आज, इक्कीस जून, जगदीश स्वामीनाथन 96 वर्ष के हुए होते. रंगों और आकृतियों की अनूठी सृष्टि रचने वाला यह चित्रकार स्वातंत्र्योत्तर भारत की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता था, जब साहित्य और ललित कला के संबंध प्रगाढ़ थे और विभिन्न विधाएं एकदूसरे से पोषण हासिल करती थीं. स्वामी का दायरा अत्यंत विस्तृत था. देश के प्रमुख लेखकों से लेकर मध्य भारत के आदिवासी कलाकारों के साथ उनका सघन संवाद हुआ करता था.
उनकी वर्षगांठ पर हम अनूठे कथाकार कृष्ण बलदेव वैद का निबंध प्रकाशित कर रहे हैं. दोनों लड़कपन के दिनों से दोस्त थे, एकदूसरे की साधना के साक्षी.
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बरसों पुरानी एक तरोताज़ा प्यारी तस्वीर से शुरू करता हूं.
एक दोपहर की चिलचिलाहट और अपनी बेचैनी से बेहाल मैं उस ज़माने के एक अज़ीज़ दोस्त के साथ स्वामी के उस करोलबाग़ी कमरे में जा खड़ा होता हूं जहां कुछ अफ़वाहों के अनुसार स्वामी कभी-कभी कुछ काम किया करता है. शायद हम उन अफवाहों को झुठलाने वहां पहुंच गए हैं. कमरा नंगा है, स्वामी आधा नंगा- जैसे कई दिनों का भूखा कोई नौजवान भिखारी हो. उसकी सोयी-खोयी आंखों से धुंधला आलोक फूट रहा है, कुछ-कुछ वैसा ही जैसा उसके आख़िरी दौरे की पागल पहुंची हुई तस्वीरों से फूटता है. नंगे फर्श पर एक कुंवारी कैनवस करवटें बदल रही है.
स्वामी उसे घूर रहा है और शायद उसी चिथड़े से वही चाकू साफ़ कर रहा है जिन्हें बाद में ऑक्टावियो पाज़ ने अपनी एक आबदार कविता में क़ायम और दायम कर दिया था :
With a rag and a Knife
Like a toreador
Against the idee-fixe
The bull of terror
Against the Canvas and the void
The uprushing spring
* * *
The Canvas a body
Dressed in its own naked enigma
स्वामी के संगीन चेहरे को देख मुझे दहशत होती है. महसूस होता है सामने एक ऐसा क़ातिल खड़ा हो जो कोई ख़ून करने से फ़ौरन पहले या बाद अपना खंज़र साफ़ कर रहा हो. कुछ क्षण बाद स्वामी के होंठों पर जो मुस्कुराहट उतर आती है उसमें भी ख़ून की ख़ूबसूरत ख़ौफ़नाक ख़ामोश सुर्खी है.
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उन दिनों स्वामी के चेहरे पर दाढ़ी की झाड़ी नहीं थी, सल्वाडोर डाली जैसी ढीली-सी मूंछ थी, जिसमें बाद की दाढ़ी-झाड़ी की संभावना मचलती रहती थी.
उन दिनों भी वह थोड़ा झुककर चलता था, मानों ज़मीन से पूछ रहा हो, आसमान कहां है, या कोई गिरी पड़ी चीज़ उठा कर अपनी किसी ज़ेब या तस्वीर में गुम कर देने की सोच रहा हो, या यूं ही किसी सोच में डूबा हुआ, शायद किसी सोच के लिए कोई कबर खोज रहा हो.
उन दिनों भी वह काम कम किया करता था, काम की तैयारी ज्यादा.
उन दिनों भी उसकी आवाज़ में गर्म कंकरीली खरज सुनाई दिया करती थी.
मुझे इस कल्पना से अजीब-सा आनन्द मिलता है कि वह आवाज़ स्वामी को गंगूबाई हंगल से मिली थी या शायद गंगूबाई हंगल को स्वामी से.
उन दिनों स्वामी ने कम्युनिस्ट पार्टी की ’होलटाइमरी’ तो शायद छोड़ दी थी लेकिन कला की अभी शुरू नहीं की थी.
उन दिनों वह कुर्ता-लुंगी नहीं, कमीज़, कोट, पतलून पहना करता था.
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उस दोपहर अपना ख़ंजर साफ़ कर लेने के बाद स्वामी अपनी उस मौसी के बारे में रुक-रुककर काफ़ी देर तक न जाने क्या-क्या बोलता-बताता रहा था जिसे बरसों बाद मैंने भोपाल में स्वामी की प्यार भरी देख-रेख में अपने आखि़री दिनों में एक अनवरत आलाप प्रलाप में मग्न देखा था.
मुझे यह कल्पना करते हुए कुछ संकोच होता है कि स्वामी के आखि़री दौरे की पागल पहुंची हुई तस्वीरों के गंभीर मौन में उस मौसी का अनवरत आलाप-प्रलाप भी रचा-बसा हुआ है.
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उन दिनों भी स्वामी बीड़ी यूं पिया करता था जैसे बेचारी का ख़ून पी रहा हो.
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स्वामी एक सोचता हुआ कलाकार है. नहीं. एक ऐसा कलाकार जिसकी तस्वीरें सोचती हुई दिखाई देती हैं. नहीं. एक ऐसा कलाकार जो बहुत कुछ सोच-विचार चुका हो. नहीं. एक ऐसा कलाकार जिसने अपनी सोच को अपनी तस्वीरों में घोल-मोल दिया हो.
स्वामी चिंतनग्रस्त कलाकार नहीं. स्वामी सीधे सरल तरीक़े से सोचने वाला चित्रकार नहीं. स्वामी की सोच छलांगें मारती है, कभी इधर, कभी उधर, किसी चीते या हिरन की तरह, या अंधेरे में किसी जुगनू की तरह. स्वामी की सोच बीच-बीच में काफ़ी-काफ़ी देर के लिए सो जाती है, शायद हमें लगता है कि वह सो गई है लेकिन वह आंख मूंदे चुप मार कर पड़ी हुई होती है.
स्वामी गंभीर तो है, गांभीर्यग्रस्त नहीं. उसकी कई तस्वीरें कई तरह की शरारतों और शैतानियों से खेलती हुई महसूस होती है, स्वामी रंगों और रेखाओं से उसी तरह खेलता है, जिस तरह कुछ लेखक अपने शब्दों और प्रतीकों से, कुछ गायक अपने स्वर-ताल से, कुछ अभिनेता अपनी अदाओं-मुद्राओं से.
मुझे उसके पहले दौरे की एक तस्वीर याद आती है जिसमें पीपल का एक पेड़ है और नीचे लिखा हुआ है: We the Pepul या शायद ऐसा ही कुछ. मेरी याद निर्दोष नहीं. स्वामी की तस्वीरों के सामने खड़े-खड़े मैं अक्सर कुमार गंधर्व और मल्लिकार्जुन मंसूर का गायन सुनने लगता हूं. इन तीनों असाधारण कलाकारों का साम्य असाधारण है. ये तीनों कलाकार निर्दोष नहीं. निर्दोषता का अभाव इन तीनों का एक असाधारण गुण है.
स्वामी एक डूबा हुआ कलाकार है. नहीं. डुबाता हुआ. ऐसा जिसे किसी तिनके का सहारा न हो, जो ख़ुद किसी तिनके-सा हो, जो इसीलिए डूबता हुआ भी तैरता दिखाई देता है. अपने उन बाल-पर-हीन परिंदों की तरह जो ख़ुद कभी-कभी तिनकों से नज़र आते हैं. हवा में तैरते हुए तिनके. पहाड़ों को उड़ा ले जाते हुए तिनके, डूबते हुओं के सहारे तिनके.
स्वामी निर्दोष नहीं. ख़तरे मोल लेनेवाला कोई कलाकार निर्दोष नहीं होता. अपने माध्यम से खेलने वाला कोई कलाकार निर्दोष नहीं होता. अपने माध्यम से संभावनाओं का विस्तार करने वाला, उन्हें उनके अंतिम छोर से भी आगे ले जाने की कोशिश करने वाला कोई कलाकार निर्दोष नहीं होता. उसके दोष भी देखने वालों को उसके गुण दिखाई देते हैं.
स्वामी की कई तस्वीरों को देख मुझे लगता है जैसे वे अपूर्ण हों, जैसे स्वामी उन्हें बीच में ही छोड़कर ख़ुद कहीं और जा बैठा हो, अपने किसी अड्डे पर, अपने किसी यार दोस्त के पास, या कोई जासूसी नॉवेल पढ़ने लेट गया हो, या अपना कोई किस्सा सुनाने कहीं निकल गया हो. अपूर्णता का यह आभास अद्भुत है. दीदा-दानिस्ता अपूर्णता का भी और दूसरी मासूम निरीह अपूर्णता का भी.
वैसे स्वामी मासूम और निरीह कम ही होता है, कभी-कभी ऐसा होने का भ्रम भले ही पाले या पैदा करे. स्वामी जैसा दिमाग़ी कलाकार मासूम और निरीह नहीं हो सकता. यह अलग कमाल है कि उसके दिमाग़ में दिल मौजूद रहता है, और दिल में दिमाग़. कभी-कभी कहीं-कहीं दिल और दिमाग की पारस्परिक दख़लअंदाज़ी स्वामी की तस्वीरों को दो परस्पर विरोधी दिशाओं में धकेलती हुई नज़र आती है. वे तस्वीरें निर्दोष नहीं, अति-महत्वपूर्ण हैं. कई बार निर्दोष तस्वीरें महत्वपूर्ण नहीं होतीं.
स्वामी को रूमानियत से मोह था. उसे जिगर बहुत प्रिय था. कभी-कभी वह अपने कुछ दोस्तों को चिढ़ाने के लिए भी अपने आपको एक रूमानी कलाकार घोषित किया करता था. लेकिन वह रूमानी कलाकार नहीं. उसमें कला का संयम है, इंतहाई austerity है. वह अपनी तस्वीरों का स्वामी है. ऐसा नहीं कि उसमें उबाल नहीं. ख़तरे मोल लेने वाले कलाकार का संयम ख़तरों से कतराने वाले कलाकार से भिन्न तो होगा ही.
नहीं, स्वामी रूमानी कलाकार नहीं. उसकी तस्वीरों में सौंदर्य तो है, सुंदरता नहीं, सुंदरता से परहेज है. स्वामी कहा करता था, कला को सुंदरता से कोई वास्ता नहीं. या ऐसा ही कुछ. मेरी याद निर्दोष नहीं. स्वामी की तस्वीरों का सौंदर्य सुंदरता का मोहताज नहीं. स्वामी की तस्वीरों की कोमलता भी कठोर है, खुरदरी है, कंकरीली है, उसकी आवाज़ की ही तरह. स्वामी के रंगों में रेत मिली महसूस होती है. रेत ही क्यों, गोबर और मल भी, मिट्टी और मूत भी. उसकी कैनवस दानेदार होती है.
थोड़ी देर के लिए मैं उसके दूसरे दौरे की पहाड़, परिंदा, पेड़, तस्वीरों को ताक पर रख रहा हूं, उन्हें कुछ देर बाद उठाऊंगा.
स्वामी के रंगों में बहुत कुछ ऐसा होता है जो दूसरों के रंगों से ग़ायब रहता है, जो बाज़ार में नहीं मिलता, जो स्वामी ने अपनी प्रयोगशाला में ख़ुद तैयार किये हैं, जो ’सुंदर’ नहीं, जिनमें खुरदरापन है, वैसा ही जैसा स्वामी के कुरतों में होता था. स्वामी के रंगों में आलोक तो है, बहुत है, चमक-दमक नहीं. उसके पीले को उसका काला आलोकित करता है, काले को पीला, दोनों को उसका लाल, तीनों को उसका भगवा, चारों को उसका भूरा जो दरअसल भूरा नहीं, पांचों को उसका नीला, जो दरअसल नीला नहीं, और छहों को उसका सफ़ेद जो दरअसल सफ़ेद नहीं.
नहीं, स्वामी रूमानी कलाकार नहीं. उसकी रेखाएं जानबूझकर लड़खड़ाती हैं, उसके त्रिकोण जानबूझकर कर टेढ़े हैं, उसके फ्रेम जानबूझ कर तिरछे हैं, उसकी बिंदिया जानबूझकर खूनी धब्बे, उसके अक्षर, पाज़ के शब्दों में, नाराज़.
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स्वामी का काम तीन दौरों में-से गुज़रा, या कहूं कि उस पर तीन दौरे पड़े.
उसके पहले दौरे का काम मैंने कम देखा है. जितना देखा है वह मुझे कुछ ज्यादा कहने का आधार-अधिकार नहीं देता. इतनी आसानी से कह सकता हूं कि उसमें स्वामी अपने को तोलता हुआ दिखाई देता है. यह बात शायद बहुत से कलाकारों के शुरू के काम के बारे में कही जा सकती है, इसलिए इसे भूल जाइए, अनकही समझ लीजिए.
दूसरे दौरे में स्वामी उड़ना शुरू कर देता है.
परिंदा. पहाड़. पेड़.
परिंदे और पहाड़ की युगलबंदी के कमाल अजीबोगरीब हैं.
इस युगलबंदी को सुनता हुआ पेड़. और तुलसी का पौधा. और अथाह आकाश.
पहाड़ की पीड़ा में से फूटता हुआ पेड़.
पहाड़ को प्रतिबिंबित करता हुआ पहाड़. परिंदे से बरसता हुआ परिंदा.
परिंदे के पैरों को चूमता हुआ पहाड़. परिंदे के पैरों को चूमने के लिए हुमकता हुआ
पहाड़.
पहाड़ से पीछा छुड़ाता हुआ परिंदा. परिंदे का पीछा करता हुआ पहाड़.
पहाड़ को दुत्कारता हुआ परिंदा, परिंदे को पुचकारता हुआ पहाड़.
पहाड़ पर टूटता हुआ परिंदा,
पहाड़ को ले उड़ता हुआ परिंदा.
उड़ने से इनकार करता हुआ पेड़.
यह परिंदा असल में पेड़ है. यह पेड़ असल में कुछ भी नहीं. ये तीनों असल में सब कुछ हैं. जड़ और चेतन. आत्मा और परमात्मा. धरती और आकाश. नर और नारी. तीसरे का क्या किया जाए?
स्वामी के इस दौरे के काम की कोमलता में भी कठोरता है, मुझे दिखाई देती है. हो सकता है यह मेरा ही दृष्टिकोण हो. मेरी दृष्टि निर्दोष नहीं. लेकिन मैं दोहराना चाहता हूं कि इन तस्वीरों में भी स्वामी रूमानी नहीं, पूरी तरह रूमानी नहीं.
इन तस्वीरों का कमाल यह है कि ये नंगी हैं, इनकी कमी यह है कि इन्हें देखकर महसूस होता है मानो स्वामी कोई या कई उपदेश दे रहा हो वैराग्य का, उड़ने का, मोक्ष का, अद्वैत का. इनमें भी यह खूबी तो है ही कि ये हमारी आंखों में यह शक पैदा कर देती हैं कि उपदेश स्वामी नहीं दे रहा, हम ले रहे हैं.
इन तस्वीरों में स्वामी की जिद्द साफ़ दिखाई देती हैः तुम इन्हें allegorical मानते हो तो मानो, मैं तो एक मिथ को ही मथ रहा हूं, तुम इनसे ऊब गए हो तो यह तुम्हारी समस्या है, मैं जो करना चाहता हूं तब तक करता रहूंगा जब तक मुझे ख़ुद महसूस नहीं होता, अब और नहीं.
ये तस्वीरें तनावमुक्त भले ही नज़र आएं, हैं नहीं.
इनसे हमें शांति भले ही मिले, ये ख़ुद अशांत हैं.
इनमें भी स्वामी अपनी क्षमताओं की आजमाइश कर रहा है, अपनी सीमाओं को तोड़ने की कोशिश कर रहा है.
इस दौर की सबसे कठिन और सशक्त कृति है स्वामी का शाहकार, शाही, जिसे खड़ा करने का साहसपूर्ण चमत्कार शायद स्वामी ही कर सकता था, और कोई भारतीय चित्रकार नहीं.
शाही उड़ भी रहा हैं, टिका भी हुआ है.
सारे परिंदे शाही में समाहित हो गए हैं, सारे पहाड़ उस चट्टान में जिसपर टिका हुआ शाही उड़ता हुआ नज़र आता है.
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शाही के बाद स्वामी के काम पर आखि़री दौरा पड़ता है. इस दौरे की शुरुआत शाही की रचना के दौरान ही हो गई थी. शाही स्वामी की कला-संबंधी सोच-समझ-सनक की भी उपज है और उसके आत्मानुभव और आत्मालोचन की भी. उसके आखि़री दौरे की तस्वीरों में स्वामी की साधना का निचोड़ है.
स्वामी मानता था- सभी कलाकार मानते हैं कि कला में प्रगति नहीं होती. उसकी अपनी कला में भी प्रगति की तलाश सही नहीं. लेकिन इतना ज़रूर है कि अपने अंतिम वर्षों में स्वामी जिस सुलझे हुए पागलपन से काम कर रहा था, वह आश्चर्यजनक था क्योंकि शायद ही उसने पहले कभी इतने वर्षों तक वैसी शिद्दत और दीवानगी से इतना ज़्यादा और इतना गहरा काम किया हो.
इस अंतिम आयाम की तस्वीरों का मटमैला आलोक.
मेरे घर में स्वामी के इस दौर-दौरे की एक तस्वीर है जिसे मैं अंधेरे में देखता हूं तो वह और साफ़ दिखाई देती है.
इन तस्वीरों से प्रकाश फूटता है जैसे.
इन तस्वीरों में मुझे लगता है स्वामी ने गोबर का प्रयोग भी किया है, भले ही वह गोबर स्वामी ने ख़ुद बनाया हो.
इन तस्वीरों के त्रिकोणों और रेखाओं और अक्षरों में कहीं न कहीं मुझे स्वामी स्वयं बैठा-लेटा-गिरा-पड़ा दिखाई देता है. शाही में ही. दूसरे परिंदों में नहीं.
इन तस्वीरों को देखते समय मेरी याद में अंकित स्वामी की वह क़ातिलाना आकृति आलोकित हो उठती है.
इन तस्वीरों को देखते समय मुझे दूशां (Duchamp), क्ले (Klee), शैलोज मुखर्जी, रॉथ्को (Rothko), अम्बादास, गायतोण्डे, मुन्ख (Munch) और किरिको (Chirico) की तस्वीरें याद आती हैं.
स्वामी एक अतिसचेत कलाकार था. उसकी स्लेट शायद ही कभी कोरी रही हो.
उसके काम को देखकर दूसरों का काम याद आए तो कोई हरज नहीं. स्वामी के अंतिम दौर-दौरे की तस्वीरों में आदिवासी रंग-रेखाएं तो दिखाई देती ही हैं उसके अनेक अन्य आधुनिक पूर्वजों और समकालीनों की झलक भी दिखाई पड़ती है. यह झलक स्वामी की अद्वितीयता को किसी रूप में कम नहीं करती.
स्वामी को मेरा नीला सलाम!
(‘स्वामीनाथन, एक अवलोकन’, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली (1995) से साभार.)