क्या केदारनाथ हादसे के दौरान नरेंद्र मोदी ने वाकई 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित निकाल लिया था?

पुस्तक अंश: जून 2013 में जब देश केदारनाथ की आपदा से जूझ रहा था, टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक रिपोर्ट, ‘मोदी इन रैम्बो एक्ट', प्रकाशित की थी कि किस तरह गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूस्खलन और बाढ़ की तबाही के बीच फंसे लोगों में से 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित वापस निकाल लिया था. इस रिपोर्ट के पीछे का सच क्या था?

इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर, फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार की नई किताब एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थापना देती है. यह माना जाता है कि मीडिया का स्वरूप मई 2014 के बाद बुनियादी तौर पर बदल गया है. विनीत तमाम उदाहरण देकर साबित करते हैं कि नरेंद्र मोदी की मसीहा सरीखी छवि निर्मित करने की प्रक्रिया उन्हें भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने से बहुत पहले शुरू हो चुकी थी. मीडिया संस्थान ऐसे अवसरों की तलाश में दिखाई देते थे जब वे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री का विराट स्वरूप प्रस्तावित कर सकें.

प्रस्तुत है उनकी किताब ‘मीडिया का लोकतंत्र’ का एक अंश जो आपदा में अवसर का विलक्षण उदाहरण होने के साथ पीआर एजेंसियों और मीडिया के शातिर गठजोड़ का सूचक है, साथ ही कारोबारी मीडिया की बेईमानी के बीच लोकतंत्र की सच्ची तलाश भी है.

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साल 2013 में जून महीने की 17 तारीख़ को देश के सभी प्रमुख समाचार चैनलों पर उत्तरकाशी-केदारनाथ में बाढ़ और भूस्खलन की ख़बरें प्रसारित होनी शुरू हो गईं. अगले दिन तक जो मंज़र सामने आया उससे यह अंदाज़ा लगाने में मुश्किल नहीं हुई कि इसमें बहुत संभव है कि हज़ारों लोगों की जान जा सकती है और वे बेघर हो सकते हैं. एक-एक दिन गुज़रता गया और स्थिति भयावह होती चली गई. जैसे-जैसे यह तबाही बढ़ती गई, ख़बरों के कई सिरे निकलते गए और जिस घटना को अब तक प्राकृतिक आपदा और मानवीय संवेदना के बीच रखकर हम पाठक-दर्शक महसूस कर पाते, कारोबारी मीडिया उन्हें अपनी सुविधा, व्यावसायिक हित और वैचारिक झुकाव के अनुसार विस्तार देने के क्रम में जुट गया.

इन सबके बीच, 23 जून 2013 को अंग्रेज़ी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया ने ‘मोदी इन रैम्बो एक्ट, सेव्स 15000’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की. अपनी इस रिपोर्ट के पहले पैराग्राफ़ में आनंद सूनदास (चीफ, नेशनल न्यूज़ फ़ीचर, टाइम्स ऑफ इंडिया एवं संपादक, संडे टाइम्स) ने बताया कि कैसे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश में हुए इस भूस्खलन और बाढ़ की तबाही के बीच फंसे लोगों में से 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित वापस निकाल लिया. इसके लिए 4 बोइंग विमान, 25 बसें और 80 टोयोटा कंपनी के इनोवा वाहन की मदद ली गई. इस दौरान उन्होंने हरिद्वार में मेडिकल कैंप लगवाने से लेकर राहत एवं बचाव कार्य से संबंधित दूसरी सुविधाएं उपलब्ध कराईं. रिपोर्ट में अलग से एक बुलेट पॉइंट लगाया गया- ओनली फ़ॉर गुजरातीज.

बाढ़ एवं भूस्खलन की तबाही के बीच से 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित निकाले जाने की ये ख़बर देश के प्रमुख समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई, लगातार तीन दिनों तक समाचार चैनलों पर इसके इर्द-गिर्द ख़बरें प्रसारित होती रहीं लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर से इस संबंध में कोई आधिकारिक बयान नहीं आया. कारोबारी मीडिया ने इस ख़बर को इस तरह से प्रस्तुत किया कि इस कोशिश के आगे केंद्र सरकार और राज्य सरकारें पूरी तरह नाकाम रही हैं. यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री के आगे भारतीय सेना के प्रयास भी कमतर नज़र आए. नतीजतन, उनके समर्थक इस घटना को बेहतरीन कार्य-कुशलता और राज्य सरकार का अपनी जनता के प्रति गहरे लगाव का प्रमाण मानकर सोशल मीडिया पर साझा करते रहे.

एक ने सेना के आधिकारिक ट्विटर हैंडल एकाउंट पर सीधा संदेश (डीएम) लिखकर पूछा कि आख़िर सेना वही सब कुछ क्यों नहीं कर सकती, वो तमाम तरीक़े क्यों नहीं अपना सकती जो सब नरेंद्र मोदी ने किया?

इस दौरान सोशल मीडिया पर ऐसी भी तस्वीरें साझा हुईं जिसमें कि बादलों से नरेंद्र मोदी की आकृति बनती हुई दिखाई देती है.

इधर इस ख़बर को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया और न्यूज़ एक्स का उत्साह अपने चरम पर रहा. हिंदी चैनल इस दौरान ख़बरों के ऐसे-ऐसे पहलू तलाशने की कोशिश में जुटे रहे जिससे कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री की ‘अलौकिक छवि’ निर्मित हो सके. आगे चलकर आजतक ने ‘क्या मोदी जिताएंगे वर्ल्ड कप?’ जैसा कार्यक्रम प्रसारित किया, उसके बीज बिंदु यहां तैयार होने शुरू हो चुके थे.

26 जून, 2013 को टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के ही अख़बार इकोनॉमिक टाइम्स  ने (अभीक बर्मन कंसल्टिंग एडिटर, ईटी नाउ ) का ‘मोदीज़ हिमालयन मिरेकल’ (Modis Himalayan Miracle)  शीर्षक से आलेख प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अपने ही संस्थान के पत्रकार-संपादक आनंद सूनदास की रिपोर्ट पर सवाल खड़े कर दिए और उसे झूठा क़रार दिया.

यह अलग बात है कि इस आलेख में अभीक बर्मन ने किसी मीडिया संस्थान या पत्रकार का नाम नहीं लिया. दिलचस्प है कि टाइम्स ऑफ इंडिया  की वेबसाइट पर अभी भी यह लेख मौजूद है जबकि सूनदास का लेख हटा लिया गया है.

बर्मन ने 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित वापस निकाले जाने की ख़बर पर तंज़ करते हुए लिखा कि यह कैसे संभव है कि ये वाहन केदारनाथ पहुंच गए जहां कि इस दौरान सड़कें भी पूरी तरह टूट गईं और पानी के बहाव के साथ जिनका पता लगा पाना संभव नहीं रहा. हो सकता है कि हेलिकॉप्टर की तरह मोदी की इनोवा वाहन में भी पंख लगे हुए हों.

अभीक बर्मन ने अपने इस आलेख में विस्तृत ब्योरा देते हुए लिखा कि टोयोटा की इनोवा में चालक सहित सात यात्रियों के बैठने की व्यवस्था होती है. आपात स्थिति में इसमें नौ यात्री तक बैठ सकते हैं. इस हिसाब से देखा जाए तो 80 इनोवा वाहनों से एक ट्रिप में कुल 720 लोग पहाड़ से देहरादून पहुंचाए जा सकते हैं और 15,000 लोगों को देहरादून पहुंचाने के लिए 21 अप-डाउन ट्रिप लगानी पड़ेगी. देहरादून से केदारनाथ के बीच की दूरी 221 किलोमीटर है और इस हिसाब से एक इनोवा को तक़रीबन 9,300 किलोमीटर दूरी तय करनी पड़ेगी. एक इनोवा औसतन यदि 40 किलोमीटर की रफ़्तार से भी चलाई जाए, जो कि पहाड़ी रास्ते में मुश्किल है, तो भी इसमें कुल 223 घंटे लगेंगे. इसके लिए चालक को लगातार चालन करते रहना होगा और कम-से-कम दस दिन लग जाएंगे. लेकिन कारोबारी मीडिया ने बताया कि नरेंद्र मोदी की टीम ने यह काम एक दिन में ही कर दिया.

इस पूरे मामले को पर हिंदू  ने ‘रिपोर्टर क्लेम मोदीज़ 15,000 रेस्क्यू फिगर कम फ्रॉम बीजेपी इटसेल्फ‘ (Reporter claim Modi’s ‘15,000’ rescue figure came from BJP itself) शीर्षक से प्रशांत झा की रिपोर्ट प्रकाशित की.

इस आंकड़े के संबंध में सूनदास ने हिंदू को बताया कि यह बात उत्तराखंड के भाजपा प्रवक्ता अनिल बलूनी ने हमें बताई. सूनदास ने कहा कि बलूनी और हमारे बीच जब बातचीत हुई तो उस दौरान तीरथ सिंह रावत (उत्तराखंड के भाजपा अध्यक्ष), युवा नेताओं का एक दल और गुजरात से आए कुछ प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे. हमने बलूनी से दोबारा ज़ोर देकर पूछा कि आप पक्के तौर पर कह सकते हैं कि जिन 15,000 लोगों को बाहर निकाला गया, वो सबके सब गुजराती ही थे. उन्होंने इस बात से न केवल सहमति जताई बल्कि यहां तक कहा कि उन्होंने (मोदी) यहां जो किया वो अपने आप में कितना अद्भुत है.

टेलीग्राफ  ने ‘इन द क्रॉसहेएर्स ऑफ रैम्बोज़ पैरा ट्रुथ्स‘ ( In the crosshairs of Rambo’s para-truths) शीर्षक से सुजन दत्ता की रिपोर्ट प्रकाशित की. दत्ता ने इस लेख में बाढ़ और भूस्खलन के दौरान उत्तराखंड की वास्तविक स्थिति का ब्योरा देते हुए कुछ तकनीकी सवाल उठाए. उन्होंने लिखा कि स्थिति यह है कि भारतीय सेना भी अपने पैराट्रूपर की पैरा-ड्रॉपिंग नहीं करवा पा रही है. एक भी ऐसा ड्रॉप-जोन नहीं है जहां कि वो ऐसा कर सकें. विशेष बल या तो पहाड़ियों से ट्रेकिंग करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं या फिर हेलिकॉप्टरों की मदद से नीचे की ओर खिसक रहे हैं. हमारी सेना-वायु सेना तब ऐसा ज़रूर कर पाती जब इसकी संभावना होती.

अभीक बर्मन, प्रशांत झा और सुजन दत्ता की एक के बाद एक रिपोर्ट प्रकाशित होने के दौरान एक साथ तीन स्थितियां बनीं.

पहली यह कि भाजपा प्रवक्ता एवं समर्थकों की ओर से इस ख़बर को ग़लत बताए जाने का काम शुरू हुआ; दूसरी कि कांग्रेस सहित दूसरे राजनीतिक दलों की ओर से इसे प्रोपगैंडा और पब्लिसिटी स्टंट बताते हुए नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष किए जाने में तेज़ी आई और तीसरी कि इस ख़बर के आधार पर ओपिनियन आर्टिकल लिखे जाने के काम ने ज़ोर पकड़ा.

इन सबके बीच छवि-निर्माण के लिए पीआर एजेंसी को लेकर नए सिरे से चर्चा शुरू हुई. सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि ख़बर की सत्यता या पीआर प्रैक्टिस के मिसफ़ायर होने की बहस से अलग नरेंद्र मोदी के समर्थकों के बीच उनकी सामान्य मनुष्य या राजनीतिक व्यक्ति की छवि से इतर असाधारण व्यक्तित्व क़रार दिए जाने के काम में गति आई. इसका प्रभाव यह पड़ा कि अब जब कभी उत्तराखंड और प्राकृतिक आपदा को लेकर मीडिया में चर्चा होती है, उनमें उनकी इस असाधारण क्षमता और मदद पहुंचाने की बात केंद्र में होती है.

प्रशांत झा ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ख़बर के प्रकाशित किए जाने के तीन दिनों बाद तक भाजपा की तरफ़ से पूरी तरह चुप्पी बरती गई. उसके बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का बयान सामने आया कि इस बारे में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से बात हुई और उन्होंने इस बात से इनकार किया कि इस तरह का कोई दावा उनकी ओर से किया गया है. राजनाथ सिंह ने इस बात को लेकर भी आश्चर्य व्यक्त किया कि यह 15,000 का आंकड़ा कहां से आया?

भाजपा के वरिष्ठ नेता मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा कि विपक्षी दलों की तो आदत ही रही है हर बात के पीछे मीन-मेख निकालते रहें, जबकि इस राष्ट्रीय आपदा के समय उन्होंने (नरेंद्र मोदी ने) अपनी तरफ़ से सहयोग करने का भरपूर प्रयास किया. राहत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए और कहीं से भी मिल रही मदद को स्वीकार करना चाहिए. नक़वी के अनुसार, मोदी पूरे भारत के बारे में सोचते हैं, लेकिन गुजरात के बारे में सोचना उनका नैतिक कर्तव्य है.

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम  इस मामले में नक़वी के बयान के साथ कांग्रेस की ओर से किए जा रहे हमले पर प्रतिक्रिया प्रकाशित करता है- उन्होंने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि राहत की सामग्री एक हफ़्ते पहले तैयार थी लेकिन युवराज के विदेश लौटने के बाद पूरा तामझाम करके रवाना किया गया.

भाजपा के प्रमुख चेहरे के साथ-साथ मीडिया रिपोर्ट में ऐसे कई नेताओं के बयान प्रकाशित किए गए जिनके नाम शामिल नहीं हैं लेकिन उनके कथन का मूल यह है कि हमने कभी दावा नहीं किया कि हमने 15,000 लोगों (गुजराती) को बचाया. हमारी गाड़ियां तो दूसरे राज्य से आए लोगों को भी वापस लाने के काम में लगी रहीं, इसमें कहानी गढ़ने की बात कहां से आ जाती है?

कांग्रेस ने राहत सामग्री भेजे जाने से पहले जिस तरह से फ़ोटो-शूट सेशन कराया, तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रवाना किए जाने से पहले कांग्रेस का झंडा लहराया और जाने वाली ट्रक पर जिन बड़े-बड़े अक्षरों में पार्टी और उसके प्रमुख चेहरों के नाम छापकर टांगे गए, कारोबारी मीडिया सहित सोशल मीडिया पर इसकी जमकर आलोचना हुई.

इसे नरेंद्र मोदी को मिल रही लोकप्रियता और प्रभाव को कम करने की कोशिश बताई गई. इन सबके बीच अव्यवस्था और लचर प्रबंधन की वजह से दिल्ली-देहरादून की सड़कों पर ये ट्रक कैसे घंटों खड़े रहे, इस पर विस्तृत रिपोर्ट आनी शुरू हो गईं.26 एनडीटीवी 24×7 ने ‘Photo-op over, Who cares about aid?’ शीर्षक से रिपोर्ट प्रसारित की.

इधर नरेंद्र मोदी को लेकर कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी दलों की ओर से एक के बाद एक बयान आने शुरू हो गए. कांग्रेस के अजय माकन ने कहा कि ऐसे मुश्किल वक़्त में जबकि हमारा सैन्य बल पूरे अनुशासन, साहस और असाधारण ढंग से मुस्तैदी के साथ राहत एवं बचाव कार्य में लगे हैं, नरेंद्र मोदी इन सबके बीच राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश में लगे हैं.

यूपीए-2 सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने इस संबंध में पीटीआई से बात करते हुए इसे मिथक गढ़ने (मिथ मेकिंग) का काम बताया. उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि यदि नरेंद्र मोदी के मैनेजर और उनके हैंडलर्स (सोशल मीडिया) को अनुमति दे दी जाए तो वो यह भी कहने लगें कि डेढ़ लाख लोगों (गुजराती) को बचाया है. आगे चिदंबरम ने अभीक बर्मन की तरह ही तकनीकी ब्योरा देते हुए कहा कि किसी को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना और बचाव कार्य करना, दो अलग-अलग बात है. इसे आपस में घालमेल नहीं करना चाहिए.

25 जून को एनडीए के सहयोगी एवं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अपने मुखपत्र सामना के संपादकीय में नरेंद्र मोदी से जुड़ी इस ख़बर की तीखी आलोचना करते हुए इसे पीआर प्रैक्टिस का हिस्सा बताया. उन्होंने लिखा कि आज का दौर पब्लिसिटी और एडवरटाइजिंग का है. मोदी के लिए जो समर्थन जुटा है वो लाजवाब है. लेकिन इसका कभी-कभी बूमरैंग भी होता है. मोदी की पीआर करने वाले एक बात समझ लें. यह बताना बंद करें कि मोदी ने सिर्फ़ गुजरातियों को बचाया. यह मोदी की छवि के लिए ठीक नहीं.

यह अलग बात है कि बाद में उद्धव अपनी इस बात से पलट गए और कहा कि उनका इरादा नरेंद्र मोदी की आलोचना करना नहीं रहा बल्कि संपादकीय का इशारा गुजरात के नेताओं पर रहा जो कि राजनीति में प्रोपगैंडा मशीनरी का इस्तेमाल करते हैं. इस बीच 27 जून को मुंबई स्थित ‘मातोश्री’ में नरेंद्र मोदी की मुलाक़ात उद्धव ठाकरे से होती है. इस प्रसंग में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की टिप्पणी चर्चा में रही कि हम थोड़े रैम्बो हैं जो यह सब करते. भाजपा के भीतर ऐसी स्थिति बनी कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कथित तौर पर नरेंद्र मोदी के विरोधी के तौर पर देखा जाने लगा और 24 जून को भोपाल के एक कार्यक्रम में दिए गए बयान को अलग-अलग एंगल देने के इरादे से इस्तेमाल किया गया.

चौहान ने बिना किसी का नाम लिए हुए कहा-‘हमारी पहली प्राथमिकता वहां फंसे लोगों को बचाने की होनी चाहिए. मंदिर बनाने के लिए अभी इंंतजार किया जा सकता है.’ चौहान के इस बयान को नरेंद्र मोदी की उस घोषणा के साथ जोड़कर देखा गया जिसमें कि उन्होंने उत्तराखंड दौरे के बीच बद्रीनाथ मंदिर के पुनर्निमाण की बात दोहराई थी.

29 जून को आनंद सूनदास ने टाइम्स ऑफ इंडिया के ब्लॉग ‘One for the road’ पर इस पूरे मामले को लेकर एक पोस्ट लिखी. इस ब्लॉग पर यह उनकी दूसरी पोस्ट है. इससे पहले उन्होंने ‘The short life of Ishrat Jahan’ शीर्षक से पहली पोस्ट लिखी जिसमें कि उन्होंने इशरत जहां के एनकाउंटर किए जाने के बाद मुंबई से दूर मुम्बरा इलाक़े में उनके घर जाने, उनकी मां, शिक्षक और बाक़ी परिचितों से मिलने आदि की बात का मार्मिक अंदाज में ज़ि‍क्र किया.

सूनदास की ये पोस्ट इस मामले में की गई उनकी रिपोर्टिंग का फ़ॉलोअप का हिस्सा है. ख़ैर ‘Why Modi’s rescue act backfired, and why it needn’t have’ शीर्षक से लिखी अपनी इस पोस्ट में सूनदास ने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि 15,000 गुजरातियों को बाहर निकालने की ख़बर भाजपा के भीतर से मिली. ख़ास बात यह कि इस पोस्ट में उन्होंने ये तो ज़रूर लिखा कि मेरी तरफ़ से सबसे बड़ी ग़लती यह हुई कि 10:30 बजे रात तक हमें अपनी स्टोरी फ़ाइल करने की डेडलाइन थी और मैंने स्टोरी में एक बड़ी भारी ग़लती कर दी. मैं 15,000 को सिंगल कोट (‘’) में लिखने से चूक गया और चूंकि स्टोरी में बलूनी को उद्धृत किया हुआ है तो सोचा कि लोग अपने आप ही इसका मतलब समझ जाएंगे.

लेकिन, सूनदास ने आगे जो भी संदर्भ शामिल करते हुए बातें की, उसका मूल भाव यह है कि मैंने कुछ भी ग़लत नहीं लिखा और न ही ये कोई पीआर प्रैक्टिस का हिस्सा है. उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे 22 जून को देहरादून के होटल मधुवन में नरेंद्र मोदी ने भाजपा के शीर्ष नेताओं, गुजरात के अधिकारियों और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच मीटिंग की और उत्तराखंड के भाजपा प्रवक्ता अनिल बलूनी पहली बार उन्हें इतने क़रीब से काम करने के तरीक़े को देखकर बेहद प्रभावित हुए.

सूनदास ने यह भी जोड़ा कि बलूनी मुझे कोई स्टोरी नहीं दे रहे थे, वो बस इस बात की उम्मीद कर रहे थे कि मैं इस बारे में लिख सकूं. यह कोई रात के 8:30 बजे की बात होगी और उन्होंने बताना शुरू किया. बलूनी ने बताया कि उनके इस बचाव दल में पांच आईएएस अधिकारी, एक आईपीएस, एक आईएएफएस, दो गुजरात जीएएस (गुजरात प्रशासनिक सेवा) के अधिकारी शामिल हैं. उनके साथ दो डीएसपी और पांच पुलिस इंस्पेक्टर भी साथ हैं. ये सब आपस में तालमेल बिठाए रखते हैं और सीधे नरेंद्र मोदी को रिपोर्ट करते हैं. इसी क्रम में बलूनी ने 80 टोयोटा इनोवा, 25 बसें, 04 बोइंग की मदद लेने और पिछले चार दिनों में 15,000 गुजरातियों को वापस भेजे जाने की बात की.

सूनदास ने इस संबंध में लिखे जा रहे संपादकीय लेख एवं अभिमत आलेख (ओपिनियन पीस) की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए लिखा कि घटनास्थल से दूर और विचारधारा से लदे-फंदे दिल्ली में बैठे स्तंभकार अक्सर या तो घटना को लेकर उसकी वस्तुपरकता खो देते हैं या फिर इसकी बहुत अधिक परवाह तक नहीं करते. लेकिन यह भी दिलचस्प है कि इसी पोस्ट में उन्होंने स्वयं मधु किश्वर के आलेख का बड़ा हिस्सा शामिल किया जिससे कि अपनी बात को और मज़बूती मिल सके.

26 जून को मधु किश्वर ने इकोनॉमिक टाइम्स (ओपिनियन) में ‘Narendra Modi led rescue efforts in Uttrakhand are not publicity gimics’ शीर्षक से एक आलेख लिखा. इस आलेख में उन्होंने नरेंद्र मोदी एवं उनकी टीम द्वारा किए जा रहे राहत एवं बचाव कार्य को पब्लिसिटी स्टंट बताए जाने, सस्ती लोकप्रियता में पड़ते, तिकड़म भिड़ाने और संकुचित दायरे में चीज़ों को देखने संबंधी जो आरोप लगने शुरू हुए, उन सबका जवाब देने की कोशिश है. इस क्रम में गुजरात के अधिकारियों, वहां की ब्यूरोक्रेसी, काम करने को लेकर उनके बीच की तत्परता और समूह भावना की प्रशंसा शामिल है.

आगे उन्होंने लिखा कि गुजरात आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (जीडीएमए) की प्रतिष्ठा एक ऐसे पेशेवर संस्थान के रूप में बनी है कि प्राकृतिक एवं मानव आधारित किसी भी तरह की आपदाओं से निबटने की भरपूर क्षमता रखता है. मोदी गुजरात के नागरिकों को यह संदेश पहुंचाने में कामयाब रहे हैं कि आपको कहीं भी ज़रूरत पड़ती है, गुजरात सरकार आपकी सेवा के लिए तत्पर है. यही कारण है कि दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे गुजराती ऐसी किसी भी आपदा में फंसते हैं तो सबसे पहले वो मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क करते हैं.

मधु किश्वर के इस आलेख को शामिल करते हुए सूनदास का मानना रहा है कि 15,000 संख्या को लेकर जो इतना विवाद हुआ और इसे सपाट ढंग से समझा गया, इसमें भाजपा की तरफ़ से भी ग़लती हुई. शुरू के दो दिन तक जिस तरह वो इसे लेकर ख़ुश रही और फिर एकदम से प्रतिक्रिया देने के मूड में आ गई, ऐसा करने के बजाय उसे इस ख़बर के साथ होना चाहिए था. नरेंद्र मोदी वैसे भी उत्तराखंड की इस तबाही के बीच बेहतरीन कार्य कर रहे थे और यदि भाजपा इस ख़बर के साथ होती तो इस बात का मज़ाक़ नहीं बनता.

इन तमाम तरह के तर्कों, प्रसंगों और तथ्यों के शामिल किए जाने के बाद कारोबारी मीडिया और मीडिया अध्येताओं के एक बड़े हलक़े के बीच यह स्थापित हो गया कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस ख़बर के ज़रिये प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की सकारात्मक, मज़बूत और असाधारण व्यक्ति होने की छवि निर्मित करने की कोशिश की है. विपक्षी दलों ने जब लगातार इस सिरे से उनकी आलोचना करनी शुरू की तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह सहित अन्य शीर्ष नेताओं ने भी इसका खंडन किया.

रैम्बो कहे जाने को लेकर प्रसार भारती की अध्यक्ष मृणाल पांडे ने तंज़ में ‘Rambo-giri in the year of flood’ जैसे लेख में बिल्डिंग ‘द इमेज’ उपशीर्षक से इसे विस्तार दिया ही लेकिन पाञ्चजन्य  जो कि आरएसएस की विचारधारा का मुखपत्र है, उसने इन सबसे अलग बात की और टाइम्स ऑफ इंडिया  की इस पहले पन्ने की रिपोर्ट की व्याख्या बिल्कुल अलग ढंग से की.

पाञ्चजन्य ने 30 जून के अपने अंक में ‘जलप्रलय’ शीर्षक से आवरण कथा प्रकाशित की जिसमें कि ऋषिकेश में गंगा नदी के किनारे शिव की प्रतिमा को आवरण चित्र के रूप में छापा.

पाञ्चजन्य का यह अंक इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण अंक है कि इसमें एक पंक्ति में भी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्तराखंड आगमन और राहत एवं बचाव कार्य की चर्चा नहीं की गई बल्कि इस ख़बर से ख़ुद को बिल्कुल दूर रखा. ‘प्रकृति का प्रकोप’ शीर्षक के अंतर्गत पाञ्चजन्य  ब्यूरो की ओर से जुटाई गई ख़बरों को छोटे-छोटे उपशीर्षकों के अंतर्गत प्रकाशित किया गया, जिनमें भाजपा की ओर से इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग शामिल है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मृतकों के परिजनों को एक लाख, घायलों को 50 हज़ार और राज्य के लिए 1,000 करोड़ की आपदा राहत राशि जारी करने की घोषणा की, ये सारी बातें शामिल थीं.

अलग से बॉक्स बनाकर उत्तराखंड के अलग-अलग स्थानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किन कार्यकर्ताओं से कैसे संपर्क किया जा सकता है, उनका दूरभाष और पता क्या है, ये सब प्रकाशित किया गया. इस अंक में इस तबाही के मंज़र को दिखाने-बताने के लिए अलग से 12 तस्वीरें प्रकाशित की गईं जिनमें से एक तस्वीर के नीचे लिखा गया-‘ बदहवास लोगों को सिर्फ़ सेना और सुरक्षा बलों का ही सहारा’ और एक तस्वीर के नीचे- ‘गोविंद घाट में उफनती नदी के ऊपर रस्से के सहारे लटकता आईटीबीपी का जवान. प्राकृतिक विपदा के बाद राहत पहुंचाना बहुत दुष्कर था. सेना और सुरक्षा बलों के जवान न होते तो न जाने क्या होता.’

पाञ्चजन्य के इस अंक से गुज़रने के बाद पाठकों को यह समझने में मुश्किल नहीं होती कि इस आपदा में भारतीय सेना और सुरक्षा बलों ने पूरी ईमानदारी से काम किया. इसके साथ ही पाञ्चजन्य की टीम ने जिन शब्दावलियों का प्रयोग किया उनमें राज्य और केंद्र सरकार के प्रति किसी तरह का वैचारिक पूर्वाग्रह न होकर साथ खड़े रहकर सहयोग करने का भाव शामिल है.

इसी दौरान 14 जुलाई के अंक में साप्ताहिक ने देवेंद्र स्वरूप का एक आलेख प्रकाशित किया. ‘मोदी को ‘रैम्बो’ किसने बनाया?’ शीर्षक से इस आलेख की बॉडी कॉपी के साथ ‘मीडिया पर कांग्रेसी पकड़ और पत्रकारों पर दबाव का पूरा सच’ उपशीर्षक लगाया गया और पूरे आलेख में यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि 15,000 गुजरातियों के बाहर निकालने की ख़बर के साथ नरेंद्र मोदी के लिए ‘रैम्बो’ शब्द का इस्तेमाल उनका गौरव बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि उनका मज़ाक़ बनाने के लिए किया गया, इसके पीछे कांग्रेस का हाथ है और चूंकि मीडिया पूरी तरह कांग्रेस के दबाव में काम करता है इसलिए टाइम्स ऑफ इंडिया ने उसके इशारे पर यह सब किया.

लेख में इस बात को मज़बूती देने के लिए स्वरूप ने पत्रकारों की आपबीती उपशीर्षक के तहत ऐसी दो घटनाएं भी शामिल की जिससे कि यह साबित हो सके कि देश का मीडिया कैसे 10 जनपथ (कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का निवास) से संचालित होता है. दरअसल, इस तबाही के दौरान नरेंद्र मोदी की लोगों के बीच जो लोकप्रियता बढ़ी और उनके मुक़ाबले राहुल गांधी कहीं नज़र आए तो ईर्ष्या भाव से यह सब कुछ किया गया. देवेंद्र स्वरूप ने लिखा कि-

समाचार के स्रोत पर बहस शुरू हो गई तब अंग्रेज़ी दैनिक हिंदू में प्रशांत झा की ‘बाइलाइन’ से एक लंबा समाचार छपा, जिससे पता चला कि इस समाचार का स्रोत टाइम्स ऑफ इंडिया का ही एक महत्त्वपूर्ण पत्रकार आनंद सूनदास है. पूछताछ करने पर आनंद सूनदास ने बताया कि उसे यह सब जानकारी भाजपा के उत्तराखंड प्रवक्ता अनिल बलूनी से देहरादून वार्तालाप में प्राप्त हुई.

अनिल बलूनी ने इस कथन को चुनौती दी है. उन्होंने कहा कि यदि मैंने ऐसी ऊल-जलूल बातें कही थीं तो क्या आनंद सूनदास ने उनकी वहां उपस्थित गुजरात अधिकारियों से पुष्टि की. बलूनी ने सूनदास को 15 दिन में क्षमायाचना का नोटिस दिया है और मानहानि का मुक़दमा करने को कहा है. 30 जून को मेल टुडे ने एक जांच रपट में स्पष्ट किया कि 15,000 की संख्या बलूनी ने नहीं बताई, बल्कि टाइम्स ऑफ इंडिया की मेज़ पर ही गढ़ी गई. वहीं, मोदी के लिए ‘रैम्बो’ विशेषण भी ईजाद हुआ. 1 जुलाई को ‘हिंदू’ ने अपनी जांच को आगे बढ़ाते हुए कहा कि बलूनी ने 15,000 की संख्या नहीं दी. बलूनी ने यह भी कहा कि गुजरात सरकार की ओर से बोलने का मुझे अधिकार नहीं था.

इतने सब स्पष्टीकरण के बाद भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने मोदी विरोध से अंधे होकर अपनी पीठ ठोकी कि मैं रैम्बो नहीं हूं, कोई और होगा. और आज वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ने जनसत्ता में ‘रैम्बोगिरी’ शीर्षक से 23 जून की संडे टाइम्स में छपी झूठी कहानी को अक्षरशः सत्य मानकर मोदी की आलोचना कर डाली.

ऐसे प्रसंग बताते हैं कि मीडिया संस्थानों के लिए लोकतंत्र नागरिकों की हिस्सेदारी से चलने वाली एक सतत प्रक्रिया न होकर एक प्रबंधन है, जिसमें वे अपनी ज़रूरत के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं और तथ्यों को दरकिनार करके अपने पसंदीदा नैरेटिव को पत्रकारिता साबित कर सकते हैं. ये संस्थान भीड़ का ऐसा माहौल पैदा कर सकते हैं जहां नागरिकों की पॉकेटमारी का शोर तो है लेकिन ऐसा किसने किया, इसकी जिम्मेदारी तय करने का न तो साहस है और न इसकी ज़रूरत समझने का विवेक. नतीजतन, दिन-रात सुपर एक्सक्लूसिव, बिग न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज की हांक लगाता मीडिया उन सवालों और ख़बरों से अपने को पूरी तरह काट लेता है जिनसे एक बेहतर लोकतंत्र और जागरूक नागरिक समाज बनने की संभावना जन्म लेती है. 

(विनीत कुमार मीडिया पर गहरी निगाह रखते हैं. उनकी पिछली किताब ‘मंडी में मीडिया’ काफ़ी चर्चित हुई थी.)