देश में बढ़ती बेरोजगारी का मुख्य कारण शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा है: अमर्त्य सेन

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा है कि यूरोप, जापान और चीन जैसे देशों को बेरोजगारी की समस्या का सामना इसलिए नहीं करना पड़ा क्योंकि उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित किया. एक शिक्षित और स्वस्थ व्यक्ति ख़ुद को नौकरी के योग्य बनाने के लिए अधिक प्रयास कर सकता है. भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति चिंता का विषय है.

नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स/CC-BY-SA-2.0)

नई दिल्ली: नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने शनिवार (6 जुलाई) को भारत में बढ़ती बेरोजगारी के लिए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है. बोलपुर (पश्चिम बंगाल) में मीडिया से बातचीत के दौरान एक सवाल के जवाब में सेन ने कहा कि भारत की बेरोजगारी के पीछे मुख्य कारण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की उपेक्षा है.

सेन की टिप्पणी उनके अक्सर दोहराए जाने वाले विचार को रेखांकित करती है कि मानव विकास में सुधार के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होनी चाहिए. निजी शोध संगठन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में बेरोजगारी दर इस साल मई में 7 प्रतिशत से बढ़कर जून में 9.2 प्रतिशत हो गई.

टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सेन ने प्रतीची (इंडिया) ट्रस्ट द्वारा बोलपुर में आयोजित ‘वाय वी गो टू स्कूल: ए लेसन इन कोऑपरेशन’ विषय पर एक दिवसीय चर्चा में भाग लेने के बाद मीडिया से संक्षिप्त बातचीत की. कार्यक्रम के दौरान उन्होंने 20 मिनट का भाषण भी दिया.

अपने भाषण में उन्होंने बताया कि किस प्रकार कुछ देश शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के लिए अधिक संसाधन खर्च कर रहे हैं. सेन ने कहा, ‘(भारत) सरकार अब बेरोजगारी की समस्या को लेकर चिंतित है. यह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि समस्या बनी हुई है. यूरोप, जापान और चीन जैसे देशों को इस समस्या का सामना क्यों नहीं करना पड़ा? क्योंकि उन्होंने शिक्षा हासिल की और स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित किया… एक शिक्षित और स्वस्थ व्यक्ति खुद को नौकरी के योग्य बनाने के लिए अधिक प्रयास कर सकता है. भारत में मौजूदा शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति वास्तव में चिंता का विषय है.’

सेन के साथ मिलकर कई किताब लिखने वाले अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज भी कार्यक्रम में शामिल हुए थे. इसके अलावा कई स्कूलों के शिक्षक और विद्यार्थी भी इसमें शामिल हुए. सभा को संबोधित करते हुए सेन ने बताया कि किस प्रकार रवींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में समावेशी शिक्षा का विचार प्रस्तुत किया था, जिसमें दुनिया भर से शिक्षकों को बुलाया गया था और छात्रों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था.

सेन ने कहा, ‘…रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल नहीं गए, लेकिन उनके पास स्पष्ट विचार था कि स्कूल कैसा होना चाहिए. जब स्कूल (शांति निकेतन में) शुरू हुआ, तो मेरे परिवार के कई लोग इससे जुड़े थे. मेरी मां अमिता सेन उस स्कूल की छात्रा थीं. सौ साल पहले, यह एक स्कूल था जहां छात्राएं जुजुत्सु (एक जापानी मार्शल आर्ट) सीखती थीं… मेरी मां ने एक प्रशिक्षक से जूडो सीखा, जो जापान से थे. जापानी प्रशिक्षक के जाने के बाद भी परंपरा जारी रही.’

इस विषय पर बोलते हुए कि किस प्रकार स्कूल जाना एक बच्चे की सोच को महत्वपूर्ण रूप से आकार दे सकता है, सेन ने भारत की वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा, ‘जब कोई स्कूल जाता है, तो वह समाज के विभिन्न वर्गों से आने वाले बहुत से लोगों और मित्रों से मिलता है. उनकी बातचीत से ऐसा प्रतीत होता है कि बच्चे हिंदू और मुसलमानों के बीच कोई अंतर नहीं करते हैं, हालांकि इस बात पर चर्चा हो रही है कि भारत को हिंदू राष्ट्र में बदला जा सकता है.’

सेन ने आगे कहा कि किस तरह भारतीय जनता ने पिछले आम चुनाव में देश को हिंदू राष्ट्र में बदलने के प्रयासों को विफल कर दिया. उन्होंने उस फैजाबाद लोकसभा सीट के परिणाम पर भी चर्चा की, जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है, जहां इस साल की शुरूआत में राम मंदिर की ‘प्राण प्रतिष्ठा’ हुई थी.

सेन ने कहा, ‘पिछले चुनाव में भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने की कोशिश की गई थी. लेकिन लोगों ने इसे स्वीकार नहीं किया. जहां बड़ा मंदिर (राम मंदिर) बनाया गया, वहां एक धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार ने हिंदू राष्ट्र की बात करने वाले को हरा दिया.’

बाद में पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया, ‘हिंदू राष्ट्र बनाने के कदम को आंशिक रूप से विफल कर दिया गया. मैं यह नहीं कह सकता कि इस प्रयास का पूरी तरह से विरोध किया गया.’

सेन ने इस बात पर भी खेद व्यक्त किया कि भारतीय दंड संहिता के स्थान पर हाल ही में लागू किए गए भारतीय न्याय संहिता के क्रियान्वयन से पहले व्यापक चर्चा नहीं की गई.