लोकसभा चुनाव: लखनऊ के शिया मुसलमानों ने भाजपा समर्थित मौलानाओं को नकार दिया

यह सही है कि शिया 'डीलर' भाजपा की ओर झुके हैं, लेकिन शियाओं ने आमतौर पर कभी लामबंद होकर भाजपा को वोट नहीं दिया. मुसलमानों के बीच नफ़रत फैलाने के लिए हर चुनाव से पहले ऐसी अफ़वाह फैलाई जाती है.

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भाजपा के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह के साथ विभिन्न शिया नेता. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

एक समूह को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करना भाजपा की विशेषता रही है. इस दल का एक पुराना प्रोपगैंडा यह है कि शिया मुसलमान भाजपा के वोटर हैं. इस प्रोपगैंडा को सफ़ल बनाने के लिए भाजपा और संघ हमेशा कुछ ऐसे शिया नेताओं को अपने साथ लाता रहा है जो अपने स्वार्थों के साथ संघ के उद्देश्य को भी पूरा करने के लिए तत्पर रहते हैं.

एक दशक पहले दिवंगत कल्बे सादिक़ साहब, जिन्हें मरणोपरांत भाजपा सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया, ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का उपाध्यक्ष रहते हुए यह बयान दिया था कि मुसलमान भाजपा को कुबूल कर सकते हैं मगर नरेंद्र मोदी को नहीं. लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद उनके भतीजे और आसिफ़ी मस्जिद लखनऊ के शाही इमाम कल्बे जवाद का हृदय परिवर्तन हो गया, और वे प्रधानमंत्री का स्तुति गान करने लगे. उन्होंने यह तक कह दिया कि गुजरात के मुसलमानों को मोदी को माफ़ कर देना चाहिए.

दिलचस्प बात यह है कि ये चचा-भतीजे एकदूसरे के विरोधी माने जाते थे, मगर भाजपा की हिमायत करते वक्त वे अपना तमाम विरोध भूलकर एक ज़बान नज़र आए. अब जब मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, मौलाना को इन बयानों का क्या इनाम मिलता है यह देखना दिलचस्प होगा.

शियाओं की लखनऊ में प्रभावशाली संख्या तो है ही, उनका प्रभाव उत्तर प्रदेश के कुछ दूसरे क्षेत्रों जैसे अमरोहा, आजमगढ़, अलीगढ़, बाराबंकी, फ़ैज़ाबाद, गाज़ीपुर, जौनपुर, मुजफ्फरनगर और उतरौला आदि में भी देखा जा सकता है. इसलिए यह आम धारणा गलत है कि शिया मतदाताओं की उपस्थिति केवल लखनऊ तक सीमित है.

2014 के चुनावी नतीजों के बाद लखनऊ की शिया लीडरशिप, जिसे ‘डीलरशिप’ कहना ज़्यादा उचित होगा, भाजपा  सरकार के सामने औंधे मुंह गिर गई.

दो शिया नेताओं- बुक्कल नवाब और मोहसिन रज़ा को भाजपा ने एमएलसी बना दिया. इस शिया डीलरशिप के कई बड़े नाम- आग़ा रूही, कल्बे रुशेद, यासूब अब्बास, हमीदुल हसन, अली मुहम्मद (अलीगढ़) सैफ़ अब्बास जैसे शिया इस्लाम के प्रचारक, हुसैनी टाइगर्स के शमील शम्सी, वफ़ा अब्बास (अंबर फ़ाउंडेशन), शिया वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष अली ज़ैदी, फख़रुद्दीन अली मेमोरियल कमेटी के अध्यक्ष तुराज ज़ैदी, उत्तर प्रदेश अल्प संख्यक आयोग के मेंबर कुंवर इक़बाल हैदर और उत्तर प्रदेश सरकार  के पूर्व मंत्री अम्मार रिज़वी- राम मंदिर के निर्माण में हिस्सा लेने की होड़ में शामिल थे, जो उस स्थान पर बनाया गया जहां कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी.

क्या शिया भाजपा के पास सुन्नी-विरोध की वजह से जाते हैं?

लखनऊ के शिया के इस तथाकथित भाजपा समर्थन को बारीकी से समझे जाने की ज़रूरत है. क्या शिया इस्लाम की सुन्नी-विरोधी जड़ें उनके भाजपा समर्थन का आधार बनती हैं?

इस प्रश्न का उत्तर निश्चित ही नकार में है.

ईरान के बाहर लखनऊ कभी भारत की अकेली शिया रियासत (1722 – 1856) हुआ करता था. शिया इस्लाम की शाख़ उस ईरान से निकलती है जब वहां सफ़वी वंश का शासन आया. लखनऊ में कभी शिया मुसलमानों का प्रभुत्व हुआ करता था. बड़े जमींदार और जायदाद वाले अधिकतर शिया थे. राजनीति और न्यायपालिका से संबंधित मामलों में भी इनका प्रभाव स्पष्ट था. यह स्थिति 1967 तक रही जब कांग्रेस ने मुसलमानों को अधिक मात्रा में अपनी सदस्यता देनी प्रारंभ की. चूंकि सुन्नियों की संख्या शियाओं से अधिक थी, तो कांग्रेस में भी सुन्नियों की संख्या बढ़ने लगी.

जब शिया को कांग्रेस में अपने लिए जगह तंग लगने लगी, उन्होंने इसका राजनीतिक विकल्प उस भारतीय जनसंघ में खोजना शुरू कर दिया जिससे वर्तमान भाजपा निकली है. इसी के साथ शिया ‘डीलरशिप’ का एक हिस्सा जनसंघ की तरफ़ खिसकना शुरू हो गया.

फिर 1980 के बाद का दौर आया जब अरब देशों ने अपने दरवाज़े मज़दूर वर्ग के लिए खोल दिए. अरब देशों में गए मज़दूरों के भेजे पैसे से सुन्नी मुसलमानों की आर्थिक स्थिति तेज़ी से सुधरी. इस पैसे से लखनऊ की सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में तेज़ी से परिवर्तन हुआ और आज सुन्नी मुस्लिम शिया को उन्नति के लगभग सभी सूचकांकों में काफ़ी पीछे छोड़ चुके हैं.

इस नई सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की वजह से दोनों समुदायों के बीच दंगे होना भी लगभग बंद हो गए.

शिया का मत किसके लिए?

यह सही है कि शिया ‘डीलर’ भाजपा की ओर झुके हैं, लेकिन शियाओं ने आमतौर पर कभी लामबंद होकर  भाजपा को वोट नहीं दिया. मुसलमानों के बीच नफ़रत फैलाने के लिए हर चुनाव से पहले ऐसी अफ़वाह फैलाई जाती है.

स्वार्थ में अंधे शिया ‘डीलर्स’ ने कभी सीएए-एनरसी विरोधी आंदोलन में मारे गए मुसलमानों के लिए या उन दर्जनों मुसलमानों के लिए जिन्हें  यूएपीए लगाकर जेलों में डाल दिया गया, आज तक एक शब्द नहीं कहा. लखनऊ के वह शिया घराने, जिन्होंने क़रीब पचपन साल पहले 1967 में लखनऊ पश्चिम विधानसभा से जीतने वाले जनसंघ प्रत्याशी लालू शर्मा का समर्थन किया था, आज भी उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता उसी  विचारधारा वाले दल के साथ है.

ये डीलर राजनाथ सिंह को ‘ग़लत दल में सही आदमी’ की संज्ञा देते हैं. अगर वह सचमुच सहीआदमी हैं, तो फिर बिलक़ीस बानो के बलात्कारियों को सभ्य बताने वाली, कठुआ में आसिफ़ा के बलात्कारी के पक्ष मेंरैली निकालने वाली पार्टी को क्यों नहीं छोड़ देते. लेकिन इस तरफ़दारी की वजह से राजनाथ सिंह ने कल्बे सादिक़ को पद्मभूषण और वहीदउद्दीन ख़ान को पद्मविभूषण दिलवा दिया था.

यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह दोनों ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर निर्माण के समर्थक थे.

लेकिन आम शिया मुसलमान इस राजनीतिक दलाली को नकारता है. और इसकी तस्दीक आंकड़ों से होती हैं.

इस बार लखनऊ लोकसभा सीट पर राजनाथ सिंह (6, 12, 709) सपा के रविदास महरोत्रा ( 4, 77, 550 ) से 1,35, 159 वोटों से जीते हैं. हुसैनाबाद ट्रस्ट जैसे शिया बहुल बूथ पर राजनाथ सिंह को 224 जबकि रविदास महरोत्रा को 1,061 वोट मिले. यूनिटी कॉलेज बूथ पर यह आंकड़ा क्रमशः 220/1,796, शिया यतीमखाना पर 315/2,841, सीएमएस हसनपुरिया पर 258/ 2,180 वोट का रहा.

शिया प्रभाव वाले लखनऊ पश्चिम और लखनऊ सेंट्रल के क्षेत्रों में राजनाथ सिंह 5,670 और 7,584 वोटों से पिछड़ गए. मज़ेदार बात यह हुई कि कल्बे जवाद के अपने जौहरी मुहल्ला से राजनाथ सिंह को मात्र 72 जबकि रविदास महरोत्रा को 627 वोट मिले.

क्या अब भी भाजपा शिया डीलर पर डोरे डालती रहेगी?

(लेखक उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व सूचना आयुक्त एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं.)