लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस चुनाव ने निश्चय ही लोकतंत्र को सशक्त-सक्रिय किया है पर उसकी परवाह न करने वालों को फिर सत्ता में बने रहने का अवसर देकर अपने लिए ख़तरा भी बरक़रार रखा है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

लोकसभा चुनाव संपन्न हो गए. सात चरणों में हुए इस बेहद लंबे चुनाव की गहमागहमी चीख़-चिल्लाहट, घात-प्रतिघात, आरोप-प्रत्यारोप थम गए. यों तो इस दौरान भी हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी अबाध चली रही; पर अब वह फिर हमारे ध्यान में उभर आई. नतीजे आ चुके हैं, नई सरकार का गठन हो गया है. नतीजों का व्यापक विश्लेषण और आकलन तरह-तरह से हो रहा है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि अब राजनीति में जो चल रहा था, ख़ासकर सत्तारूढ़ राजनीति में, वह बदलेगा: वहां हस्बे मामूल नहीं रह पाएगा.

नतीजे ऐसे आए कि किसी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. यह भी स्पष्ट हुआ कि राम से पारंपरिक रूप से जुड़े क्षेत्रों में राम को लाने का दावा करने वाले दल की निर्णायक हार हुई. उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों में से अधिकांश पर भाजपा हारी और लगभग सत्तर सीटों पर उसके वोट प्रतिशत में गिरावट आई है. चुनाव आयोग पूरी निर्लज्जता और कायरता से व्यवहार करने के बावजूद, अपनी सत्ता-भक्ति के उबाल से भी सत्तारूढ़ दल को बहुमत दिला पाने में विफल रहा. सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेता के लगातार सांप्रदायिक वक्तव्यों पर उसने रोक लगाने की हिम्मत नहीं दिखाई. उसकी इन भयानक चूकों के लिए उसे दंडित करने का पर्याप्त आधार बचा हुआ है.

संसद में, लोकसभा में सशक्त विपक्ष की वापसी हुई है. बहुतों को यह राहत मिली लग रही है कि संविधान बदलकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना फ़िलहाल टूट गया है. लोकतंत्र एक दल या व्यक्ति की तानाशाही में बदले जाने से बच गया है. समाज को धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर बांटने, ध्रुवीकरण पैदा करने की मुहिम फुस्स हो गई है. लगभग सारे एक्ज़िट सर्वे बुरी तरह से झूठे और षड्यंत्र के अंतर्गत किए गए साबित हुए और गोदी मीडिया की बहुत किरकिरी हुई है.

अब मोदी नेतृत्व में तीसरी बार जो सत्ता बनी है वह भाजपा की सत्ता नहीं, एनडीए गठबंधन है. यह उम्मीद की जा रही है कि नई सत्ता सौम्य, सहिष्णु, समझौतों के लिए तैयार, उदार, कम आक्रामक आदि होगी. सहसा इस स्वभाव परिवर्तन पर भरोसा करना कठिन है.

अब तक मोदी शैली का कुख्यात ‘क-एकादश’ रहा है: कटुता, कट्टरता, क्रूरता, केंद्रिकता, कटौती, कोताही, कमअक़ली, कचरा, कुंदज़हनी, कमाई और करिश्मा. यह सब उसके स्वभाव का हिस्सा हैं. यह स्वभाव किसी दबाव में आसानी से बदल जाएगा यह मुमकिन नहीं लगता. हो सकता है स्वभाव बदलने के बजाय कोई नया, अधिक लुभावना, अधिक सक्षम पाखंड उभरे.

भाजपा दो तरह से सर्वभक्षिता के अहाते में है- एक ओर उसका बेहद शक्तिशाली नेतृत्व उसे खा रहा है और दूसरी ओर उसका अन्य दलों को लीलने का उत्साह मंद पड़ता नज़र नहीं आता. जो दूसरों को खाता है उसे भी कोई अंततः खा ही जाता है. यह सवाल भी उठ ही रहा है कि क्या व्यापक जीवन में जो झूठ-झांसों, नफ़रत-हिंसा की भरमार कर दी गई है वह कम या धीरे-धीरे ग़ायब हो जाएगी?

अपनी सारी अदम्य आशावादिता के रहते, हमें यह भरोसा नहीं है कि ऐसा कोई सबक सत्तारूढ़ राजनीति सीखेगी.

उसका आत्मचिंतन तो उसे इसी नतीजे पर ले जाएगा कि वह जितना जीत पाई है उतना इन्हीं सबके बलबूते पर और उसे उन पर टिका रहना चाहिए. शायद उन्हें और बढ़ाना-फैलाना चाहिए. इस चुनाव ने निश्चय ही लोकतंत्र को सशक्त-सक्रिय किया है पर उसकी परवाह न करने वालों को फिर सत्ता में बने रहने का अवसर देकर अपने लिए ख़तरा भी बरक़रार रखा है. शायद लोकतंत्र अपनी ही अग्निपरीक्षा ले रहा है.

नेहरू के साथ सोचते हुए

पिछली 27 मई 2024 को जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुए साठ वर्ष पूरे हुए. इस अवसर पर राजीव गांधी फाउंडेशन ने नई दिल्ली स्थित जवाहर भवन में ‘नेहरू के साथ सोचते हुए’ शीर्षक से एक दिन भर लंबा परिसंवाद आयोजित किया जिसमें मुख्यतः युवा अध्येताओं ने नेहरू के विभिन्न पक्षों पर सघन विचार किया.

इस विमर्श में भारत विचार, जाति का प्रश्न, नेहरू-लियाकत अली समझौते की पृष्ठभूमि, नेहरू युग में स्त्री-प्रश्न, सेना और राष्ट्र, नेहरू-सावरकर-अशोक और नया राष्ट्र, जम्मू-कश्मीर का 1870-1950 के दौरान सामाजिक इतिहास, नेहरू और आदिवासी, अंतरराष्ट्रीयतावाद और भूमंडलीय दक्षिण, नेहरू के भूमंडलीय भारत का बचाव करने की ज़रूरत, नेहरू के समय में हमारा दुनिया को देखना, विज्ञान और नागरिकता, आधुनिकता, धर्म, संस्कृति और धर्मनिरपेक्ष राज्य, सहिष्णुता का आश्वासन जैसे विविध विषय शामिल थे.

सभी वक्ता, मुझे, अपूर्वानंद और माधव पलाट को छोड़कर, युवा थे. सभी प्रस्तुतियों में गहन अध्ययन, तथ्यों का सटीक संकलन, निडर विवेचन और बौद्धिक प्रखरता थी. यह देखकर बहुत आश्वस्ति हुई कि भाजपा और संघ परिवार द्वारा नेहरू के विरूद्ध और उनके अवमूल्यन की जो ज़्यादातर अपढ़ पर व्यापक और मुखर मुहिम चलाई गई है उससे ये युवा अध्येता अप्रभावित रहकर अपना वस्तुनिष्ठ विवेचन कर पाए हैं.

वे नेहरू की विफलताओं और कमज़ोरियों को भी दर्ज़ करते हैं पर उनके अवदान को अवमूल्यित करने से बचते हैं. वे विचारधाराओं की जकड़बंदी से मुक्त स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवी हैं.

आरंभिक वक्तव्य के रूप में मैंने कहा कि नेहरू को कम से कम पांच उत्तराधिकार मिले थे: भारतीय इतिहास और परंपरा का उनका अवगाहन और आलोचना, विश्व इतिहास और उसके सबक, पश्चिमी आधुनिकता, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और महात्मा गांधी का जीवन और दृष्टि. प्रधानमंत्री के रूप में उनके सरोकारों में विभाजित भारत को अटूट और एकजुट रखने की कोशिश, स्वतंत्रता संग्राम को मिले जनसमर्थन को लोकतंत्र में जनभागीदारी में बदलने की चेष्टा, संविधान द्वारा प्रस्तावित स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता के सामाजिक धर्म को लोकव्याप्त करना, औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था को लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिणत करना प्रमुख थे.

इनमें से कोई भी काम आसान नहीं था. व्यापक अशिक्षा, ग़रीबी, बेकारी आदि इस काम को और कठिन बनाते थे. फिर नेहरू एक ग़रीब-विपन्न-अशिक्षित भारत को विश्व समुदाय में अपनी उचित जगह दिलाने और दूसरे विश्वयुद्ध से क्षत-विक्ष पश्चिम को शांति के लिए राज़ी कराने की चेष्टा भी करना चाहते थे.

भारत के विकास का मॉडल सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार भर आधारित था. शिक्षा, विज्ञान, टेक्नोलॉजी, अंतरिक्ष और आणविक अनुसंधान को भी उन्होंने प्राथमिकता दी. इन सभी प्रयत्नों में उनकी सफलता या उपलब्धि का रिकॉर्ड बहुत उजला और टिकाऊ है. उनकी विफलताओं से राष्ट्र ने सीखा है और यथासमय ज़रूरी सुधार और परिवर्तन किए हैं. लेकिन विकास की बुनियाद नेहरू ने ही तैयार की और उसी आधार पर भारत आगे बढ़ता रहा है.

उनके कार्यकाल के दौरान नेहरू से मोहभंग भी हुआ. संसद में और उससे बाहर सार्वजनिक क्षेत्र, अख़बारों और कार्टूनों, वैचारिक जगत् में उनकी कटु आलोचना भी हुई. पर इस कारण किसी को दंडित नहीं किया गया.

साहित्य में उसकी लगभग अनिवार्य व्यवस्था-विरोध की वृत्ति ने नेहरू की लगातार आलोचना की गई. लेकिन हर हालत में असहमति और आलोचना का नेहरू और उनका शासन सम्मान करता रहा. आज हम उससे कितना दूर चले आए हैं: यह सम्मान बढ़ने के बजाय दबंग तरीके से घटाया जा रहा है.

संविधान की चिंता

स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत में संविधान पहली बार, इस बार के चुनाव में, एक मुद्दा बना. विपक्ष ने इसे ज़ोरदार ढंग से उठाया. नतीजों का जो आरंभिक विश्लेषण आया है उससे स्पष्ट है कि संविधान की आत्मा और प्रावधानों का उल्लंघन पढ़े-लिखे चिकने-चुपड़े वर्ग की चिंताओं में शामिल नहीं है. उसका अधिकांश लालची, लाभार्थी और सुविधापरस्त हो चुका है और संविधान द्वारा दी गई स्वतंत्रताओं का उपभोग करते हुए भी वह उसके प्रति उदासीन है.

यह एक ऐतिहासिक मुक़ाम है कि समाज के वंचित तबकों, दलितों, अल्पसंख्यकों आदि ने भाजपा को हराकर, उसे पूर्ण बहुमत से दूर रखकर, संविधान को आमूल रूप से बदलने जाने की आक्रामक मुहिम को विफल कर दिया है.

संविधान से अपेक्षा होती है कि वह लोगों को, उनके अधिकारों की रक्षा करता है: इस बार लोगों ने संविधान की रक्षा की है. हाशिये पर डाल दिए गए, वंचित और कम पढ़े-लिखे लोगों ने, सुख-सुविधाओं से वंचित ग़रीब लोगों ने. यह कई तरह से संविधान का जनसत्यापन है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)