नई दिल्ली: नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भारत के कृषि क्षेत्रों में लगे लगभग 60 लाख पेड़ों के नुकसान पर स्वत: संज्ञान लेते हुए कहा कि यह देश के दो महत्वपूर्ण पर्यावरण कानूनों, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन है.
रिपोर्ट के मुताबिक, एनजीटी ने इस संबंध में एक खबर पर संज्ञान लिया है, जिसमें कहा गया था कि इतने बड़े पैमाने पर पेड़ महज़ तीन सालों के भीतर गायब हुए हैं. इस रिपोर्ट में कृषि भूमि से पेड़ों के खोने को लेकर ‘हॉटस्पॉट’ यानी जहां ज्यादा पेड़ों को नुकसान हुआ इसकी जानकारी भी दी गई थी. इस सूची में महाराष्ट्र और तेलंगाना को बड़ा हॉटस्पॉट बताया गया था, वहीं मध्य प्रदेश का इंदौर छोटे हॉटस्पॉट की श्रेणी में था.
इस मामले की गंभीरता को देखते हुए एनजीटी ने 4 जुलाई को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के साथ महाराष्ट्र, तेलंगाना और मध्य प्रदेश राज्यों के वन विभागों को जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया है. मामले की अगली सुनवाई 31 जुलाई को तय की गई है.
मालूम हो कि बीते 15 मई को ‘नेचर सस्टेनेबिलिटी’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध में यह जानकारी सामने आई थी. इस अध्ययन में बताया गया था कि भारत ने कृषि भूमि में लगे 50 लाख से अधिक पेड़ खो दिए, और ऐसा बहुत छोटी अवधि- 2018 और 2022 के बीच हुआ.
इस अध्ययन को करने वाले वैज्ञानिकों ने बताया था कि उनका ये निष्कर्ष उच्च रिज़ॉल्यूशन उपग्रह इमेजरी ( high resolution satellite imagery) पर आधारीत है, जिसकी सहायता से उन्होंने पूरे भारत में खेत में लगे अलग-अलग बड़े पेड़ों (जिनका व्यास 10 वर्ग मीटर से अधिक का होता है) की मैपिंग की थी.
वैज्ञानिकों ने यह भी पाया था कि पेड़ों के नुकसान के कई हॉटस्पॉट थे. कुछ क्षेत्रों में प्रति वर्ग किलोमीटर 50 से अधिक पेड़ नष्ट हो गए हैं. उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ हिस्से और महाराष्ट्र और तेलंगाना सहित मध्य भारत के क्षेत्रों में बड़े कृषि भूमि के 50 प्रतिशत तक पेड़ नष्ट हुए हैं.
इसके अलावा टीम ने पूर्वी मध्य प्रदेश, इंदौर जैसे क्षेत्रों को नुकसान के छोटे हॉटस्पॉट बताया था. यही बात द वायर ने भी अपनी कवरेज में बताई थी.
कानूनों का उल्लंघन: एनजीटी
इस मामले में एनजीटी ने द हिंदू में प्रकाशित 18 मई की रिपोर्ट का हवाला दिया, जो इस अध्ययन से जुड़ी हुई थी. एनजीटी की प्रधान पीठ, जिसमें जस्टिस प्रकाश श्रीवास्तव और जस्टिस अरुण कुमार त्यागी शामिल थे, उन्होंने कहा कि समाचार रिपोर्ट पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के प्रावधानों के उल्लंघन का संकेत देती है.
4 जुलाई के एनजीटी के आदेश में यह भी कहा गया कि इस अध्ययन पर प्रकाशित रिपोर्ट पर्यावरण मानदंडों के अनुपालन और अनुसूचित अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दे उठाती है. उदाहरण के लिए, भारत का वन संरक्षण अधिनियम, 1980, वन पथों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए प्रावधान करते हुए, निजी भूमि में पेड़ों की कटाई के लिए बहुत विशिष्ट नियम निर्धारित करता है. संयोग से केंद्र सरकार ने पिछले साल इस अधिनियम में संशोधन किया था.
अब इसे वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम, 1980 कहा जाता है. ये संशोधन बेहद विवादास्पद है, जिसमें वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने के लिए अधिनियम के दायरे से निजी भूमि जोत को हटाने का भी प्रस्ताव है ताकि इससे हरित आवरण और कार्बन कैप्चर में सुधार हो सके.
द वायर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि विशेषज्ञों का कहना है कि यह भारत की जैव विविधता या कार्बन संग्रहण के लिए अच्छा नहीं होगा, क्योंकि ये संशोधन मौजूदा पुराने पेड़, जो पहले से ही कार्बन कैप्चर में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, की रक्षा करने के बजाय, वृक्षारोपण और मोनोकल्चर विकसित करने पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जो उनसे मिलने वाली पारिस्थितिक लाभ के संदर्भ में कम मूल्यवान हैं.