बंगनामा: आधी चुस्की चाय का रहस्य

भारत का एक चौथाई चाय उत्पादन पश्चिम बंगाल में होता है. यहां चाय पीने का पुराना रिवाज भी है. लेकिन अगर बंगाल के निवासियों को यह पेय इतना पसंद है तो इतने छोटे बर्तन में चाय क्यों पीते हैं? बंगनामा स्तंभ की पांचवीं क़िस्त.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: फ्लिकर/Eric Parker/CC BY-NC 2.0)

सरकारी कर्मचारियों और चाय का एक दीर्घकालिक रिश्ता है. यह वह पेय है जो देश के किसी भी सरकारी दफ़्तर के अंदर और बाहर हमेशा प्राप्य है. चाय वह द्रव्य है जो विशाल सरकारी व्यवस्था के कलपुर्ज़ों के सुचारू संचालन की गारंटी है. यह सरकारी कर्मचारियों की ऊर्जा और उनके आपसी सौहार्द का प्रतीक है, बैठकों को निद्रामुक्त रखने का उपाय और बैठकों में विचारों का जनक है. अधिकारियों के कमरे में चाय को पेश किए जाने या न किए जाने के कई अर्थ हो सकते हैं. मुलाक़ाती को चाय पिलाना औपचारिकता का संकेत मात्र हो सकता है और आत्मीयता का सूचक भी.

आगंतुक के समक्ष चाय का प्याला न आने के भी भिन्न मायने हो सकते हैं. प्रथम, और सबसे सीधा अर्थ तो यह कि मिलने वालों की भीड़ या काम का दबाव अधिक है. द्वितीय, आपको अपने काम के लिए दफ़्तर में किसी और अधिकारी से मिलना होगा. तृतीय, जिस काम के लिए आप आए हैं उसके होने की संभावना कम है. चौथा, अगर आप किसी विशेष व्यक्ति का हवाला देकर मिलने आए हैं तो इससे यही इंगित है कि अधिकारी को उनके लिए पर्याप्त श्रद्धा नहीं है. इसलिए सरकारी कर्मचारियों और चाय का एक दीर्घकालिक नाता तो है किंतु यह हमेशा मीठा नहीं होता, कभी-कभी फीका भी होता है.

मेरी तरह जो नौकरी से पहले चाय से अछूते रहे थे, उन्हें भी सरकारी नियुक्ति के कुछ ही दिनों के अंदर ये बातें समझ में आने लगती हैं. इसी वजह से मैंने चाय से दोस्ती करने में देर नहीं की.

जब मैं 1989 में मसूरी की राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी पहुंचा तो पाया कि यहाँ अगस्त-सितंबर के महीनों में भी सुबह-शाम अच्छी ठंड पड़ती है. ठंडे भीगे भोर में पीटी के लिए गर्म बिस्तर छोड़ कर जाना विशेषतः कष्टदायक था. यह संभव सिर्फ़ इसलिए होता था क्योंकि दरवाज़े पर दस्तक को सुनकर आप जब दरवाज़ा खोलते थे तो आपके ठंडे हाथों में एक गिलास गर्म दूधिया, मीठी चाय पकड़ा दी जाती थी. एक चुस्की और बंद निद्राग्रस्त आंखें खुल जाती थीं और चाय ख़त्म होते-होते तो यह चिंता होने लगती थी कि पीटी मैदान पहुंचने में कहीं देर तो नहीं हो रही है. फिर मैं उस ठंडी पहाड़ी जगह में दिन में एकाधिक कप चाय पीने का अभ्यस्त हो गया. कुछ महीनों में ही यह साफ़ हो गया कि चाय सिर्फ़ ठंडे मौसम में ही ज़रूरी नहीं है.

एक प्रशिक्षणार्थी अधिकारी के नाते मुझे उत्तर 24 परगना की कलेक्ट्रेट में ज़िला मजिस्ट्रेट के कमरे के सामने स्थित कमरे में एक अन्य  अफ़सर के साथ बैठने की जगह मिली. जगह, मेज़ और कुर्सी की व्यवस्था ज़िला मजिस्ट्रेट के निजी सहायक बिभू (जिन्हें बिभू ‘बाबू’ कहलाने से घोर आपत्ति थी) ने कर दी थी. चूंकि मुझे नियमित रूप से विभिन्न विभागों में उनके कार्यकलाप सीखने के लिए जाना पड़ता था, मैं अपने कमरे में कम ही बैठता था. परंतु सुबह दस बजे मेरे दिन की शुरुआत वहीं से होती थी. साथ की मेज़ के अधिकारी साधारणतः 10.30 तक अपनी कुर्सी में विराजमान हो जाते थे, हालांकि इस प्रक्रिया को पूर्ण होते-होते अगर 11.00 बज जाते तो उसे भी व्यतिक्रम नहीं माना जाता था.

मैं प्रतिदिन देखता कि कमरे में पहुंचकर, ब्रीफकेस एक स्टूल पर रख आसन ग्रहण करते ही वह सज्जन चपरासी से एक कप चाय लाने को कहते थे. दस मिनट में चपरासी आधा कप चाय ले आता था. यह हर दिन होता था. दिन-ब-दिन मेरा विस्मय गहराता गया. मैंने देखा कि मेरे ऑफिस कक्ष के सहभागी मित्र के साथ ही नहीं बल्कि लगभग हर विभाग के अधिकारी के साथ नित दिन ऐसा ही होता था. ऑफिस आते ही एक कप चाय की तलब, और आधे कप चाय से उसका निदान. कारण मैं समझ नहीं पाता था.

मैं यह भी नहीं समझ पाता था कि दफ़्तर पहुंचते ही चाय की चाहत क्यों सताने लगती थी. इतना ही नहीं मुझे भी जब किसी के कमरे में चाय ऑफर की जाती थी तो वह भी आधी कप होती थी. एक कप चाय मांगने पर आधी कप चाय क्यों प्रकट होती है, यह रहस्य भी गूढ़ होता गया.

संकोचवश मैं अपने नए सहकर्मियों से पूछ नहीं पाता था. आखिरकार अगर कोई आधी कप चाय ही पीना चाहता हो तो मैं कैसे आपत्ति कर सकता हूं, उसी तरह अगर कोई मुझे आधी कप चाय ही पिलाना चाहता हो तो मैं उससे कैसे कहूं कि मुझे कप भरकर चाय पिलाइए.

दफ़्तर में चाय के सेवन की आवश्यकता केवल दैनिक कार्यों को आरंभ करने के लिए ही नहीं बल्कि दिन भर उसे जारी रखने के लिए भी पड़ती है. सरकारी कर्मचारियों में अक्सर ऊर्जा की कमी हो जाती है, शायद व्यवस्था ही इसके लिए दोषी है. लेकिन ऊर्जा की पुनः पूर्ति के उपायों में चाय का स्थान उच्चतम है. मैं जिस किसी विभाग में दिन बिताता था लोगों को दिन में औसतन चार या पांच (आधी) कप चाय पीता देखता था.

कई तरह की चाय उपलब्ध थी- दूध वाली चाय, बिना दूध वाली काली चाय, और नींबू युक्त लाल चाय. मुझे बताया गया कि स्वास्थ के लिए दूधिया चाय के मुक़ाबले काली या नींबू वाली चाय बेहतर है. उस समय मधुमेह के प्रति जागरूकता आ चुकी थी और चीनी मुक्त चाय आसानी से मिलने लगी थी. शायद यह विविधता भी लोगों को चाय पीने के लिए अनुप्रेरित करती थी. परंतु दिन के किसी भी समय जिस तरह की भी चाय आती हो, आती आधा कप ही थी.

ऑफिस में सभा कक्ष के निकट एक छोटा-सा कमरा था जिसमें बैठकों में आगत व्यक्तियों के लिए चाय बनती थी और वहीं से वितरित की जाती थी. बाक़ी अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए निचली मंज़िल पर एक कैंटीन थी और मुख्य द्वार के पास एक चाय का स्टॉल. दफ़्तर खुलने के बाद इस स्टॉल पर दिन के किसी भी वक्त चाय प्रेमियों की लघु सभा किसी गंभीर विषय पर परिचर्चा करती नज़र आती थी.

एक दिन कोषागार भवन को जाते हुए मेरी नज़र ऐसी ही एक सभा पर पड़ी और मैं कौतूहलवश वहां ठहर गया. फुटबॉल पर चल रही चर्चा एक्सप्रेस ट्रेन की तरह कुछ क्षणों के लिए थमी और पुनः गति पकड़ ली. फुटबॉल में उनके समान मेरी रुचि न थी. मैं तो रुका था क्योंकि मुझे वहां खड़े सज्जनों के हाथ में चाय के कप और छोटे कुल्हड़ दिखे थे. ये चाय के कप सामान्य कपों की तुलना में अत्यंत छोटे थे जिनमें बमुश्किल आधा ही कप चाय आ सकती थी.

मुझे चाय वाले ने बताया कि एक कप या एक कुल्हड़ चाय का दाम एक रुपया है. हां, वह प्लास्टिक और काग़ज़ के मिनी कपों में पचास पैसे की चाय देने को भी तैयार था जिसमें आधा कुल्हड़ से अधिक चाय डालना असंभव था. दो-तीन लोग इनसे भी आधी-आधी चुस्की लेकर चाय का आनंद ले रहे थे. आधी कप चाय का स्रोत तो उजागर हो गया पर कारण अभी भी अस्पष्ट था.

भारत के संपूर्ण चाय उत्पादन का एक चौथाई भाग पश्चिम बंगाल से आता है और यहां चाय पीने का पुराना रिवाज भी है. ज़ाहिर है कि इस राज्य में लोगों को चाय पसंद है इसलिए दिन में कई बार इसका सेवन करते हैं. मेरा प्रश्न यह था कि अगर इतनी पसंद है तो इतने छोटे पात्रों में चाय क्यों पीते हैं?

बंगाल से बाहर मुझे जहां भी सरकारी दफ़्तरों में जाने का अवसर मिला था मैंने लोगों को कप भर चाय या फिर उतनी ही मात्रा में गिलास में चाय पीते देखा था. यह ठीक है कि अन्य राज्यों के दफ़्तरों में कर्मचारी अधिकाधिक दो बार चाय पीते हैं किंतु इतने छोटे कपों, कुल्हड़ों या प्लास्टिक के अति लघु कपों से लोगों को चाय का सेवन करते नहीं देखा था. ज़िला प्रशिक्षण के प्रारंभिक सप्ताह के बाद मुझसे रहा न गया.

एक दिन मैंने ज़िला मजिस्ट्रेट के निजी सहायक बिभू से पूछ ही लिया कि ऐसा क्यों है. उन्होंने कहा, ‘आशोले आमरा तो दिने अनेक बार चा खाई, एई जोन्यो छोटो कापे खाई. ना होले शरीर आर पयशा दु टोर ई खति होबे ’ (असल में हम लोग तो दिन में कई बार चाय पीते हैं, इसीलिए छोटे कपों में पीते हैं. नहीं तो शरीर और पैसे दोनों का नुक़सान होगा).

तब मैं यह भी समझ गया कि समझ का फेर किसे कहते हैं.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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