लेखक, कलाकारों की मांग- अरुंधति रॉय व शेख़ शौक़त हुसैन पर दर्ज यूएपीए केस की मंज़ूरी वापस ली जाए

दिल्ली के एलजी ने 14 साल पुराने एक मामले में लेखक अरुंधति रॉय और कश्मीर यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर शेख़ शौकत हुसैन के ख़िलाफ़ यूएपीए केस चलाने की मंजूरी दी है. अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान 'हम देखेंगे' का कहना है कि यूएपीए का इस्तेमाल राजनीतिक असहमति को कुचलने के लिए किया जा रहा है.

अरुंधति रॉय. (फोटो साभार: Wikimedia Commons/Vikramjit Kakati)

नई दिल्ली: अरुंधति रॉय और शेख शौकत हुसैन के खिलाफ गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए) के इस्तेमाल का अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान ‘हम देखेंगे’ ने विरोध किया. साथ ही यूएपीए सहित इस तरह के कानूनों को रद्द करने की मांग कीउठाई है.

अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान ‘हम देखेंगे’ देश के प्रमुख साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों का साझा मंच है. यह मुख्यतः उत्तर भारत में 2016 से सक्रिय है.

मालूम हो कि बीते 14 जून को दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति रॉय और कश्मीर सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर शेख़ शौकत हुसैन के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की धारा 45 के तहत मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है.

29 नंवबर, 2010 को रॉय और हुसैन के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के मामले में एफआईआर दर्ज की गई थी और हालिया अनुमति उसी के संबंध में दी गई है.

अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान ने एक बयान जारी कर कहा है, ‘हम देश भर के लेखक, पत्रकार, कलाकार और बुद्धिजीवी दुनिया भर में सम्मानित लोकप्रिय भारतीय लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर शेख शौकत हुसैन के खिलाफ दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा दमनकारी यूएपीए कानून के तहत मुकदमा चलाने की इजाजत देने के फ़ैसले से आक्रोशित हैं. हम इसके विरुद्ध दुनिया भर के लेखकों कलाकारों के प्रतिवाद को संगठित करने का संकल्प लेते हैं.’

बयान में कहा, ‘यह मामला 14 साल पहले 2010 में दिल्ली में कश्मीर मसले पर हुए एक सम्मेलन में हुई चर्चा से संबंधित है जिसका शीर्षक था: आजादी- द ओनली वे. आजादी का लफ्ज़ आते ही हिंदू राष्ट्र-वादी जमात को देशद्रोह की ललकार सुनाई देने लगती है. सच्चाई यह है कि भारतीय लोकतंत्र आजादी की एक गौरवशाली लड़ाई से उपजा है.’

इसमें कहा गया है, ‘आजादी हमारे संविधान का सर्वोच्च मूल्य है. भारतीय संघ आजादी और लोकतंत्र के मूल्यों के आधार पर ही संगठित हुआ है. सभी नागरिकों और समाजों के लिए लोकतांत्रिक आजादियों की गारंटी करना इसका उद्देश्य है. देश की तमाम समस्याओं को हल करने की राह एकमात्र इन्हीं आजादियों की गारंटी से निकलती है. हम यह नहीं भूल सकते कि कश्मीर की अवाम ने भारत के साथ आने का फैसला आजादी, बराबरी, भाईचारा और धर्मनिरपेक्षता के उन मूल्यों के आधार पर ही लिया था, जो हमारी आजादी की लड़ाई की देन थे.’

मंच का कहना है कि ऐसी आजादियों को प्रतिबंधित करने या उनमें कटौती करने की हर कोशिश भारतीय लोकतांत्रिक राज्य को कमजोर करने की कोशिश है. लोकतंत्र की बुनियाद यही है कि हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी मिलनी चाहिए चाहे उसकी बात बहुमत के कानों के लिए कितनी ही अप्रिय हो.

बयान में कहा है कि यूएपीए एक ऐसा कानून है जो लोकतंत्र की इसी बुनियाद पर प्रहार करता है. इतना ही नहीं, यह कानून आधुनिक न्याय की समूची अवधारणा को सर के बल खड़ा कर देता है. न्याय का तकाज़ा यह है कि किसी आरोपित व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाए जब तक उसे पर आरोप सिद्ध नहीं होता. साथ ही आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी आरोप लगाने वाले पर होती है. अगर ऐसा न हो तो शक्तिशाली लोग संस्थाएं और सरकारें कानूनी ढंग से अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दंडित और प्रताड़ित करने का अधिकार पा जाएंगी. यूएपीए कानून ठीक ऐसा ही करता है.

इसमें ये भी कहा गया है कि 2019 के संशोधन के बाद यह कानून सरकार को यह शक्ति भी प्रदान करता है कि वह चाहे तो किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर सकती है. चाहे उस व्यक्ति का किसी आतंकवादी राजनीतिक समूह से कोई संबंध न हो, चाहे उसने कभी किसी हिंसक घटना में भाग न लिया हो और चाहे उसके किसी भी कार्य से कहीं कोई हिंसा न हुई हो, सरकार महज संदेह के आधार पर उसे आतंकवादी घोषित कर सकती है. ऐसी घोषणा के बाद स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी भी आरोपित व्यक्ति पर ही होती है, भले ही पुलिस उसे पहले ही गिरफ्तार कर चुकी हो.

बयान में भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद मामले, जीएन साई बाबा, कोबाड गांधी, बिनायक सेन, अखिल गोगोई, उमर खालिद जैसे कई लोगों का उल्लेख करते हुए कहा, ‘इन सभी उदाहरणों से यह साफ हो जाता है कि यूएपीए का इस्तेमाल प्रायः राजनीतिक असहमति को कुचलने के लिए किया जा रहा है.’

इसमें आगे कहा गया है कि इसके अलावा आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यक समुदायों की न्याय की मांग का दमन करने के लिए ठीक उसी तरह यूएपीए कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है जैसे कुछ समय पहले पोटा कानून का किया जा रहा था.

बयान में कहा कि जनता के दबाव में एक लंबी राष्ट्रीय बहस के बाद पोटा कानून को निरस्त करना पड़ा था, लेकिन शासक वर्ग ने यूएपीए के रूप में पोटा का अधिक खूंखार संस्करण ढूंढ निकाला है. बेहद चिंता की बात यह है कि यूएपीए के कई आपत्तिजनक प्रावधानों को नई भारतीय न्याय संहिता में भी शामिल कर लिया गया है.

इसमें मांग की गई है कि अरुंधति रॉय और शेख शौकत हुसैन पर यूएपीए लगाने की इजाजत वापस ली जाए. भीमा कोरेगांव मामले, दिल्ली दंगे मामले और दीगर मामलों में यूएपीए जैसे कानूनों के तहत गिरफ्तार किए गए सभी लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों और कर्मकर्ताओं को रिहा करते हुए उनके मामलों की सुनवाई सामान्य कानूनों के दायरे में की जाए. विश्वविद्यालयों और शिक्षा- संस्थानों में लोकतांत्रिक परिवेश बहाल किया जाए.