शहर कब अपने लेखक को याद करना सीखेंगे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य के अपने समाज के अलावा व्यापक हिंदी समाज में कौन इलाहाबाद को निराला-महादेवी के शहर, बनारस को प्रसाद-रामचंद्र शुक्ल के शहर, पटना को दिनकर-नागार्जुन-रेणु के शहर की तरह जानता-पहचानता है?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

मैं उस समय लंदन में हो रहे विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने गया हुआ था. सम्मेलन सोआस (स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़) में हो रहा था और उसके बेतरतीब सत्रों से ऊबकर मैं पुस्तकों की दुकान खोजने बाहर निकल गया. थोड़ी देर तक रास्‍ते में मिल गए पब में बैठा. जब मैंने वोडका का ऑर्डर दिया तब वेटर ने मुझे बताया कि जिस मेज़ और कुर्सी पर मैं बैठा था, उस पर महान कवि टीएस इलियट बैठा करते थे. ध्यान से देखने पर पाया कि यह बात मेज़ पर अंकित है.

लंदन, पेरिस, वेनिस, प्राग आदि अनेक शहरों में ऐसी जगहें जहां लेखक बैठते-उठते थे, नामांकित हैं, कई सड़कें या चौक उनके नाम पर हैं. हिंदी अंचल में ऐसा लगभग नहीं है. कहीं-कहीं बड़ी ख़राब मूर्तियां अलबत्ता लगी हुई हैं.

हिंदी के अधिकांश लेखक शहरों-कस्बों से आते हैं और वहीं रहकर वे लेखन करते रहे हैं. कुछ जीविका के कारण कई शहरों में रहते आए हैं और कुछ एक ही शहर या कस्बे में. ऐसा कोई शहर, मेरी जानकारी में नहीं है, जो अपने लेखकों को याद करता हो या उनके वहां होने से अपनी पहचान बनाता हो.

साहित्य के अपने समाज के अलावा व्यापक हिंदी समाज में कौन इलाहाबाद को निराला-महादेवी के शहर, बनारस को प्रसाद-रामचंद्र शुक्ल के शहर, पटना को दिनकर-नागार्जुन-रेणु के शहर की तरह जानता-पहचानता है? स्वयं से शहर कभी अपने लेखकों को याद नहीं करते हैं.

इस व्यापक विस्मरण को किसी हद तक दूर करने के उद्देश्य से, मुझे लगता है, अनेक शहरों में वहां रहे-बढ़े लेखकों को याद करने की एक मुहिम चलाना चाहिए. इस मुहिम में किसी शहर के शैक्षणिक संस्थानों, परोपकारी संस्थाओं, नगर पालिका, लेखक-समुदायों, प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं आदि को शामिल करना चाहिए.

उदाहरण के लिए, इलाहाबाद में दो-तीन दिनों का आयोजन वहां के केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी-उर्दू आदि विभागों के अध्यापक मिलकर करें जिसमें अकबर इलाहाबादी, निराला-पंत-महादेवी से लेकर बाद तक के लेखकों पर आयोजन हों: उनकी रचनाओं के पाठ से लेकर उन पर केंद्रित विचार-विमर्श, उनकी पुस्तकों की प्रदर्शनी, उनकी रचनाओं के पोस्टर, स्कूलों-कॉलेजों में उनकी रचनाओं के पाठ की प्रतियोगिताएं आदि की जा सकती हैं. सारे साधन स्थानीय रूप से जुटाए जाएं. भरसक कोई सरकारी मदद न ली जाए. पहल और आयोजन स्वयं लेखकों और साहित्यप्रेमियों के हाथ में ही रहे. हर शहर में हिंदी से अपनी रोटी कमाने वाले लोगों, अध्यापकों, पत्रकारों आदि की अच्छी-ख़ासी संख्या है- उन्हें सामने आकर वित्तीय व्यवस्था करना चाहिए.

मैं एक आवाज़ सुनता हूं जो कह रही है कि यह एक पागल स्वप्न है और ऐसी मदद देने कोई आगे नहीं आने वाला. मैं उसकी फिलमुक़ाम अनसुनी कर रहा हूं. सपना, सचाई से थोड़ा दूर रहकर ही देखा जा सकता है.

गांधी और जाति

जवाहर भवन का सभागार भरा हुआ था. दिल्ली की बौद्धिक दुनिया के सभी नामी-गिरामी बुद्धिजीवी और युवा एकत्र थे सुनने ‘सहमत’ संस्था द्वारा आयोजित, अकील बिलग्रामी का व्याख्यान ‘गांधी और जाति’ पर. अध्यक्षता कर रही थीं इतिहासकार रोमिला थापर. बरसों बाद एक ऐसा व्याख्यान सुनने का सुयोग हुआ जो सुचिंतित-सुविचारित था, संदर्भों और अंतर्दृष्टि से भरपूर. लगभग एक घंटे का होने के बावजूद बहुत रोमांच और विचारोत्तेजक. प्रो. बिलग्रामी कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.

 

आम धारणा यह बनी हुई है कि गांधी जी ने वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया था और इस मामले में वे एक दकियानूस सवर्ण हिंदू ही थे. बिलग्रामी साहब ने इस तथाकथित समर्थन को गांधी जी के पश्चिमी पूंजीवादी आधुनिकता के विरोध से जोड़ते हुए कहा कि उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में भारत में वर्चस्व बढ़ाती इस आधुनिकता, उससे जुड़े औद्योगिकीकरण, उससे विकसित होने वाली स्वायत्त अर्थव्यवस्था का विरोध किया था. वे ऐसी अर्थव्यवस्था और बाज़ार को, जिसका समाज और संस्कृति से कोई संबंध और सरोकार न हो, भारत के लिए अवांछनीय मानते थे.

उन्हें इसकी प्रबल आशंका थी कि ऐसी आधुनिकता और अर्थव्यवस्था भारत की विविधता और बहुलता को नष्ट कर देगी. उनका ख़याल था कि जाति व्यवस्था चूंकि व्यवसायों पर आधारित थी इस विविधता और बहुलता को बचा सकती है. वे शूद्रों के साथ सवर्ण व्यवहार और छुआछूत के सख़्त खिलाफ़ थे. गांधी जी भारतीय आधुनिकता को पश्चिमी आधुनिकता का नकलची और अनुगामी होने के विरोधी थे. उनकी कल्पना में भारत ग्राम स्वराज्य का पालन कर विकसित हो सकता था. प्रो. बिलग्रामी ने इसकी निशानदेही भी की कि पूना समझौता करते समय गांधी जी अपनी इस नैतिक-मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विपथ हो गए.

रोमिला थापर ने अपने वक्तव्य में यह बताया कि वर्णव्यवस्था शुरू से रूढ़ नहीं हो गई थी और उसका क्रमशः विकास हुआ. उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उसका उल्लेख धर्मशास्त्रों में होना शुरू हुआ. यह भी कि कई जातिगत नए अभिप्राय इन शास्त्रों में प्राचीन होने का आभास देने के लिए और इस तरह उनकी सामाजिक मान्यता बढ़ाने के लिए बाद में प्रक्षिप्त किये गए. ऐसे प्रक्षेपण की एक परिपाटी ही रही है.

प्रो. बिलग्रामी ने जो भी कहा उसे संदर्भ से पुष्ट किया. उनकी मुद्रा गांधी जी को ठीक से उनकी परिस्थिति और समय के संदर्भ में समझने की है, उनका बचाव करने की नहीं. अपने विषय पर उन्होंने आवेग से बात की पर उबाऊ नहीं रोचक वस्तुनिष्ठता बराबर बचाए रखी. यह प्रभाव सभी पर पड़ा कि जाति जैसे विवादग्रस्त मसले पर गांधी जी को ख़ारिज करने का अभियान दिग्भ्रमित करता है. हममें से कई को अब उस पुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी जो प्रो. बिलग्रामी गांधी जी पर लिख रहे हैं, इन दिनों.

कोमल और सशक्त

सिरेमिक के बारे में सोचते हुए सबसे पहले उसकी कोमलता, उसके नाजुक और बहुत भंगुर होने का ख़याल आता है. वह एक पारंपरिक कला है जिसे अक्सर आधुनिक कला के परिसर से दूर ही रखा गया है. यह भूलकर कि ‘माटी सौ-सौ रूप धरे’. रज़ा फ़ाउण्डेशन की ‘युवा संभव’ शृंखला में देश के 12 सिरेमिक युवा कलाकारों की प्रदर्शनी इन दिनों दिल्ली की त्रिवेणी में चल रही है. इसके संग्राहक हैं श्रेष्ठ सिरेमिक कलाकार पीआर दरोज़ जिन्हें, संयोगवश, इस प्रदर्शनी के चलते कालिदास सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है.

सिरेमिक युवा भारतीय जो नवाचार कर रहे हैं वह प्रीतिकर विस्मय से भर देता है: उसका वितान बहुत विस्तृत है, उसमें माटी इतने रूप आश्चर्यजनक ढंग से धर रही है. उसमें कल्पना और ऊर्जा की शक्ति भी है और कोमल को सशक्त करने का कौशल भी. उसमें सिरेमिक कला और मिट्टी की जातीय स्मृतियां भी रसी-बसी हैं और कई तरह के अमूर्तन संभव हुए हैं. मिट्टी के इतने चकित करनेवाले स्फुरण दीख पड़ते हैं.

पारंपरिक सौंदर्य और नवाचारी वैभव दोनों, बिना कोई द्वैत बनाए, साथ-साथ हैं. प्रसन्न तात्कालिकता है तो प्रश्नवाचक मुद्रा भी. कई बार लगता है कि ‘क्षिति’ में ‘जल-पावक-गगन-समीर’ यानी एक तत्व में पंच तत्व अंतर्भूत हैं. मनुष्य के हाथ साधारण सामग्री, मिट्टी में कितना अपार और सशक्त सौंदर्य खोज और रच सकते हैं. मिट्टी किसी को रूंध नहीं रही है- बल्कि खुद रूंधी जाकर सुंदर, टिकाऊ कलाकृतियां संभव कर रही है.

ये कलाकार देश की कई जगहों से आते हैं, शांति निकेतन, बड़ोदरा, कोलकाता, दिल्ली, सोनीपत आदि में काम कर रहे हैं. मेरे लिए बहुत सुखद विस्मय तब हुआ जब इन कलाकारों में से एक- कोपल सेठ को मैंने खुरई का होना और वहीं काम करता पाया. खुरई एक कस्बा है जो सागर जिले की एक तहसील होता था. मैंने अपनी पहली दो कक्षां वहीं पढ़ी थीं. कोपल अमेरिका वगैरह में प्रशिक्षित हैं पर खुरई रहकर कला-कर्म कर रही हैं.

यह प्रदर्शनी इस धारणा की फिर पुष्टि करती है कि इस समय साहित्य और अन्य कलाओं की तुलना में सबसे अधिक, सार्थक और सशक्त, निर्भीक और प्रयोगशील नवाचार ललित कलाओं में हो रहा है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)