुमार, सुबोध गुप्त … चार लोग.

इस समय दो विमर्श हिंदी में चल रहे हैं- स्त्री विमर्श और दलित विमर्श. हिंदी अंचल में ये देर से आए. महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु में ये पहले आए. हिंदी अंचल में सामाजिक सुधार के आंदोलन भी बहुत कम हुए. आखिरी आंदोलन आर्य समाज का हुआ, जो अब आरएसएस में मिल गया. विचित्र विडंबना है.

दिलचस्प यह है कि बंटवारे का हिंदी अंचल पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा. सबसे अधिक मुसलमान बिहार और उत्तर प्रदेश से गए, कुछ उधर से इधर आए. लेकिन हिंदी साहित्य में इस पर उन लोगों ने लिखा, जो उधर से इधर आए … अज्ञेय, भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद,  कृष्णा सोबती. हिंदी अंचल से इतने मुसलमान चले गए पाकिस्तान, एक सामाजिक अनुपस्थिति रही होगी जो साहित्य में अमूमन दर्ज नहीं है.

शायद यह भी हो सकता है कि हिंदी अंचल सदियों से इतिहास की रंग-स्थली रहा है. शायद उसका एक प्रभाव यह रहा है कि वहां भी कुछ टिककर नहीं रहता. स्मृति भी नहीं.

परंपरा पर जो दबाव हिंदी अंचल में पड़े हैं, वे केरल या महाराष्ट्र में नहीं थे. वहां परंपरा अधिक सजीव रही है, सुरक्षित रही है और उसे आत्म विस्तार, आत्माविष्कार  का अवसर मिलता रहा. यहां बार-बार आक्रमण होते रहे हैं. इसलिए यहां की संस्कृति अस्थिर है. इसके जो दुष्परिणाम हैं, उनमें से एक है हिंदुत्व….आरएसएस का सबसे बड़ा इलाका यहीं है.

विभाजन के समय हुई हिंसा का सबसे कम असर महाराष्ट्र और यूपी में हुआ. पंजाब और बंगाल ने बहुत ज्यादा भुगता. लेकिन सबसे ज्यादा मुस्लिम द्वेष महाराष्ट्र और यूपी में है.

यहां के मुसलमानों ने कहां पाकिस्तान मांगा था? सिंध और पंजाब के मुसलमान इसके प्रस्तोता थे.

वो तो चले गए. महाराष्ट्र के लोगों का तो उससे कोई दूर-दूर तक संबंध नहीं  है, फिर भी ….आज देश में हिंसा की बाढ़ जो आई है, उसको कॉरपोरेट, मीडिया, और टेक्नोलॉजी का समर्थन मिला है. अगर यह हट जाता है, तो क्या सब कुछ स्थिर हो जाएगा?

ज़हर तो बहुत गहरा है. यह आसानी से नहीं जाएगा.

दूसरी बात जब मीडिया, कॉरपोरेट जगत, टेक्नोलॉजी का इतना समर्थन नहीं भी था, तब भी सांप्रदायिकता में कमी नहीं थी. वह दबी हुई थी. ज़हर तो पहले ही से था. हम लोगों को इसकी व्याप्ति का अंदाजा नहीं था. दुखद आश्चर्य होता है कि हम लोगों का सच्चाई से कितना कम वास्ता रहा है.

एक बार मैं बेंगलुरु गया था. मुझे एक बड़े कन्नड लेखक से मिलना था और उसके बाद मैसूर जाना था. लेकिन वे नहीं आ पाए. वे अगले दिन सुबह आए. मैंने पूछा कि आप कहां गए थे. उन्होंने एक मठ का नाम बताया जिसके मठाधीश से उनका निजी संवाद हुआ था. तो मैं सोचने लगा कि अगर हिंदी में यह खबर उठती कि कोई हिंदी लेखक- अशोक वाजपेयी, किसी मठाधीश से मिलने गया था, तो वह मेरी धर्मनिरपेक्षता पर बारूद का काम करती.

हमने धर्म को निजी आचरण और निजी चुनाव का विषय बनाकर अछूता छोड़ दिया. धर्म एक सामाजिक शक्ति भी है, जो आज अपने विकराल रूप में प्रकट हो रही है. पिछले 60-70 सालों में हिंदी साहित्य का  अलग-अलग धर्मों के साथ कोई संवाद नहीं हुआ. यह हमारे लिए बहुत हानिप्रद, क्षतिप्रद है. अगर हम यह मानने को तैयार ही नहीं हैं और अगर हम इसी भ्रम में रहें कि तथाकथित विकास और शिक्षा और ये सब बातें कुल मिलाकर धर्म को किनारे कर देगी, तो ऐसा नहीं हुआ.

अब ये हालत है कि हिंदी अंचल में जो कुछ हो रहा है, उसका ज्यादा दोष सांस्कृतिक रूप से अपेक्षाकृत शिक्षित मध्य वर्ग पर है.  दूसरी तरफ हम सोचते थे कि शिक्षा से दिमाग खुलता है.

तो क्या ये प्रगतिशील तबकों की असफलता नहीं है कि हमने धर्म, संस्कृति ,परंपरा को छोड़ दिया?

(इन तबकों में) जो अपेक्षाकृत ज़िम्मेदार हिस्सा था, उसने वैसा नहीं किया उसने धर्म, परंपरा को ध्यान में रखा. पर इन तबकों में ज्यादा झुकाव परंपरा और संस्कृति को नज़रअंदाज़ करने का ही था. लोहिया आखिरी थे जिन्होंने धर्म, संस्कृति और राजनीति के संबंधों पर गहराई से विचार किया.

कुछ लोगों का मानना है कि आज जो कुछ चल रहा है वह प्रति क्रांति (Counter revolution) है. आज़ादी के आंदोलन में शामिल सभी प्रगतिशील तत्त्व और विचारधाराओं से संविधान बना. गांधी-नेहरू का प्रभाव दो दशकों तक चला. फिर संसदीय लोकतंत्र की मर्यादाएं सामने आने लगीं. 1948 में गांधी की मृत्यु के 12 दिन बाद विनोबा ने सेवाग्राम में खुलकर कहा था कि आरएसएस एक फासिस्ट संगठन है.1950 में लोहिया ने चेतावनी दी कि आगे की लड़ाई (प्रगतिशील) हिंदू बनाम (दक़ियानूसी) हिंदू की होगी. बाबरी मस्जिद ढहने के बाद 1993 में आशीष नंदी भी कह गए कि अगली लड़ाई हिंदू बनाम हिंदुत्व के बीच होने वाली है. बार-बार ऐसी चेतावनी मिलने पर भी हमने कोई सार्थक पहल नहीं की. क्यों?

विचारधाराएं जब खुली होती हैं, आत्मालोचना की संभावना होती है. ये उम्मीद की जा सकती है कि वे बदली हुई परिस्थिति को समझकर कुछ संशोधन करेंगी, परिवर्तन करेंगी. लेकिन विचारधाराएं जब कुंठित या आत्मरत हो जाती हैं तब वे नई तरह की संकीर्णता में बदल जाती हैं. अगर हमने धर्मनिरपेक्षता को ठीक से परखा होता, तो उस का आशय सर्व-धर्म समभाव ही होता. वह हमारी अपनी बात होती. उस का आशय इन शक्तियों ने बड़ी आसानी से  धर्म-विरोध में बदल दिया.

अगर आज हम अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहें तो लोग हंसेंगे कि आप किस ज़माने की बात कर रहे हैं. सर्व-धर्म समभाव को लोग स्वीकार भी कर लेते. लेकिन आपने इसे पैमाना बनाया और अब आप उसका फल भुगत रहे हैं. अभी भी यह कहना मुश्किल है कि क्या कोई ऐसा अभियान चल सकता है, जिसमें सर्व-धर्म समभाव, न्याय, बंधुत्व एकसाथ आ जाएं!

कुछ चलन विश्व भर में दिख रहे हैं, मसलन लोकतंत्र पर हमला, उदार वृत्ति का अवमूल्यन, धार्मिक संकीर्णता आदि. इसके पीछे क्या भूमंडलीकरण एकमात्र कारण है, जिसमें सारी सभ्यताओं को ध्वस्त कर मोनोकल्चर बढ़ाया गया है, जिससे लोग असुरक्षित हो गए हैं और आस्था ढूंढने लगे हैं, जो उन्हें कहीं धर्म, कहीं जाति में दिख रही है; या इस से परे भी अन्य कारण हैं?

भूमंडलीकरण ने हमें अपनी जड़ों से विशेष प्रेम न करने का सबक सिखाया और हमें मूल्यहीन बनने के लिए प्रेरित किया. हमारी मूर्खता ये रही कि हमने इसे मान लिया. हमने अपनी जड़ों को इतनी आसानी से छोड़ दिया, तो जाहिर है हमारा जड़ों के प्रति अनुराग बहुत सतही था. हमारी शिक्षा और संस्कृति की व्यवस्था ने एक जड़हीन, मूल्यहीन समाज बनाने की भूमिका निभाई. अगर ऐसा न होता तो हमने अपने से और दूसरों से बड़े प्रश्न पूछे होते, कुछ  नए रास्ते खोले होते.

इस सबसे हटकर दो अलग सवाल पूछना चाहता हूं . कृत्रिम प्रज्ञा- एआई – की जो बात हो रही है, रचनाकार के सामने अब एक नई चुनौती आई है. इसके बाद क्या टिकेगा, साहित्य में क्या बचा रहेगा? मौलिकता नाम की कोई चीज़ बची रहेगी?

दो चीज़ें लगती हैं. एक सामान्य-सी बात है. हम पहले ही से नकलची थे, थोड़े और हो जाएंगे. नकल करना और आसान हो जाएगा. टेक्नोलॉजी घर में होगी, तो नकल करने का उत्साह और बढ़ जाएगा, क्योंकि नकल करना कौशल का मामला है, प्रतिभा का नहीं.

रही बात प्रतिभा की, तो मुझे लगता है कि प्रतिभा के लिए जगह होगी. कठिन होगी, जटिल होगी, आसानी से नज़र आने वाली नहीं होगी, लेकिन जगह होगी. क्योंकि रचने की जो प्रतिभा है, वह मनुष्य होने का अनिवार्य गुण है, लगभग जैविक लक्षण है. वह एआई के कारण गायब ही हो जाएगा ऐसा नहीं होगा.

रचनाकार के सामने कुछ चुनौतियां हमेशा होती हैं. पहली, अगर रचना उसे उत्तराधिकार में मिली है, तो परंपरा के नवाचार से अपने को वह कैसे व्यक्त करें? दूसरी, चूंकि सामग्री नई है, परिस्थिति नई है, तो वह परंपरा और ज्ञान को भूलकर नवाचार कैसे करें? दोनों स्थितियों में संभावनाएं बनी रहेंगी.

तीसरी बात यह है कि शायद ये स्थिति अधिक लोकतांत्रिक होगी. ऐसे बहुत सारे व्यक्तियों और समूहों को, जो वंचित हैं, आत्माभिव्यक्ति का अधिकार देगी. हो सकता है एक नई लोकतांत्रिकता भी इससे उत्प्रेरित हो. पर अभी जो दृश्य है उसके हिसाब से बस एक मीडियोक्रिटी (mediocrity) का समतल धरातल बहुत आक्रामकता से उभरेगा.

आपने इस संकट के माहौल की व्याख्या की, मीमांसा भी की. इससे आगे जाकर बताएं कि उम्मीद कहां है?

ग़ालिब  का एक मिसरा है – छूटती नहीं है मुंह से ग़ालिब, ये लगी हुई…

उम्मीद जो है वो छूटती नहीं. चारों ओर नाउम्मीदी है, उम्मीद का कोई आधार नहीं है. लेकिन उम्मीद है. फैज़ अहमद फैज़ का भी एक मिसरा है –

आस उस दर से टूटती नहीं,
जा के भी देखा, न जा के देख लिया!

(यह साक्षात्कार त्रैमासिक मराठी पत्रिका ‘सर्वंकष’ के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित हुआ था. यह उसका हिंदी अनुवाद है, जो साक्षात्कारकर्ता ने  किया है.)