उत्तर प्रदेश: अगर विपक्षी गठबंधन ‘मंडल-2’ है तो इसे ‘कमंडल-2’ से सचेत रहना होगा

सामाजिक अन्याय झेलते आ रहे कई वंचित तबके सपा-कांग्रेस एकता की बिना पर आए लोकसभा चुनाव के नतीजों को ‘मंडल-2’ की संज्ञा दे रहे और भविष्य को लेकर बहुत आशावान हैं. हालांकि, इस एकता की संभावनाओं और सीमाओं की गंभीर व वस्तुनिष्ठ पड़ताल की ज़रूरत है.

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यूपी में विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन की रैली में राहुल गांधी और अखिलेश यादव. (फोटो: फेसबुक/@samajwadiparty)

‘मंडल’ के बाद से ‘कमंडल’ के अब तक के दौर में देश में जब भी ‘हिंदुत्व’ के जाए अनर्थ बढ़ते हैं, बुुद्धिजीवियों व विश्लेषकों का बड़ा हिस्सा उनके बरक्स दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों कहें या बहुजनों की व्यापक एकता की संभावनाओं को न सिर्फ खासी उम्मीद से देखता बल्कि अनर्थों से निजात का सबसे भरोसेमंद उपाय भी बताता है.

विडंबना यह कि कि इसके बावजूद ‘कमंडल’ के प्रतिरोध और बहुजनों की हितचिंता का दावा करने वाली स्वार्थी राजनीतिक पार्टियां इस दिशा में ईमानदार प्रयत्नों को लेकर या तो बहुत उत्साह नहीं दिखातीं या उन्हें अपने संकीर्ण राजनीतिक नफे-नुकसान की भेंट हो जाने देती हैं.

इसीलिए गत लोकसभा चुनाव में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इस एकता को संभव होती देखना भीषण तपिश के बीच तन-मन को राहत प्रदान करने वाली हवा के ठंडे झोंके जैसा लगता है. इस एकता से भले ही ‘हिंदुत्व’ की ‘चैंपियन’ भाजपा के ‘महानायक’ को सिंहासन से नहीं उतारा जा सका है, संविधान बदलने के उसके बहुप्रचारित मंसूबे के पंख कतर दिए गए हैं. इस कदर कि बैसाखियों का मोहताज वह ऐसी किसी ‘ऊंची उड़ान’ की सोच ही नहीं सकता. इतना ही नहीं, अनर्थों की कई और बड़ी आंशंकाओं को भी निर्मूल कर दिया गया है, साथ ही कई अन्य की मुश्कें कस दी गई हैं.

इस एकता की उम्र?

फिर भी यह समझना खुद को भुलावे में डालना होगा कि बहुजनों की यह एकता इतनी मजबूत है कि कोई भी उसकी राह में रोडे़ नहीं डाल सकता या उसकी डोर इतनी मजबूत कर दी गई है कि किसी के लिए भी उसे एक झटके में तोड़ना संभव नहीं है.

सबको पता है कि एक तो यह एकता कई मायनों में अभी भी आधी-अधूरी है, दूसरे उसके पीछे लोकसभा चुनाव से जुड़ी तात्कालिकताओं का गहरा दबाव रहा है. इस दबाव के चलते ही इसकी प्रायोजक समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने अपनी पुरानी कूढ़मगजी से पीछा छुड़ाकर इसका पोषण करने की सोची और चुनाव मैदान में अपनी उपस्थिति को नए सिरे से प्रासंगिक बनाया.

दूसरी ओर इस एकता की उम्र को लेकर पैदा हुए संदेह अभी से इतने गहराने लगे हैं कि कई हलकों में यह तक पूछा जा रहा है कि यह उत्तर प्रदेश के 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव तक बरकरार रहेगी या उससे पहले लोकसभा व विधानसभा के उपचुनावों में ही ढेर हो जाएगी?

(ये पंक्तियां लिखने तक सपा की ओर से इस सवाल का कोई जवाब सामने नहीं आया है, जबकि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने आश्वस्त किया है कि दोनों पार्टियों का गठबंधन विधानसभा चुनाव में भी बना रहेगा.)

फिर भी सामाजिक अन्याय झेलते आ रहे कई वंचित तबके इस एकता की बिना पर संभव हुए प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों के नतीजों को ‘मंडल-2’ की संज्ञा दे रहे और उन्हें लेकर बहुत आशावान हैं. उनकी यह संज्ञा और आशा मांग करती है कि इस एकता की संभावनाओं और सीमाओं की गंभीर व वस्तुनिष्ठ पड़ताल की जाए.

जहां तक संभावनाओं की बात है, वे बहुत हद तक इस पर निर्भर करेंगी कि इस एकता की प्रायोजक पार्टियां सपा और कांग्रेस इसके भविष्य को लेकर कैसा दृष्टिकोण अपनाती हैं?

इस सवाल को इस रूप में भी पूछ सकते हैं कि वे इस एकता की इसी एक चुनावी उपलब्धि से ही तृप्त हो जातीं, उसे आगे बढ़ाने के बजाय उसका जश्न मनाती रह जातीं और अनर्थों के पैरोकारों को एक बार फिर उसे तोड़ने का मौका दे डालती हैं या सच्ची स्टेट्समैनशिप दिखातीं और नई मंजिलों की ओर ले जाती हैं.

‘मंडल’ क्यों विफल हुआ

स्टेट्समैनशिप दिखाने का इरादा है तो निस्संदेह, यही समय है, जब उन्हें ‘मंडल-1’ की विफलता के कारणों की तफ्तीश शुरू कर उनसे बचने की कोशिशें आरंभ कर देनी चाहिए. यह भी याद रखना चाहिए कि कैसे उसकी प्रतिक्रिया में ‘कमंडल’ को आगे कर देश को बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के ऐसे तूफान के आगे खड़ा कर दिया गया कि उसके बहकावे में जानें कितने लोग अपना धरम-ईमान सब खो बैठे.

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के रूप में उसकी चरम परिणति हुई और उसके बाद मुलायम व कांशीराम ने मिलकर हालात को ‘हवा हो गए जयश्रीराम’ तक पहुंचाया तो भी किस तरह पिछड़ों व दलितों के बीच के अंतर्विरोधों को बढ़ाकर उसका लाभ उठाया गया और दोनों समुदायों में ऐसी दुश्मनी पैदा कर दी गई कि आगे की एक समूची पीढ़ी उसके खत्म होने की राह देखती या उसे खत्म करने के उपायों में खपती रह गई.

2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा ने ‘बीती ताहि बिसारि दे’ की राह चलकर इस दुश्मनी को खत्म करने की कोशिश की तो भी वे उसकी जाई ग्रंथियों से पार नहीं पा सके.

देश की नदियों में बहुत पानी बह जाने के बाद इस लोकसभा चुनाव में इस प्रदेश ने संविधान व लोकतंत्र की रक्षा के लिए दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों को सारा बैरभाव भुलाकर वोट देते देखा है तो इस भुलावे में रहना जानबूझकर धोखा खाने जैसा होगा कि इस एकता के दुश्मन फिर से दलित-पिछड़े अंतर्विरोध को उभारकर और अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा फैलाकर इसे विफल करने यानी ‘कमंडल-2’ को अंजाम देने में नहीं लग जाएंगे.

‘कमंडल-2’ का अंदेशा

आज यह विश्वास करने के एक नहीं कई कारण है कि उन्होंने इस दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर दिए होंगे. इसके लिए उन्हें इसके सिवा और करना भी क्या है कि परस्पर भय और अविश्वास को फिर से अमन पैन का दुश्मन बना दें. इसके लिए काशी और मथुरा जैसे बहानों की उनके पास कोई कमी नहीं है और लखनऊ के प्रसिद्ध शायर कृष्णबिहारी ‘नूर’ के शब्दों में कहें तो उनकी सुविधा है कि सच घटे या बढ़े तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं.

फिलहाल, इसके अंदेशे से निपटने के लिए कांग्रेस व सपा दोनों को इसके प्रतिकार के लिए फौरन सक्रिय होने और अपने कार्यकर्ताओं को नए सिरे से प्रशिक्षित करने की जरूरत है. राजनीतिक प्रशिक्षण के बगैर तो उनके कार्यकर्ता शायद ही उक्त अंतर्विरोधों को गहराने से रोककर उनके पार जाने और उन्हें एकताभंजक बनने से रोकने में सफल हो सकें.

इन दोनों पार्टियों को समझना होगा कि ‘मंडल-2’ के लिए नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उत्तर प्रदेश में उन्हें जो सफलता हासिल हुई है, उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अपनी पुरानी लाइन की फकीरी ही नहीं की, अपनी अपील के विस्तार के बहुविध प्रयत्न किए, दलितों व पिछड़ों के व्यापक हित में राजनीतिक विमर्श को नई दिशा में ले जाने का जोखिम उठाया और अपनी एकता को सामान्य कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय के स्तर तक ले गए.

उत्तर प्रदेश में ही क्यों?

जिन दूसरे राज्यों में (वे भाजपा द्वारा शासित हों या ‘मंडल-1’ के दौर के क्षत्रपों की पार्टियों द्वारा) यह सब करने से परहेज रखा गया, वहां परिस्थितियां अनुकूल होने पर भी ‘मंडल-2’ की पदचाप तक नहीं दिखाई दी.

यूपी में सपा और कांग्रेस द्वारा उठाए गए जोखिमों को यों भी समझ सकते हैं कि राहुल ने जाति जनगणना कराकर ‘जिसकी जितनी संख्या, उसको उतनी भागीदारी’ देने की मांग उठाई तो कई महानुभावों को उसमें भी यह खतरा दिखा कि ऐसा करके कहीं कांग्रेस दोनों दीन से न चली जाए. यानी दलितों व पिछड़ों की विश्वासपात्र बनने में तो विफल हो ही, अपने पहले के बचे-खुचे आधार से भी दूर हो जाए.

इसी तरह अखिलेश सपा की मुलायमकाल की हदें तोड़कर उसे नई सोशल इंजीनियरिंग की ओर ले गए तो भी अंदेशे जताए गए. लेकिन चुनाव नतीजे गवाह हैं कि उन्हें लताड़ने वाले गलत थे. तभी तो अल्पसंख्यकों व सत्ताधीशों से अंसतुष्ट दूसरे तबकों ने भी सपा कांग्रेस-गठबंधन में उम्मीद की किरण देखी और पुरानी सारी हिचक व परहेज छोड़कर स्वतः उससे आ जुड़े.

दूसरी ओर बिहार में तेजस्वी यादव का राष्ट्रीय जनता दल पुरानी लकीर ही पीटता रहा तो ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर से भरपूर फ्री हैंड के बावजूद न अपनी अपील का विस्तार कर सका, न चुनाव नतीजों को बहुत अनुकूल कर पाया.

लंबी है लड़ाई

इसलिए इस वक्त सोचने की एक बड़ी बात यह भी है- सपा के लिए कम, कांग्रेस के लिए ज्यादा, कि ‘मंडल-2’ सिर्फ उत्तर प्रदेश में घटित हुआ है. ऐसे में यह देश भर के दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों को ‘जितनी संख्या, उतनी भागीदारी’ वाला सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने में क्योंकर मददगार होगा?

खासकर जब ‘हिंदुत्व’ के नायक कच्छप्रवृत्ति में अपना सानी नहीं रखते. कछुओं की तरह खुद के लिए सबसे मजबूत कवच के पैरोकार ये नायक अपने जाए अनर्थों को जरा-सा भी खतरे में पड़ते देख उनके संरक्षण के लिए लोमड़ी जैसी चाल अपना लेते और अपने हजार-हजार मुंहों व हजार-हजार भुजाओं से काम लेने लगते हैं. उनसे पार पाना है पूरी शक्ति से ऐसे लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहना होगा, जिसमें ऊब, थकान व स्वार्थों के झगड़ों लिए कोई जगह न हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)