निरंतर हादसों से जूझते भारतीय उनकी ज़िंदगी को दूभर बनाती राजनीति के साथ क्यों खड़े हैं?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति ने एक बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदार अर्थव्यवस्था को पोसा-पनपाया है जिसके लिए सामान्य नागरिक की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

मानसून को शुरू हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं कि अच्छे दिन बरसने लगे. हाल ही ख़बर छपी है कि बिहार में एक पखवाडे़ में नौ पुल ढह गए. उस प्रदेश में पुलों ने ढहने का रिकॉर्ड ही बना दिया है. पिछले दिनों दिल्ली हवाईअड्डे के टर्मिनल एक की छत गिर पड़ी: कई घायल हुए, एक अभागे व्यक्ति की मौत हो गई. दिल्ली में पहली घोर बारिश में कई प्रमुख सड़कों पर पानी भर गया, बहकर बहुत सा कीचड़ आ गया. किदवई नगर में बने नए मकानों के नीचे तालाब बन गए हैं. गुजरात राजकोट हवाईअड्डे पर उसकी कैनोपी  गिर गई.

बारिश ने राम को भी सूखा-अनछुआ नहीं छोड़ा है. अयोध्या का राम मंदिर उसकी चपेट में है. मंदिर जाने वाले ‘दिव्य राम मार्ग’ पर 19 गड्ढे उभर आए, पानी भर गया है. मंदिर की छत लगातार टपक रही है. अयोध्या स्टेशन पर बनी एक नई दीवार ढह गई है. अयोध्या में न्यायालय के लिए बनी एक बहुमंज़िला इमारत में तीन लिफ्ट एक साथ गिर गईं.

दिल्ली में प्रगति मैदान के नीचे से निकलने वाला अंडरपास फिर बंद कर दिया गया है क्योंकि उसमें पानी भर गया है. हमें याद है कि कुछ महीनों पहले गुजरात के किसी शहर में एक नवनिर्मित पुल ढह गया था और कई लोग मारे गए थे.

अगर इन सब दुर्घटनाओं को एक साथ रखकर देखें तो कुछ सामान्य बातें उभरकर सामने आती हैं.

पहली, ये सभी सार्वजनिक धन से बनाई जा रही आधारभूत संरचना का हिस्सा हैं.

दूसरी, इनमें से कई का बहुत दिखाऊ उद्घाटन सत्ता के शीर्ष पर बैठे राजनेताओं ने किया था.

तीसरी, ये सब, लगता है, उद्धाटित होने की हड़बड़ी में बनाए गए हैं और उनमें ज़रूरी सावधानियां नहीं बरती गईं.

चौथी, ये सभी ख़राब इंजीनियरी और ख़राब कारागरी के काले नमूने हैं.

पांचवी, सभी सत्तारूढ़ राजनीति, नौकरशाही, इंजीनियरों और ठेकेदारों के भ्रष्ट गठबन्धन के ताज़ा उदाहरण हैं.

छठवीं, भ्रष्टाचार, जल्दबाजी, अक्षमता और सार्वजनिक धन का अपव्यय मंदिर, सड़क, नदी, हवाई अड्डों, नए आवास परिसर आदि सब तक फैले हुए हैं.

सातवीं, यह सारा कदाचरण, यह ढहना-टपकना-अपव्यय धीरे-धीरे एक उत्तर भारतीय, हिंदी आंचलिक परिघटना बनते जा रहे हैं.

हस्बे मामूल इन सभी दुर्घटनाओं पर जांच समितियां नियुक्त होंगी जिनकी रपटें इतनी देर से आएंगी कि हम इन हादसों को भूल चुके होंगे. क्या अबोध लोगों के, किसी बेहद कमज़ोर बहाने से, घर बुलडोज़ करने वाले इन राजनेताओं, इंजीनियरों और नौकरशाहों, ठेकेदारों के घरों को ज़मींदोज़ करने की हिम्मत दिखाएंगे?

क्या रामभक्त मांग करेंगे कि अयोध्या में होने वालों हादसों के प्रभारियों को निलंबित कर उनकी संपत्ति ज़ब्त कर ली जाए? आप कह सकते हैं कि यह किस क़ानून के तहत किया जा सकता है? तो उत्तर प्रदेश में लगातार बुलडोज़िंग क्या किसी क़ानून के तहत की जाती रही हैं. वह जंगली ग़ैर-क़ानून लगाने का पूरा औचित्य इन मामलों में है.

यह तब हो रहा है जब दावा किया जा रहा है कि बुनियादी संरचना के क्षेत्र में हमने बड़ा विकास किया है. मामला सिर्फ़ पुलों-सड़कों तक सीमित नहीं है. एक सरकारी रिपोर्ट आई है जिसमें देश में दो लाख से अधिक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा इकाइयों का सर्वेक्षण और आकलन किया गया है. इनमें ज़िला अस्पतालों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आदि सभी शामिल हैं. रिपोर्ट में यह नतीजा सामने आया है कि इन सुविधाओं में से 80 प्रतिशत निर्धारित औसत से नीचे हैं. तो यह हालत है स्वास्थ्य संरचना की.

संरचना की इन कमियों और हादसों से प्रतिकूल ढंग से प्रभावित लोग फिर क्यों धर्म और सांप्रदायिकता की चपेट में आकर उस राजनीति का समर्थन करते हैं जो उनकी ज़िंदगी को लगातार दूभर बना रही है? इस राजनीति ने एक बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदार अर्थव्यवस्था को पोसा-पनपाया है जिसके लिए सामान्य नागरिक की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है.

एक और भ्रष्टाचार 

हमारे देश में तरह-तरह की परीक्षाओं का एक बड़ा जंजाल फैला हुआ है. हालत ये है कि युवा लोग एक के बाद एक या एक साथ कई परीक्षाओं की तैयारी करते रहते हैं जिसमें समय, ऊर्जा, धन आदि सभी लगातार खर्च होते रहते हैं और छात्रों और उनके परिवारों पर बहुत भौतिक, वित्तीय और मनोवैज्ञानिक बोझ पड़ता रहता है.

हमारे ज़माने में हायर सेकेंड्री परीक्षा की बड़ी मान्यता थी. उसके आधार पर आगे की शिक्षा के लिए संस्थानों में दाखि़ले की पात्रता हो जाती थी. फिर व्यावसायिक यानी तकनीक प्रोफ़ेशनल कोर्सों के लिए हर राज्य में एक और परीक्षा की व्यवस्था शुरू हुई. आगे चलकर हायर सेकेंड्री बोर्ड की परीक्षा की मान्यता घटती चली गई और अब उसके आधार पर कहीं दाखिला नहीं मिलता.

अब विश्वविद्यालय, व्यावसायिक संस्थान आदि सभी परीक्षाएं लेने लगे हैं. फिर इस जंजाल को कम करने के लिए केंद्रीय परीक्षाएं शुरू की गईं. उन्हीं में से एक नीट में भारी घोटाले की ख़बर आई है जिससे लाखों छात्रों का भविष्य ख़तरे में पड़ गया है. यूजीसी को अपनी एक अखिल भारतीय परीक्षा घोटाले की आशंका से स्थगित करना पड़ी है. उससे भी लाखों छात्र प्रभावित हैं.

नीट का काम एक बोर्ड देखता है जिसके कुख्यात अध्यक्ष अभी तक निरापद बने हुए हैं. जांच करने के लिए इन्हीं महोदय की अध्यक्षता में एक जांच समिति बना दी गई है. एक और समिति सुधार सुझाने के लिए बना दी गई है. संसद में इस मुद्दे पर चर्चा की अनुमति नहीं दी जा रही है. यह सुशासन और जवाबदेही का नायाब नमूना है.

फिर संरचना का प्रश्न है: वह बेहद खर्चीली तो बना दी गई है पर सूक्ष्म और विश्वसनीय नहीं. वह भी ढह रही, टपक रही है. लाखों युवाओं के भविष्य से ऐसी खिलवाड़ क्या अदंडनीय जाएगी, वह भी लोकतंत्र में?

अरुंधति राय

दिल्ली के उपराज्यपाल ने लेखक-बुद्धिजीवी अरुंधति राय के अभियोजन की क़ानूनी अनुमति दे दी है. यह वही उपराज्यपाल हैं जो दिल्ली की चुनी हुई सरकार के रास्ते हर दिन रोडे़ अटकाते रहते हैं.

अरुंधति राय एक श्रेष्ठ भारतीय कथाकार और प्रखर-निडर बुद्धिजीवी हैं जिनका पूरी दुनिया में बहुत सम्मान है. वे पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीतिक सत्ता की तीख़ी पर सुचिंतित आलोचना करती रही हैं जो कि एक भारतीय नागरिक होने के नाते उनका संवैधानिक अधिकार है.

कई तरह से ऐसा करना, उनके लेखक और बुद्धिजीवी होने के नाते, नैतिक कर्तव्य भी है. यह आलोचना भारतीय संविधान और लोकतंत्र का एक तरह से सत्यापन भी है. ऐसी आलोचना को वर्तमान निज़ाम लगभग अपराध मानता रहा है और राज्यपाल इसी मानसिकता के प्राणी भर हैं.

अरुंधति राय को इनकी साहसिकता के लिए बहुप्रतिष्ठित पेन का पिंटर पुरस्कार मिला है और संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार से संबद्ध इकाई ने भारत सरकार से राय के विरुद्ध कार्रवाई न करने का आग्रह किया है.

यह विडंबना है कि जिस प्रखरता और निर्भीक आलोचना के लिए दुनिया भर में राय का सम्मान किया जा रहा है उसी प्रखरता-निर्भीकता-आलोचना के लिए, विश्वगुरु बनने का सपना देखता भारत दंडित कर रहा है. वर्तमान राज्यपाल जब इतिहास के कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रहे होंगे तब अरुंधति राय का नाम देशकाल के पार चमकता होगा: राज्य अलक्षित करे पर लोक में अरुंधति साहस-निर्भयता की एक स्मरणीय शबीह बनी रहेंगी.

अपने लोकतंत्र के जिस मुक़ाम पर अब हम हैं, उस पर यह ज़रूरी है कि लेखकों-बुद्धिजीवियों-कलाकारों का समुदाय अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इस नए हमले का सख़्त और मुखर विरोध करे.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)