नई दिल्ली: पचास वर्षीय गीता देवी को दिल्ली के फुटपाथ पर रहते हुए एक दशक से भी अधिक समय हो गया. उनका वर्तमान पता है- देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स के फुटपाथ पर तना तिरपाल.
वह और उनके पति यहां करीब दो साल से हैं. 2022 के आखिर में डॉक्टर ने उन्हें कैंसर की बीमारी बताई थी. उसके बाद से उनका इलाज एम्स में शुरू हुआ और उन्होंने यहाँ डेरा बना लिया. इससे पहले वे सराय काले खां के करीब रहती थीं, जहां पति-पत्नी दिहाड़ी मजदूरी करते थे.
द वायर से बात करते हुए वह कहती हैं कि दुनिया में उनका कोई नहीं है- न रिश्तेदार, न कोई मददगार. बस फुटपाथ पर बसर करने वाले कुछ साथी हैं, और सभी ज़िंदा रहने की जंग लड़ रहे हैं. ‘मेरी ज़िंदगी कुछ दिनों की है लेकिन ईश्वर ने इसे भी मुश्किल बना दिया है,’ वह कहती हैं. भीषण गर्मी रोज़ उनका इम्तिहान ले रही है.
एम्स के आस-पास सैकड़ों बेघर लोग फुटपाथ परअपना जीवन बसर करने को मजबूर हैं, जिनकी स्थिति भीषण गर्मी से बिगड़ती जा रही है.
सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट नामक एक ग़ैर सरकारी संस्था के अनुसार दिल्ली की सड़कों पर गुज़र बसर करने वालों की संख्या लाखों में है. संस्था ने शोध किया है कि दिल्ली की सड़कों पर बीते एक दशक में कुल 30,731 अज्ञात शव मिले हैं, जिनमें 80 प्रतिशत बेघर थे.
गौरतलब है कि इस वर्ष 1 मई से लेकर 19 जून तक 789 अज्ञात शव मिले हैं, मई में 441 और जून में 348. इसके बरअक्स जनवरी में 306, फरवरी में 231, मार्च में 284 और अप्रैल में 292 अज्ञात लोगों की मौत हुई थी. इससे आकलन लगा सकते हैं कि इन दो महीनों में मृत्यु दर में हुई आकस्मिक वृद्धि की वजह भीषण गर्मी है.
इस संस्था के संस्थापक सुनील कुमार आलेडिया बताते हैं कि उन्होंने अप्रैल के आखिर में ही दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड को पत्र लिखकर बेघर लोगों की स्थिति से अवगत करवाया था, लेकिन इसे बिल्कुल गंभीरता से नहीं लिया गया और यही कारण है कि दिल्ली की सड़कों पर 11जून से 19जून के बीच 192 लोगों की जान चली गई.
सुनील कुमार बताते हैं कि उन्होंने दिल्ली सरकार के मंत्री सौरभ भारद्वाज से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) को भी पत्र लिखे हैं, लेकिन सरकार ने इन बेघरों के लिए कुछ नहीं किया.
दिल्ली सरकार इस समय स्थाई और अस्थाई कुल 343 रैन बसेरे चला रही है, जो करीब 20 हज़ार से अधिक लोगों को रहने की जगह देने का दावा करते हैं. हालांकि ये रैन बसेरे खचाखच भरे हुए हैं और सरकारी मानकों का खुलेआम उल्लंघन करते हैं.
सुनील कुमार के मुताबिक, ‘मानकों के हिसाब से शहर में एक लाख की आबादी पर एक शेल्टर होम, यानी एक हज़ार स्क्वायर मीटर की स्थाई बिल्डिंग होनी चाहिए. उस मानक पर दिल्ली में सिर्फ तीन या चार शेल्टर होम हैं. स्थाई बिल्डिंग सरकार के पास 82 हैं. दिल्ली में आश्रय गृहों के नाम पर 103 पोर्टा केबिन टीन के स्ट्रक्चर हैं, जो इस भीषण गर्मी में आग की भट्टी बने हुए हैं.’
दरअसल शहरी आश्रय सुधार बोर्ड सिर्फ बिल्डिंग बना देता है, वह नहीं देख पाता कि इस समय किसी भी शेल्टर होम में बिजली,पानी की उचित सुविधा नहीं है. ‘इन 343 रैन बसेरों में क्या वाकई 20 हज़ार लोग रह भी सकते हैं?’ सुनील कुमार कहते हैं और जोड़ते हैं कि सरकारी आंकड़ों में अतिश्योक्ति हुई है.
सुनील उदाहरण देते हुए बताते हैं, ‘दिल्ली गेट के शेल्टर होम की क्षमता 150 बताई जाती है, लेकिन बिल्डिंग का एरिया 3229.28 स्क्वायर फीट है, जिसमें मात्र 65 लोग आ सकते हैं. इसके अलावा हिम्मतगढ़ शेल्टर होम का एरिया 370 स्क्वायर फीट है, जिसकी कैपेसिटी 20 बताई जाती है, लेकिन इसमें 8 लोग भी मुश्किल से ही आ पाएंगे.’
इस भंयकर गर्मी में नेहरू प्लेस, ग्रेटर कैलाश और सराय काले खां शेल्टर होम्स की बुरी स्थिति है. पंखे तक की सही व्यवस्था नहीं है. यहां बांस पर एग्जॉस्ट फैन को ‘जुगाड़’ से लटकाया गया है, जो कभी भी गिर जाए, तो किसी की जान तक जा सकती है. कई रैन बसेरों में खाट और बिस्तर की कोई सुविधा नहीं है, लोग जमीन पर सोने को मजबूर हैं और हवा के लिए प्लास्टिक हाथ वाले पंखे हिला रहे हैं. कुछ जगह शेल्टर होम इतनी जर्जर हालत में हैं कि यहां के लोगों को दिन में कहीं बाहर पेड़ या बस स्टॉप का सहारा लेना पड़ता है.
गैर सरकारी संगठन आश्रय अधिकार से पूर्व में जुड़ी सविता सिंह द वायर को बताती हैं कि कश्मीरी गेट और यमुना के पुस्ता के नजदीक सबसे ज्यादा बेघर लोग रहते है. हर साल कश्मीरी गेट थाने में सबसे ज्यादा बेघरों की मौतें दर्ज की जाती हैं. लेकिन सरकारी महकमे के किसी कर्मचारी को इनकी कोई सुध नहीं है. बस गैर सरकारी संस्थाएं और कुछ भले लोग हैं, जिनके सहारे ये लोग खुले आसमान के नीचे भी अपना गुजर-बसरकर पा रहे हैं.
सविता के अनुसार, ‘सड़क पर ज्यादातर वो लोग हैं जो अपना पेट पालने के लिए हर रोज़ कड़ी मेहनत करते हैं. जैसे कूड़ा बीनना,शादी या समारोह में प्लेट साफ करना, दिहाड़ी मज़दूरी, घरों से कबाड़ इकट्ठा करना आदि.’
पंचशील फ्लाईओवर के नीचे अपना गुजर-बसर करने वाले राजेश बताते हैं कि उन्हें यहां रहते हुए करीब पांच साल हो गए. वे इससे पहले पश्चिमी दिल्ली में अपनी पत्नी और एक बेटे के साथ रहते थे. राजेश लोगों के घरों में नाली साफ करते हैं और दोपहर बाद कूड़ा चुनते हैं. इससे उनकी एक दिन की आमदनी करीब 200-300 रुपये हो जाती है. लेकिन ये दिल्ली में किराए के घर के लिए पर्याप्त नहीं है.
राजेश कहते हैं, ‘पुलिस कई बार हमें हटा देती है. जी-20 के समय तो हम लोगों का सामान भी फेंक दिया था. हम लोग कहां जाएं.’
राजेश की तरह ही दीपक भी यहां कई सालों से अपने मां-बाप के साथ रह रहे हैं. उनके पिता दिल्ली काम की तलाश में आए थे, लेकिन यहां कुछ ढंग का काम नहीं मिला तो सरकारी प्रोजेक्ट में मजदूरी का काम करने लगे. इसके मद्देनजर कि दिल्ली में बीते 36 घंटों में 34 लोगों ने भीषण गर्मी के चलते अपनी जान गंवा दी है, ऐसे कई लोगों का जीवन खतरे में है.