नई दिल्ली: संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति (यूएनएचआरसी) ने भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा को लेकर चिंता व्यक्त की है. इसने कहा है कि भारत का व्यवहार इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट (आईसीसीपीआर) संधि के अनुरूप नहीं है. आईसीसीपीआर पर निगरानी रखने वाली स्वतंत्र विशेषज्ञों की संस्था संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति ने गुरुवार (25 जुलाई) को भारत द्वारा संधि के पालन पर अपनी रिपोर्ट जारी की.
भारत को अब तक तीन बार आईसीसीपीआर समीक्षा से गुजरना पड़ा है, अंतिम समीक्षा 1997 में हुई थी. भारत 1979 में आईसीसीपीआर से जुड़ा था. चौथी समीक्षा लगभग दो सप्ताह पहले हुई. भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमानी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने किया. 15 और 16 जुलाई को दो दिनों तक, भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने यूएनएचआरसी के साथ बातचीत की.
विदेश मंत्रालय के प्रेस नोट में कहा गया था, ‘चर्चा के दौरान, मानवाधिकार समिति के सदस्यों ने भारत की परंपराओं और लोकाचार की सराहना की, जो बहुलवाद, अहिंसा और विविधता जैसे सिद्धांतों में निहित हैं.’
समीक्षा बैठक के दस दिन बाद 25 जुलाई को यूएनएचआरसी ने भारत के कार्यान्वयन पर अपने निष्कर्षों को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट प्रकाशित की. रिपोर्ट में भारत सरकार द्वारा कुछ विधायी प्रगति को स्वीकार किया गया है, लेकिन रिपोर्ट मुख्य रूप से ‘चिंता के प्रमुख विषयों’ और ‘सिफारिशों’ पर केंद्रित है.
रेखांकित की गई चिंताओं में से एक यह है कि भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को 2023 से राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थानों के वैश्विक गठबंधन से ‘ए’ श्रेणी का दर्जा नहीं मिला है. इसका मतलब यह हुआ कि देश मानवाधिकार के क्षेत्र में अच्छा नहीं कर रहा है और इसलिए उसे शीर्ष दर्जा (जैसे- ए) नहीं मिल रहा है.
रिपोर्ट के अंत में समिति की टिप्पणी है कि समिति मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच में पुलिस अधिकारियों की भागीदारी से चिंतित है. इससे मानवाधिकार आयोग की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ रहा है. सशस्त्र बलों द्वारा कथित रूप से किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए आयोग के पास कम शक्तियां होने को लेकर भी समिति चिंतित है.
रिपोर्ट के एक बड़े हिस्से में भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई है.
इसमें लिखा है, ‘समिति धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के बढ़ते मामलों को लेकर चिंतित है, जैसे कि मई 2023 से मणिपुर में हुई घटनाएं और 2002 में गुजरात में हुए दंगे, और इनके परिणामस्वरूप न्यायेतर हत्याओं (Extra Judicial Killings) सहित मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों में जवाबदेही की कमी.’
इसके अलावा, रिपोर्ट में ‘2022 के राम नवमी जुलूस के दौरान दंगों के बाद धार्मिक अल्पसंख्यकों के पूजा स्थलों और घरों को तोड़े जाने, मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ गोरक्षकों की हिंसा और लिंचिंग की घटनाओं’ पर भी चिंता व्यक्त की गई है. रिपोर्ट में विशेष रूप से गोरक्षकों की हिंसा और लिंचिंग को गैरकानूनी घोषित करते हुए कानून बनाने की सिफारिश की गई है.
समिति ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद रोधी कानूनों के इस्तेमाल और नेताओं के घृणास्पद भाषण और अल्पसंख्यकों के खिलाफ सार्वजनिक हिंसा भड़काने की खबरों को लेकर अपनी आशंकाओं पर भी प्रकाश डाला है.
रिपोर्ट में प्रवासी-विरोधी घृणास्पद भाषणों पर चिंता व्यक्त की गई है, जो तेजी से हिंसक हो गए हैं. विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ दिए गए भाषण, जिनमें म्यांमार के रोहिंग्या भी शामिल हैं, जिन्हें सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया जाता है.
समिति ने सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम (आफस्पा) और आतंकवाद-रोधी कानून के कुछ प्रावधानों के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वे संधि का पालन नहीं करते हैं. इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि मणिपुर, जम्मू-कश्मीर और असम जैसे ‘अशांत क्षेत्रों’ में आतंकवाद विरोधी कानूनों के लंबे समय तक लागू होने के परिणामस्वरूप व्यापक और गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन हुए हैं.
समिति ने भारत से आग्रह किया कि वह संधि के तहत अपने दायित्वों को पूरा करे और यह सुनिश्चित करे कि इन क्षेत्रों में आतंकवाद विरोधी अभियान और अन्य सुरक्षा उपाय अस्थायी, आनुपातिक और न्यायिक समीक्षा के अधीन हों. इसके अतिरिक्त, इसने भारत से इन क्षेत्रों में मानवाधिकार उल्लंघन के संबंध में जिम्मेदारी स्वीकार करने और सच्चाई को उजागर करने के लिए एक तंत्र स्थापित करने का आह्वान किया.