ऐसे मुक़ाम आते हैं जब आप समाज में विचार की स्थिति पर विचार करने पर मजबूर होते हैं. अक्सर यह तब होता है जब आपको लगता है कि समाज विचार तजकर विचारहीनता की ओर मुड़ गया या रहा है. यों तो किसी भी समय ऐसा होता है कि विचार कुछ आगे चलता आया है और समाज कुछ पीछे. ऐसा कम हुआ है कि विचार पिछड़ जाए और समाज आगे निकल जाए.
किसी भी समय समाज जिन चीज़ों से प्रभावित-परिचालित होता है उनमें विचार एक तत्व भर होता है जो कई और कारकों के साथ सक्रिय होता है. ऐसा भी हो सकता है, हुआ है कि समाज किसी वैचारिक उद्वेलन में हो और उसे विचार के रूप में विन्यस्त किया या समझा न गया हो. यह धारणा आम है कि किसी भी विचार की वैधता और औचित्य इस बात से तय होते हैं कि उनकी सामाजिक स्वीकार्यता और प्रासंगिकता कितनी- क्या है. कई बार इस सामाजिक प्रासंगिकता और विचार की बौद्धिक और नैतिक प्रासंगिकता में ख़ासी दूरी होती है.
इस समय हमारे समाज में विचार की क्या स्थिति है इस पर सोचने पर जो बात एकदम से समझ में आती है कि उसका एक बड़ा, प्रभावशाली और निर्णायक वर्ग झूठ और नफ़रत, हिंसा और अपहरण के गहरे प्रभाव में है. हमारे अपने संवैधानिक और नैतिक मूल्यों जैसे स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता से उसका कोई संबंध नहीं रह गया है और उस पर उनका कोई प्रभाव नहीं है.
लगभग हर रोज़ इसका सबूत मिलता रहता है कि भारतीय समाज में झूठ-नफ़रत-हिंसा और लेकर नई वीरता, नए गौरव का भाव फैला रहा है. सत्ता-राजनीति-धर्म-मीडिया सभी मिलकर यह नया विचार-वितान सशक्त कर और फैला रहे हैं. यह वितान विस्मृति, अज्ञान और भय पर आधारित है. इसे भारतीय परंपरा, चिंतन, संस्कृति और इतिहास का कोई समर्थन भले प्राप्त नहीं है पर वह गहरे जड़ जमा चुका है. उसे हिंदू नवजागरण का नाम दिया जाने लगा है और उसके बौद्धिक औचित्य के चतुर प्रवक्ता भी बढ़ रहे हैं.
जो लोग विचार और सृजन के क्षेत्र में सजग-सक्रिय हैं, उनके सामने यह चुनौती है कि वे इस विचार से कैसे निपटें, उसे कैसे पहचानें और उसे अपदस्थ करने के लिए क्या-कैसे करें. यह एक नए और दूरगामी वैचारिक सत्याग्रह की मांग करता है. एक ऐसा सत्याग्रह जो अहिंसक सद्भाव से समाज में प्रेम, बंधुता, समता, न्याय, स्वतंत्रता और निर्भयता के विचारों को फैलाए, सशक्त करे और व्यापक रूप से नागरिक बनाए. बनाने की कोशिश करे.
यह काम किसी मसीहा या महान विचारक के उदय पर नहीं छोड़ा जा सकता. सजग नागरिकों को ही यह पहल करनी होगी और लंबे कठिन संघर्ष के लिए तैयार होना होगा. हमारी नैतिक, वैचारिक और सामाजिक प्रासंगिकता इस बात से तय होगी कि हमने, विफल होने के अभिशाप को झेलते हुए, यह कोशिश ईमानदारी और निडरता से, आलस्य और कायरता छोड़कर, की.
लेकिन अगर व्यापक समाज में कुछ मूल्यों की मान्यता न हो या शिथिल हो जाए तो इन मूल्यों पर विश्वास करने वाले और उनके अनुसार आचरण करने वाले अकेले पड़ते जाते हैं, जैसा कि इस समय हो रहा लगता है. एक पहलू यह भी है कि हमें समाज द्वारा लगभग तिरस्कृत मूल्यों की वैचारिक सघनता और आचरण पर आत्मालोचक परीक्षण करना चाहिए.
क्या ये लगभग अपराजेय माने जाने वाले मूल्य अब समाज से पिछड़ चुके हैं या कि उन्हें समाजोपयोगी ढंग से प्रस्तुत किया या फैलाया नहीं जा सकता है?
अभी भी हममें से अधिकांश को यह मानने में बड़ी हिचक है कि हमारा समाज अब प्रेम और सहानुभूति, अहिंसा और सत्य से प्रेरित होने के बजाय घृणा-असत्य-हिंसा से अधिक अभिभूत-प्रेरित-आक्रांत हो रहा है. इस कुमूल्य-त्रयी को नई टेक्नोलॉजी, बाज़ार और मीडिया से बहुत प्रोत्साहन और समर्थन मिल रहा है. हम पहले भी यह कह चुके हैं कि समाज को बाज़ार ने अपदस्थ कर दिया है.
विफलता के कर्तव्य
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कभी ‘निराशा के कर्तव्य’ की बात की थी. हरेक के जीवन में सामाजिक जीवन में भी कई समूहों या वर्गों को विफलता का जब-तब सामना करना पड़ता है. ऐसी विफलता कई बार एक तरह की निराशा, विराग और निष्क्रियता को जन्म देती है. यह लग सकता है कि हमारा प्रयत्न या संघर्ष विफल हुआ और हमको हार मानकर चुपचाप बैठ जाना चाहिए.
एक प्रतिक्रिया यह भी हो सकती है कि हमको थोड़ी देर के लिए अपनी सक्रियता या संघर्ष में विराम लेना चाहिए. यह भी संभव है कि लगे कि हम जिन मूल्यों के लिए संघर्ष कर रहे थे, इस विफलता के कारण हमें उनका मोह छोड़ देना चाहिए, उनका पुनराविष्कार करना चाहिए या उन पर पुनर्विचार करना चाहिए.
आप विफल होने के बाद क्या करें या न करें यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि आपका क्या-कुछ दांव पर लगा है. कई बार ज़मीन-जायदाद, इज़्जत दांव पर लगी होती है. विफलता किसी या किन्हीं को साधनहीन और निरुपाय छोड़ सकती है.
दूसरी ओर, संविधान, नैतिक-लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों के संघर्ष में विफलता को एक अभागा मुक़ाम ही मानना चाहिए. संघर्ष के रूपाकार और शैली पर ज़रूर पुनर्विचार करना चाहिए पर उस संघर्ष को स्थगित नहीं करना चाहिए और न ही उससे विरत होना चाहिए.
इस समय संसार भर में उदार दृष्टि और लोकतंत्र लगातार कई मोर्चों पर पिछड़ रहे या हार रहे हैं. तरह-तरह की कट्टरताएं फल-फूल रही हैं, सत्ता में आ रही हैं. इनमें बाज़ार आचार, विचार, धर्म, बुद्धि यहां तक कि विचार की कट्टरताएं शामिल हैं. दूसरों को न जानने की आदत बन गई है.
जैसा कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय की एक भारतमूल की छात्रा ने हाल ही में कहा: हमने पहचाना है कि न जानने में कितनी शक्ति है. यह न जानना, और दूसरों को सामान्यीकृत करने की प्रवृत्ति हमारी राजनीति में बहुत व्यापक है. हम ऐसी प्रभावशाली मान्यता की चपेट में हैं कि दूसरे मैटर नहीं करते और अगर करते हैं तो उनका ऐसा होना समाप्त किया जा सकता है. लोकतंत्र और समता के मूल्यों पर असली ख़तरा यह है. हमारी मानवीयता की विफलता दूसरों का एहतराम न करने में है. इसका एक गंभीर आशय यह है कि हमारी कुछ विफलताएं लंबे समय से चली आ रही हैं और उनमें फ़ौरी तौर पर कुछ इधर की विफलताएं जुड़ती जाती हैं.
हमारा असली सपना विकल्प, परिवर्तन, समता, न्याय और बंधुता का है और उसे देखना और उसे सचाई में बदलने का हमारा संघर्ष, कितना ही विफल क्यों न होता लगे, हम तज नहीं सकते. हम हारते जाएंगे, पिछड़ते जाएंगे लेकिन हम इस सपने के लिए हार-हारकर, बिना थके, आगे बढ़ते रहेंगे.
अपने सपने में अगर कोई टुच्चता आ गई है, कोई संकीर्णता घर कर गई है तो हम उसे साफ़ करें, निर्मल बनाएं. बहुत सारे सपने जल्दी साकार नहीं होते, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहते हैं. यह सपना भी वैसा ही है.
भारतीय स्वतंत्रता का सपना कई पीढ़ियों के कठिन, लंबे और साझा संघर्ष से साकार हो पाया था. उसके बुनियादी मूल्यों को सार्वजनिक जीवन में बचाने का संघर्ष लंबा तो चलेगा ही. हर विफलता को उम्मीद की एक नई इबारत लिखने का मुक़ाम समझना चाहिए. अधेड़, बूढ़ी पड़ती मंद आंखों से भी, बिना उम्र से हारे या बाधित हुए, सपना देखा जा सकता है और कमज़ोर पैरों से भी आगे बढ़ने के क़दम उठाए जा सकते हैं.
स्वप्नशील कम होते हैं. निडर और थककर राह न छोड़ने वाले भी कम ही होते हैं. जब बहुतायत सपनों को रौंदने में लगी हो, तो अकेले चलते रहना और सपने को न तजना विफलता का बुनियादी कर्तव्य है. समाज का एक बड़ा और निर्णायक हिस्सा, दुर्भाग्य से, जिस पथ पर निद्वंद्व चल रहा है, उससे विपथगामी होकर ही हम अपने सपने के प्रति वफ़ादारी निभा सकते हैं. शायद इस समय समाज के बजाय सपना चुनना बेहतर और अधिक नैतिक है.
बूढ़ा असमंजस
बहुत से कह रहे हैं कि स्थिति बदल रही है.
कुछ का ध्यान इस पर है कि क्या वही रहेगा जो नहीं बदल रहा है.
यह स्पष्ट नहीं है
कि कितना बदलेगा; कितना वही-का-वही रहेगा, बदलेगा नहीं.
बदलने वाली शक्तियां उत्साहित हैं,
बदलाव को थामने वाली शक्तियां आक्रामक हैं.
यह कहना मुश्किल है कि जो बदलेगा
वह कितना बदल पाएगा उसे, जो नहीं बदलेगा;
या बदलना चाहेगा.
वह अक्सर आगे बदलना भूल जाता है:
उसे बदलने के लिए नहीं, सिर्फ़ बने रहने की चिंता होती है.
हम अपने बूढ़े असमंजस में फंसे सोच रहे हैं–
जितना बदल रहा है फ़िलमुक़ाम उतना काफ़ी है,
कुछ राहत पा सकने के लिए.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)