नई दिल्ली: एनसीईआरटी (नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग) की कक्षा 12वीं की राजनीतिक विज्ञान की नई किताब बाजार में आ गई है. संशोधित किताब में भाजपा सरकार द्वारा की गई इतिहास पुनर्लेखन की छाप स्पष्ट दिख रही है.
इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि किताब में बाबरी मस्जिद का नाम नहीं लिया गया है, उसे ‘तीन गुंबद वाली संरचना’ कहा गया है. साथ ही, राम जन्मभूमि आंदोलन के बारे में विस्तार से बताया गया है. पहले कक्षा 12वीं की राजनीतिक विज्ञान की किताब में अयोध्या खंड चार पन्नों में था, जिसे घटाकर अब दो पृष्ठ में समेट दिया गया है. नए संस्करण से कई महत्वपूर्ण विवरण भी हटाए गए हैं.
भाजपा की भाषा बोल रही है किताब
पुरानी किताब में बाबरी मस्जिद को 16वीं शताब्दी की मस्जिद बताया गया था, जिसे मुगल सम्राट बाबर के जनरल मीर बाकी ने बनवाया था. अब मस्जिद को ‘एक तीन-गुंबद वाली संरचना के रूप में संदर्भित किया गया है, जिसे 1528 में श्री राम के जन्मस्थान पर बनाया गया था, लेकिन संरचना के आंतरिक और बाहरी हिस्सों में हिंदू प्रतीकों और अवशेषों की स्पष्ट छाप देखी जा सकती थी.’
पुरानी किताब में दो पन्नों से ज़्यादा में फैजाबाद (अब अयोध्या) जिला अदालत के आदेश पर फरवरी 1986 में मस्जिद के ताले खोले जाने के बाद ‘दोनों तरफ’ की लामबंदी का वर्णन किया गया था. इसमें सांप्रदायिक तनाव, गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक भाजपा की रथयात्रा, 6 दिसंबर 1992 को राम मंदिर निर्माण के लिए स्वयंसेवकों द्वारा की गई कार सेवा, मस्जिद का विध्वंस और उसके बाद जनवरी 1993 में हुई सांप्रदायिक हिंसा का ज़िक्र किया गया था. इसमें बताया गया था कि कैसे भाजपा ने ‘अयोध्या में हुई घटनाओं पर खेद व्यक्त किया था’.
इन सभी बातों को अब इस एक पैराग्राफ से बदल दिया गया है: ‘1986 में तीन गुंबद वाली संरचना से संबंधित मामले ने एक महत्वपूर्ण मोड़ ले लिया जब फैजाबाद (अब अयोध्या) जिला अदालत ने संरचना को खोलने का फैसला सुनाया, जिससे लोगों को वहां पूजा करने की अनुमति मिल गई. यह विवाद कई दशकों से चल रहा था क्योंकि ऐसा माना जाता था कि तीन गुंबद वाली संरचना श्री राम के जन्मस्थान पर एक मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बनाई गई थी. मंदिर के लिए शिलान्यास किया गया था, लेकिन आगे के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. हिंदू समुदाय को लगा कि श्री राम के जन्म स्थान से संबंधित उनकी चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया गया था. वहीं, मुस्लिम समुदाय ने संरचना पर अपने कब्जे का आश्वासन मांगा था. इसके बाद दोनों समुदायों के बीच स्वामित्व अधिकारों को लेकर तनाव बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप कई विवाद और कानूनी संघर्ष हुए. दोनों समुदाय लंबे समय से चले आ रहे मुद्दे का निष्पक्ष समाधान चाहते थे. 1992 में ढांचे के विध्वंस के बाद कुछ आलोचकों ने तर्क दिया कि इस घटना ने भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के लिए एक बड़ी चुनौती पेश की.’
किताब के नए संस्करण में अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एक उपखंड जोड़ा गया है, जिसका शीर्षक है- कानूनी कार्यवाही से सौहार्दपूर्ण स्वीकृति तक. इसमें कहा गया है कि ‘किसी भी समाज में संघर्ष होना लाजिमी है’, लेकिन ‘एक बहु-धार्मिक और बहुसांस्कृतिक लोकतांत्रिक समाज में ये संघर्ष आमतौर पर कानून की उचित प्रक्रिया के बाद हल हो जाते हैं’.
इसके बाद इसमें अयोध्या विवाद पर 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के 5-0 के फैसले का उल्लेख किया गया है. उस फैसले ने मंदिर निर्माण का रास्ता खोला था, जिसका उद्घाटन इस साल जनवरी में हुआ था.
किताब में कहा गया है, ‘अदालत ने अपने फैसले के तहत विवादित स्थल को राम मंदिर निर्माण के लिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट को आवंटित किया और संबंधित सरकार को सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को मस्जिद के निर्माण के लिए उपयुक्त स्थल आवंटित करने का निर्देश दिया. पुरातात्विक उत्खनन और ऐतिहासिक अभिलेखों जैसे साक्ष्यों के आधार पर कानून की उचित प्रक्रिया के बाद इस मुद्दे को सुलझाया गया. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का समाज ने बड़े पैमाने पर जश्न मनाया. यह एक संवेदनशील मुद्दे पर आम सहमति बनाने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो लोकतांत्रिक लोकाचार की परिपक्वता को दर्शाता है जो भारत में सभ्यतागत रूप से निहित है.’
अख़बारों की कटिंग भी हटाई गईं
पुरानी किताब में अखबारों के लेखों की तस्वीरें थीं, जिनमें 7 दिसंबर 1992 का एक लेख भी शामिल था. उस लेख का शीर्षक था, ‘बाबरी मस्जिद ढहाई गई, केंद्र ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त किया.’ 13 दिसंबर 1992 की एक हेडलाइन में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हवाले से लिखा गया था कि ‘अयोध्या भाजपा की सबसे बड़ी गलती थी.’ अखबारों की इन सभी तस्वीरों को अब हटा दिया गया है.
पुरानी किताब में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैया और जस्टिस जीएन रे द्वारा मोहम्मद असलम बनाम भारत संघ मामले में 24 अक्टूबर 1994 को दिए गए फैसले में की गई टिप्पणियों का एक अंश था, जिसमें कल्याण सिंह (विध्वंस के दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) को ‘कानून की गरिमा को बनाए रखने’ में विफल रहने के लिए अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया था. कोर्ट ने कहा था- ‘चूंकि अवमानना हमारे राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की नींव को प्रभावित करती है, इसलिए हम उन्हें एक दिन के सांकेतिक कारावास की सजा भी देते हैं.’
अब इसे 9 नवंबर 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक अंश से बदल दिया गया है, जिसमें कहा गया है: ‘…इस न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को न केवल संविधान और उसके मूल्यों को बनाए रखने का कार्य सौंपा गया है, बल्कि इसकी शपथ भी ली गई है. संविधान एक धर्म और दूसरे धर्म की आस्था और विश्वास के बीच अंतर नहीं करता है. सभी प्रकार की आस्था, पूजा और प्रार्थना समान हैं… इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मस्जिद के निर्माण से पहले और उसके बाद भी हिंदुओं की आस्था और विश्वास हमेशा से यही रहा है कि भगवान राम का जन्मस्थान वह स्थान है जहां बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया. यह आस्था और विश्वास दस्तावेजी और मौखिक साक्ष्यों से साबित होता है.’
2014 के बाद चार बार हो चुका है बदलाव
2014 के बाद से एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के संशोधन का यह चौथा दौर है. अयोध्या खंड में किए गए बदलावों का उल्लेख करते हुए एनसीईआरटी ने बीते अप्रैल माह में कहा था: ‘राजनीति में नवीनतम घटनाक्रम के अनुसार सामग्री को अपडेट किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फैसले और उसके व्यापक स्वागत के कारण अयोध्या मुद्दे पर पाठ को पूरी तरह से संशोधित किया गया है.’