नरेंद्र मोदी आरएसएस के असली ‘सपूत’ हैं और संघ मोदी का सबसे बड़ा लाभार्थी

मोहन भागवत ने अपने हालिया प्रवचन में कहा कि चुनाव में क्या होता है इसमें आरएसएस के लोग नहीं पड़ते पर प्रचार के दौरान वे लोगों का मत-परिष्कार करते हैं. तो इस बार जब उनके पूर्व प्रचारक नरेंद्र मोदी और भाजपा घृणा का परनाला बहा रहे थे तो संघ किस क़िस्म का परिष्कार कर रहा था?

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नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत. (फोटो साभार: यूट्यूब/narendra modi)

‘क्या आपने भाषण सुना?’, मेरे मित्र की आवाज़ में उत्तेजना थी. कौन सा भाषण, किसका भाषण, यह बताना भी उन्होंने ज़रूरी नहीं समझा. उन्हें इसका विश्वास था कि उनका इतना भर कहना पर्याप्त है और मैं समझ जाऊंगा कि वे किस भाषण की बात कर रहे हैं. मैं भी समझ ही गया था हालांकि न समझने का नाटक मैंने किया. देर तक यह नहीं किया जा सकता था: आख़िर देश में अभी एक ही भाषण की चर्चा हो रही है! और वह भाषण मोहन भागवत का सबसे नया प्रवचन था.

भागवत ने कहा कि अभी संपन्न हुए चुनावों में मर्यादा की रक्षा नहीं की गई. उन्होंने कहा कि जनतंत्र में विपक्ष या प्रतिपक्ष का भी उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान है जितना सत्ताधारी दल का. उन्होंने यह भी कहा कि मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है. वहां आग लगी हुई है या लगाई गई है.

भाषण लंबा है. इस भाषण में वे औरतों के शराब पीकर गाड़ी चलाने और उससे हुई दुर्घटना पर अफ़सोस करते हैं. वे पूछते हैं, आखिर इस देश के संस्कार कहां गए. ध्यान रहे वे औरत द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने की भर्त्सना कर रहे थे, उस वक्त पुणे के एक अमीर नाबालिग लड़के के द्वारा गाड़ी से दो लोगों को कुचलकर मार दिए जाने और फिर उस मामले को पुलिस और प्राथमिक न्यायालय द्वारा रफ़ा-दफ़ा करने की चर्चा हो रही थी. लेकिन भागवत ने महिलाओं के शराब पीकर गाड़ी चलाने का दृष्टांत ही चुना!

इस भाषण में भागवत ने पिछले सालों में प्रत्येक मानक पर भारत की उन्नति का गुणगान किया. हम जानते हैं कि यह झूठ है. यही झूठ पिछले 10 साल से मोदी सरकार और भाजपा दोहरा रही हैं.

जैसा हमने भाषण लंबा है और हमारे मित्र समेत सारे लोग उसके एक छोटे-से हिस्से को लेकर उत्तेजित हैं. कहा जा रहा है कि भागवत ने नरेंद्र मोदी को लताड़ लगाई है. यह आश्चर्य की बात नहीं कि हालांकि भागवत ने मोदी का नाम नहीं लिया लेकिन इसे लेकर सर्वसहमति है कि मर्यादा भंग के लिए उन्होंने मोदी को ही दुत्कारा है.

अपने भाषण में भागवत ने यह कहा कि चुनाव में क्या होता है इसमें आरएसएस के लोग नहीं पड़ते. लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान वे लोगों का मत-परिष्कार करते हैं. तो इस चुनाव में वे किस प्रकार का परिष्कार कर रहे थे?

जब उनके एक पूर्व प्रचारक और आजन्म स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी घृणा का परनाला बहा रहे थे तो आरएसएस किस क़िस्म का परिष्कार कर रहा था? सिर्फ़ मोदी ही नहीं पूरी भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव प्रचार को अश्लील घृणा प्रचार में बदल दिया था. मोदी और उनके अनुचर भाजपा ने पूरे देश को मल-स्नान करवा दिया. अब लोटे में पानी लेकर भागवत हाज़िर हुए हैं!

प्रश्न मर्यादा भंग का नहीं, मात्र विपक्ष की मर्यादा रखने का नहीं. असली सवाल है इस देश में मनुष्यता की मर्यादा की रक्षा का. वह मर्यादा इस देश की धर्मनिरपेक्षता है. अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और उनके सम्मान का प्रश्न इसमें सर्वप्रमुख है. इस देश में उनके समान अधिकार का प्रश्न सबसे ऊपर है.

उसे लेकर भागवत का या आरएसएस का विचार क्या मोदी से अलग है? क्या आरएसएस ने अभी साल भर पहले प्रस्ताव पारित करके चिंता नहीं जतलाई थी कि मुसलमान साज़िशन राज्यतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं? क्या आरएसएस ने मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ने से भारत की आबादी के चरित्र बदल जाने की आशंका नहीं ज़ाहिर की थी?

मोदी जिसे अत्यंत खुले और फूहड़ तरीक़े से कह रहे थे, वह क्या आरएसएस का ही विचार नहीं है? फिर मुसलमानों के ख़िलाफ़ मोदी के घृणा प्रचार पर आश्चर्य किस बात का?

मणिपुर में आग किसने लगाई? मणिपुर के सबसे ताकतवर हथियारबंद गिरोह आरमबाई तेंगोल से आरएसएस के रिश्ते के बारे में मणिपुर में जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसमें क्या कुछ भी सच नहीं? अगर वह झूठ भी है तो पिछले एक साल में ख़ुद आरएसएस ने अपने स्वयंसेवकों की सरकार से इसके बारे में कब क्या कहा?

पिछले एक साल में आरएसएस प्रमुख ही कई प्रवचन दे चुके हैं. एक बार भी मणिपुर का ज़िक्र क्यों नहीं किया उन्होंने? ध्यान रहे उत्तरपूर्वी भारत में आरएसएस की सक्रियता बहुत पुरानी है. ख़ुद उसने मणिपुर में शांति बहाल करने का क्या यत्न किया?

अगर हम इन्हीं बातों तक ख़ुद को सीमित रखें तो भी मोहन भागवत के इस प्रवचन का आडंबर और खोखलापन उजागर हो जाता है. इस प्रवचन का कोई अर्थ नहीं क्योंकि आरएसएस स्वयं मुसलमान और ईसाई विरोधी घृणा का उत्पादन करने वाला कारख़ाना है.

भागवत ने ठीक कहा कि शाखा में कुछ बरस गुज़ार देने के बाद आदमी बदल जाता है. यह तो पूछना ही पड़ेगा कि क्यों आरएसएस के सारे कार्यकर्ता मुसलमानों और ईसाइयों से घृणा करते हैं या उनके प्रति शंकालु हैं.  क्यों वे निरपवाद रूप से गांधी से घृणा करते हैं? क्यों आरएसएस के लोग, अपने सारे बाहरी दिखावे के बाद भी जातिवादी ही हैं?

जिस नरेंद्र मोदी को लेकर अब अफ़सोस किया जा रहा है, क्या आरएसएस ने अपनी पूरी ताक़त उसी मोदी को शिखर तक पहुंचाने में नहीं लगा दी थी? क्या 2002 के स्वयंसेवक मोदी और 2024 के मोदी में कोई फ़र्क है? और क्या ख़ुद आरएसएस का पूरा अस्तित्व असत्य और अर्धसत्य पर नहीं टिका हुआ है? क्या आरएसएस हृदय से उस संविधान को मानता है जिसका वह गुणगान करता है? क्या जिस गांधी को उसने प्रातःस्मरणीय बना रखा है, उसे मारने वाले गोडसे और उस हत्या की साज़िश में संलिप्त सावरकर के प्रति आरएसएस के लोगों में श्रद्धा नहीं है?

यह प्रश्न आरएसएस से जुड़े लोगों को करना चाहिए, उसके आलोचकों को नहीं. मैं मानता हूं कि आरएसएस के सारे लोगों में आत्मबोध समाप्त नहीं हो गया है. वे अभी भी ख़ुद से कुछ कठोर प्रश्न करके आरएसएस के भ्रमजाल से मुक्त हो सकते हैं.

2013 में जब पहले पहल नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था तब मैंने आरएसएस के एक उच्च पदाधिकारी से पूछा था कि गुजरात में मोदी ने उनके संगठन के साथ जो बर्ताव किया था, क्या उसके बाद भी वे मोदी का समर्थन करेंगे. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हम दो तरह से अप्रासंगिक हो सकते हैं. एक तो मोदी के मातहत और दूसरा कांग्रेस के राज में. आप बताइए हमें कौन-सी अप्रासंगिकता चुननी चाहिए?’

दूसरे, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ वक्त बाद आरएसएस के ही एक सदस्य ने मुझसे कहा, ‘अगर आपमें कोई यह सोचता है कि आरएसएस कभी मोदी को अनुशासित करेगा तो यह आपकी ख़ुशफ़हमी है. आप बताइए कि आरएसएस के किस प्रमुख को ज़ेड सुरक्षा मिली थी, किस प्रमुख का भाषण हर टीवी चैनल चलाता था, कौन कल्पना कर सकता था कि उसे हर कोई इतना महत्त्व देगा? यही नहीं, आरएसएस के छुटभैयों को भी अब जो महत्त्व मंत्रालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक मिल रहा है, वह और कब मिला था? यह सब किसकी कृपा है?’

नरेंद्र मोदी आरएसएस के असली ‘सपूत’ हैं. और आरएसएस मोदी का सबसे बड़ा लाभार्थी है. आरएसएस के जिस विचार को ढांक-तोपकर अटल बिहारी या लालकृष्ण आडवाणी व्यक्त करते थे, उसे मोदी के मुंह से बिना किसी संकोच के सुना जा सकता है. और मोदी के कारण ढेर सारे बुद्धिजीवी और उद्योगपति आरएसएस को सलामी बजाते हैं. आरएसएस को और क्या चाहिए?