‘हिंदू समाज ने राजनीतिक ग़ुलामी भोगी, लेकिन वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा कायर कभी नहीं रहा’

पुस्तक अंश: जो अपने घोषित सिद्धांतों पर नहीं टिक सकता और जो सुविधा के मुताबिक सिद्धांत बदलता रहता है वह कायर है या वीर?

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Suyash Dwivedi/CC BY-SA 4.0)

(15 जुलाई प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी  का जन्मदिन है. प्रस्तुत लेख उनकी किताब ‘हिंदू होने का धर्म’* का हिस्सा है.)

राष्ट्रवादिता और देशभक्ति पर अपने एकाधिकार का लगातार दावा करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अंग्रेजों के खिलाफ वीरता दिखाने, अपनी देशभक्ति को सिद्ध और स्थापित करने और भारत (नहीं, हिंदुस्तान) को आजाद करवाने का पुण्य कमाने के लिए बाईस साल मिले थे. लेकिन उसने न तो आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा में कोई योगदान किया, न आजाद हिंद फौज में स्वयंसेवक भेजे, न मुंबई की नौ सेना बगावत में मदद की और न सशस्त्र क्रांति में लगे लोगों के साथ हुआ. स्वतंत्रता आंदोलन से अपने जीवन के कैशोर्य और चढ़ती जवानी को इस तरह बचा कर क्यों रखा?

क्या तब भी वह उस हिंदू समाज की कायरता का प्रतिनिधित्व कर रहा था जिसके दर्शन पूज्य रज्जू भैया ने अपहृत भारतीय विमान से कंधार में किए?

समझदार लोग कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी के आंदोलन से इसलिए दूर रहा कि वह भारतीयता को राष्ट्रीयता मानने और बनाने का आंदोलन था जबकि संघ हिंदुत्व को राष्ट्रीयता बनाने पर प्रतिबद्ध था. संघ की पहली प्रतिबद्धता हिंदुओं को सांप्रदायिक दंगों में बचाने और उनकी रक्षा के लिए संगठन खड़ाकर के उनमें वीरता की भावना भरने की थी और स्वतंत्रता संग्राम में पड़कर वह अपनी शक्ति व्यर्थ नहीं करना चाहता था.

इसे मान लें तो भी संघ को संगठन खड़ा करने और हिंदू समाज में वीरता का भाव भरने के लिए बाईस साल मिले थे. भारत का विभाजन सन् सैंतालीस में हुआ, और तभी भारतीय इतिहास के सबसे भयावह सांप्रदायिक दंगे हुए जिनमें लाखों लोग मारे गए. कोई हिसाब तो अभी तक नहीं छपा है लेकिन उनमें आधे तो हिंदू रहे ही होंगे. संघ ने कितने हिंदुओं को बचाया?

पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर प्रांत और बंगाल में संघ ने हिंदू समाज की रक्षा और उसे वीरता के प्रशिक्षण में कितनी बड़ी भूमिका अदा की? नोआखाली में आग के बीच चलते महात्मा गांधी को वायसराय माउंटबेटन ने- एक आदमी की- सेना की तरह प्रभावशाली होते देखा लेकिन क्या देश के इतिहास में कहीं उल्लेख है कि हिंदुओं की जान और उनकी संपत्ति की रक्षा करते हुए स्वयंसेवकों ने इतने हमलावरों को मारा और इतने हिंदू समाज की रक्षा में बलिदानी हुए?

बाईस साल में वीर बलिदानी स्वयंसेवकों की कितनी बड़ी सेना संघ ने खड़ी की थी जो विभाजन की त्रासदी को इतना कम करने में सफल हुई? बाईस साल के जीवन में पहली बार उसी की कसौटियों पर उसकी अग्नि परीक्षा हुई थी. लेकिन सन् सैंतालीस में क्या संघ ने हिंदू समाज को चोट खाने से बचाया?

संघ वाले लगातार तब कांग्रेस की नीतियों और नेताओं को कोसते रहे. महात्मा गांधी को विभाजन का पापी और हिंदुओं को मरवानेवाला बताते रहे. हिंदुत्ववादियों से और कुछ पराक्रम तो नहीं हुआ उसने अपनी वीरता एक सबसे साहसी और वीर हिंदू को दिल्ली की प्रार्थना सभा में मार कर साबित की.

भारत विभाजन का काला इतिहास वीर भगवे रंग से क्यों नहीं रंगा है और उसके अंतिम अध्याय पर खून से सनी गांधी की सफेद खादी की धोती क्यों ढंकी हुई है? स्वतंत्रता संग्राम और भारत विभाजन के दौरान किसकी वीरता प्रकट हुई और किसकी कायरता अपना मुंह छुपाए भागती रही?

अगर हिंदू समाज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निर्भय और रक्षित हुआ होता तो सन् पचास में भारत पंथनिरपेक्ष संसदीय गणतंत्र नहीं बना होता. वह पाकिस्तान की तरह हिंदू राष्ट्र हो गया होता.

हिंदू समाज को संगठित करने और उसमें वीरता की भावना भरने वाले संघ पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंध लगा. नाथूराम गोडसे संघ का सदस्य साबित नहीं हुआ लेकिन उसके हिंदुत्ववादी होने के सत्य को आज तक किसी ने नकारा नहीं है. गोडसे का हिंदुत्व हिंदू महासभा का था या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का? वीर सावरकर का था या केशव बलिराम हेडगेवार का? इस पर विवाद हो सकता है लेकिन वह हिंदुत्व था इससे किसी ने इनकार नहीं किया है.

सरदार वल्लभभाई पटेल को संघ परिवारी अब अपने में समाहित करते हैं लेकिन उनने 11 सितंबर’48 को सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को पत्र में लिखा था- (संघ वालों के) ‘सारे भाषण सांप्रदायिकता के जहर से भरे थे. इसी जहर के फलस्वरूप गांधीजी के महान प्राणों की बलि का दुख देश को उठाना पड़ा. आरएसएस वालों ने गांधीजी की हत्या पर खुशियां मनाईं और मिठाई बांटी.’ तब संघ पर से पाबंदी तो उठा ली गई लेकिन उस अनुभव ने उसे दोमुंह से बात करने की आदत दे दी. तब से संघ कहता कुछ है करता कुछ है.

भारत ने तब से पहले कश्मीर फिर चीन, फिर पाकिस्तान और सन् इकहत्तर और निन्यानवे में युद्ध लड़े. इन युद्धों में संघ के स्वयंसेवकों ने मोर्चे पर आगे जाकर भारतीय सेना की मदद और सेवा की हो इसके कितने ज्वलंत उदाहरण हैं? कोई बीस साल से भारत पंजाब, असम, कश्मीर और तमिलनाडु में आतंकवाद से लड़ाई लड़ रहा है. क्या इस लड़ाई में सुरक्षा बलों के आगे-आगे संघ के स्वयंसेवक छाया युद्ध लड़ रहे हैं?

इस दौरान संघ का दावा है कि वह आपदा में और ऐसे भी बड़े पैमाने पर समाज सेवा कर रहा है. लेकिन आज भी सारे पराभव के बावजूद समाज सेवा और ग्रामोत्थान के काम में गांधी के लोग उनसे ज्यादा हैं.

आजादी के बाद समाज परिवर्तन का सबसे बड़ा रचनात्मक आंदोलन- ग्राम स्वराज- आंदोलन विनोबा ने चलाया और राजनीतिक आंदोलन जयप्रकाश नारायण ने. पहले में संघ शामिल नहीं हुआ दूसरे में हुआ. लेकिन इमरजेंसी में संघ के जितने लोग माफी मांग कर और पैरोल पर छूटे उतने और किसी संगठन के नहीं. इमरजेंसी में सरसंघचालक ने इंदिरा गांधी को जो चिट्ठी लिखी, वह वीरता का उत्तम उदाहरण है ही.

संघ परिवार ने राम जन्मभूमि को मुक्त करने का आंदोलन भी चलाया. उसने कहा कि राम जन्मभूमि वही है जिस पर बाबरी मस्जिद खड़ी है. वहां एक भव्य मंदिर था जिसे तोड़कर बाबर के एक सिपहसालार ने मस्जिद बनाई इसका क्या प्रमाण? तो संघ परिवारियों ने कहा, आस्था के लिए प्रमाण की जरूरत नहीं होती. वह जमीन मुसलमान की थी और उसे लेकर अयोध्या के हिंदू धार्मिक प्रतिष्ठान के साथ उसकी कोर्ट-कचहरी हो रही थी.

संघ परिवारियों ने कहा- आस्था के सवाल न्यायालय से हल नहीं होते. उस मस्जिद में सन् उनचास की ठंड में रामलला की मूर्ति लाकर रख दी गई और बता दिया गया कि वहां भगवान राम बाल रूप में प्रकट हो गए हैं. वहां नमाज नहीं पढ़ी जा रही थी, रामलला की पूजा हो रही थी इसलिए वह मंदिर ही था. संघ परिवारियों का कहना था कि वहां हम भव्य राम मंदिर बनाएंगे और पहले के राम मंदिर को गिराकर बनाई गई मस्जिद को हटाकर बदला लेंगे. आस्था के सवाल न ऐतिहासिक प्रमाणों से हल होते हैं, न न्यायालय से, वे ऐतिहासिक प्रतिशोध से हल होते हैं.

बहरहाल, संघ और उसके बनाए-बनवाए संगठनों ने आंदोलन चलाया. कार सेवाएं कीं, ईंटें इकट्ठा कीं, पैसे इकट्ठे किए और जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा आंदोलन चलाया. आडवाणीजी या तो सिंधु घाटी की सभ्यता में वापस जाते हैं या वर्तमान में रहते हैं इसलिए उन्हें याद नहीं रहता कि विनोबा का चलाया ग्राम स्वराज आंदोलन देश-भर के गांव-गांव पहुंचा था और जयप्रकाश नारायण ने जो आंदोलन सन् चौहत्तर में चलाया वह डेढ़ साल में पूरे देश को आंदोलित कर चुका था.

बहरहाल, सन् नब्बे में भाजपा ने राम जन्मभूमि आंदोलन को अपने एजेंडे पर चढ़ाया जब विश्व हिंदू परिषद और दूसरे संघ परिवारी संगठनों ने उसे पकाकर राजनीतिक उपयोग के लायक बना दिया था. इससे आम चुनाव में लोकसभा में उसकी सीटें दो से बढ़कर छियासी हो गईं. फिर उसने सन् इक्यानवे में उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत पाकर सरकार बनाई और वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार गिराकर मध्यावधि में लोकसभा में एक सौ बीस सीटें जीत लीं. फिर भी केंद्र में सरकार कांग्रेस की थी और कानून और संविधान अदालत में पड़े मामले को संघ परिवारियों को सौंप नहीं सकता था.

उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या में पर्यटन विकास के नाम पर बाबरी मस्जिद के सामने की जमीन अधिग्रहीत की और वहां कार सेवा के नाते पूरा इलाका साफकर के मैदान कर दिया. मस्जिद जिस टीले पर खड़ी थी उसे भी आगे से खोदकर बराबर किया और दावा किया कि वहां से राम मंदिर होने के क्या-क्या प्रमाण निकले हैं. वह खुदाई न पुरातत्व विभाग ने की थी, न वहां से निकले तथाकथित प्रमाण उसे दिए गए. बाबरी मस्जिद गिराने और राम मंदिर बनाने का यह उपक्रम और पराक्रम छल-कपट, झूठ और बेईमानी के सहारे किया गया. जब कहा गया कि यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर कैसे हो रहा है तो पूछा गया कि क्या राम ने छुपकर बाली को नहीं मारा था?

संघ परिवारियों ने अयोध्या में चलते छल-कपट को उचित ठहराने के लिए स्वयं राम होने के दंभ से भी अपने को नहीं बचाया. उनकी इन कारगुजारियों से देश चौकन्ना हुआ और सवाल उठे तो संघ परिवार और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने देश के सर्वोच्च न्यायालय, संसद और राष्ट्रीय एकता परिषद को वचन दिया कि बाबरी मस्जिद की रक्षा हर सूरत में की जाएगी. लेकिन दिसंबर बानवे में गैती-फावड़े से अयोध्या में कार सेवा का कार्यक्रम चला. मुख्यमंत्री कल्याण सिंह इस ‘कार सेवा’ को सारी सुविधाएं देने के लिए बाध्य किए गए. कारसेवकों का यह एकत्रीकरण खुद संघ ने किया और परिवारी संगठन उसके निर्देश पर सक्रिय हुए.

तब प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने कई स्तरों पर संघ के नेताओं से बातचीत चला रखी थी. एक स्तर पर हम भी लगे थे. उसी दौरान इन्हीं रज्जू भैया के दोगलेपन और छल-कपट के मूर्त और बहुत पास से दर्शन हुए. उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या से सारे रक्षा प्रबंध हटा लिए. संविधान के तहत चुनी और उसी की शपथ लेकर बनी सरकार ने सारे कानून और संविधान के प्रावधान निलंबित कर दिए.

छह दिसंबर को कार सेवा की सुबह पुलिस भी हट गई. अयोध्या और बाबरी मस्जिद आराम से कारसेवकों के हवाले हो गई और उनने अपने नेताओं के सारे वचन तोड़कर मस्जिद गिरा दी. कायरता का यह उपक्रम जल्दबाजी में और अचानक नहीं किया गया. मस्जिद गिराने के बाद रामलला का जो कामचलाऊ मंदिर बनाया गया उस तक जाने की पहली सीढ़ी पर गीली सीमेंट में लिखा गया- हिंदू विजय दिवस. फिर भी प्रच्छन्न संघियों को तो छोड़िए अटल बिहारी वाजपेयी भी इसे दुर्घटना बताते हैं और किसी को दोषी नहीं पाते.

मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीति है कि प्राण जाय पर वचन न जाई. संघ परिवारियों ने सर्वोच्च न्यायालय, संसद और एकता परिषद को दिया एक वचन नहीं निभाया. उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार से पूरी तरह सुरक्षित संघ परिवार ने मस्जिद तोड़ी.

भारतीय विमान के अपहर्ताओं को पूज्य रज्जू भैया और सभी संघ परिवारी नेता कायर और बर्बर कहते हैं. बाबरी मस्जिद को सरकार के संरक्षण में गिराना क्या हद दर्जे की कायरता और बर्बरता नहीं थी?

अगर नहीं थी तो क्यों आज तक किसी संघ परिवारी ने सीना तानकर नहीं कहा कि हां, हमने बाबरी मस्जिद गिराई क्योंकि हम उसे कलंक मानते थे. देश का संविधान और कानून जो करना चाहे, करे. संघ तो सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है ना, फिर उसमें इतनी भी नैतिकता नहीं? वह जो अयोध्या में राम मंदिर बनाने का परम धार्मिक कर्म कर रहा है उसमें सत्य को स्वीकारने का इतना भी साहस नहीं.  कानून, संविधान ही नहीं सनातन धर्म की परंपरा और हजारों साल से चले आ रहे उच्चतम मूल्यों का अपहरण करने वाला संघ परिवार कायर और बर्बर नहीं तो क्या है?

और अब प्रधानमंत्री वाजपेयी कहते हैं कि सीबीआई की चार्जशीट के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को मंत्रिमंडल से नहीं हटाया जाएगा क्योंकि उन पर मुकदमा राजनीतिक है. राम जन्मभूमि आस्था का आंदोलन था या राजनीति का? जो अपने घोषित सिद्धांतों पर नहीं टिक सकता और जो सुविधा के मुताबिक सिद्धांत बदलता रहता है वह कायर है या वीर?

हिंदू समाज ने राजनीतिक गुलामी भोगी होगी लेकिन वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा कायर कभी नहीं रहा.

बहुत पहले पिछली सदी की शुरुआत में जॉर्ज पंचम ने भारतीयों को झूठा कहा होगा. तब अकबर इलाहाबादी ने शेर कहा था- हम अगर झूठे तो आप हैं झूठों के बादशाह. हिंदू समाज को कायर कहने वाले सरसंघचालक और संघ को अकबर क्या कहते ? बताने की जरूरत नहीं. आप जानते हैं.

(राजकमल प्रकाशन से साभार)

(*14 जनवरी 2000 को प्रकाशित हुआ यह लेख साल 2003 में प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदू होने का धर्म’ का हिस्सा है, जो प्रभाष जोशी के लेखों का संकलन है.)