पूरे विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा और कांग्रेस के बीच ख़ुद को असली और प्रतिद्वंद्वी को नकली हिंदू सिद्ध करने की प्रतियोगिता-सी चल पड़ी.
गुजरात, जो देश के समृद्धतम प्रदेशों में से एक है, पिछले साढ़े तीन वर्षों से हमारे प्रधानमंत्री का भी प्रदेश है. अर्थव्यवस्था के उसके तथाकथित मॉडल के गुण, उसकी विफलताओं के बेपरदा हो जाने के बावजूद, प्रधानमंत्री अभी भी गाते नहीं थकते, अलबत्ता, उसके बाहर.
अंदर तो हालत यह है कि हिंदुत्व के उनके ‘प्रयोगों’ के दोहराये जाने की आशंकाओं को लेकर देश के अनेक हिस्सों में देशवासी लगातार डरे-सहमे रहते हैं.
महात्मा गांधी के इस गुजरात में पिछले 22 सालों के भाजपा या कि नरेंद्र मोदी राज में सच्चे लोकतंत्र को फूलने-फलने से रोकने की कोई एक भी कोशिश बचने दी गयी होती, या कि वहां भाजपा व कांग्रेस के अलावा कोई तीसरी राजनीतिक ताकत भी विकसित हुई होती, तो उन निरर्थक बातों के कतई कोई मायने नहीं होते, जो विधानसभा चुनाव में प्रचार के आखिरी चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलानाहक कहीं.
अगर यह कहना ही प्रधानमंत्री का करिश्मा था, जो ‘भक्तों’ के अनुसार वे आखिरी क्षणों में करने वाले थे और जिसकी बिना पर उनकी पार्टी चुनावी पांसे पलट देने के मंसूबे बांध रही थी, तो कहना चाहिए कि वे इसके बगैर थोड़े ‘भले प्रधानमंत्री’ नजर आते थे.
सोचिये जरा कि वे यह तक कहने से नहीं चूके कि राज्य में उनकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पड़ोसी देश पाकिस्तान से मिलकर अहमद पटेल को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने के फेर में है!
ऐसा कहने के पीछे की उनकी नीयत एकदम साफ थी: वे अहमद पटेल के धर्म को बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए बहुत बड़े खतरे के रूप में पेश करने और साथ ही धर्म के नाम पर वोट मांगने की मनाही को मुंह चिढ़ाकर मतदाताओं को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने का अपना अरमान पूरा करना चाहते थे.
इस चक्कर में उन्होंने इस तथ्य को जानबूझकर भुला दिया कि इस वक्त देश में जो एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री हैं-जम्मू कश्मीर की महबूबा मुफ्ती-उनकी पार्टी के समर्थन से ही सत्ता में हैं और महबूबा मुफ्ती की ही तरह अहमद पटेल के संदर्भ में भी यह सच्चाई बदलने वाली नहीं कि संविधान में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है, जो मुसलमान होने के कारण किसी नागरिक को मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के अयोग्य ठहराता या उससे वंचित करता हो.
यों, प्रधानमंत्री से बेहतर कौन जानता होगा कि कांग्रेस या खुद अहमद पटेल, गुजरात में अहमद पटेल के राज्यारोहण के लिए पाकिस्तान के नहीं गुजरात के मतदाताओं के मोहताज हैं और इसके लिए उन्हें पाकिस्तान को नहीं, इन्हीं मतदाताओं को संतुष्ट करने की आवश्यकता है.
जहां तक पाकिस्तान की बात है, किसे नहीं मालूम कि पनामा पेपर्स लीक के शिकार हो गये वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से हमारे प्रधानमंत्री की कितनी गहरी छनती रही है.
लेकिन क्या किया जाये, गुजरात विधानसभा के समूचे चुनाव प्रचार में विकास की ही तरह लोकतंत्र भी पगलाया घूमने को विवश रहा. आक्रामक बहुसंख्यक सांप्रदायिकता और साथ ही मानसिकता ने उसे इस कदर अपने शिकंजे में जकड़ न रखा होता तो कांग्रेस प्रधानमंत्री द्वारा चुनाव को पाकिस्तान या अहमद पटेल से लिंक करने को लेकर यों अपराधभाव की शिकार होकर प्रतिरक्षात्मक सफाइयां क्यों देती?
होशमंद लोकतंत्रों में ऐसे आरोपों को हंसकर उड़ा देने या काम्प्लीमेंट के तौर पर इस्तेमाल कर लेने की परंपरा रही है. इस परंपरा के तहत कांग्रेस कह सकती थी कि उसके लिए गर्व की बात है कि प्रधानमंत्री समझते हैं कि वह देश के ऐसे राज्य में भी, जहां अल्पसंख्यकों की आबादी कुल मिलाकर दस प्रतिशत ही है, किसी अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री बनाने की सोच सकती है.
वैसे भी उसके नेताओं में अहमद पटेल का कद इतना छोटा नहीं कि गुजरात का मुख्यमंत्री का पद उनके मुकाबले बहुत बड़ा नजर आये.
भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी से तो वे हर हाल में बड़े नेता हैं. राजनीतिक चातुर्य के लिए तो वे न सिर्फ गुजरात बल्कि देश भर में जाने जाते हैं और इसका एक नमूना पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव में भाजपा के स्वयंभू चाणक्य अमित शाह के साम, दाम, दंड व भेद को शिकस्त देकर प्रस्तुत कर चुके हैं.
कांग्रेस ने यह कहकर पिंड छुड़ाना बेहतर समझा कि अहमद पटेल की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर कही प्रधानमंत्री की बातों में कोई दम नहीं है, तो यह भी एक तरह से बहुसंख्यक मानसिकता की ही जीत थी.
इस जीत को इस तथ्य में भी देख सकते हैं कि अपने समूचे अभियान में कांग्रेस ‘अल्पसंख्यकों की शुभचिंतक’ की छवि से बचने के प्रयत्न करती रही. पूजा-पाठ के लिए इस से उस मंदिर भटकने के क्रम में उसके नेता राहुल गांधी ने वहां चंदन व टीके तो खूब लगवाये, लेकिन टोपियां पहनने से नरेंद्र मोदी जैसा ही परहेज बरते रखा.
इस कदर कि भाजपा के और उनके बीच अपने को असली और प्रतिद्वंद्वी को नकली हिंदू सिद्ध करने की प्रतियोगिता-सी चल पड़ी.
कहते हैं कि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने राज्य के पिछले विधानसभा चुनावों में पार्टी की मुस्लिम हितचिंतक छवि के कारण हुए नुकसान के मद्देनजर संभावित हिंदू ध्रुवीकरण का खतरा टालने के लिए मुसलमानों के साथ देते न दिखने की रणनीति अपनाई, जिससे प्रेक्षकों को इस निष्कर्ष तक पहुंचने में आसानी हुई कि गुजरात में इस बार धर्मनिरपेक्षता एकदम से गैरहाजिर हो गई है और मुकाबला हिंदुत्व के ही दो अच्छे व बुरे रूपों में हो रहा है.
क्या कांग्रेस आज की तारीख में इसे किसी भी तरह से गलत ठहरा सकती है?
सवाल है कि गुजरात में लोकतंत्र की इस हालत के रहते अल्पसंख्यक उसके किसी भी चुनाव को लेकर उम्मीद या उत्साह से क्योंकर भर सकते हैं? खासकर, जब पिछले 22 सालों से राज्य की सरकारी मशीनरी अपने समर्थकों के साथ लगातार उन्हें निरुत्साहित करने की दिशा में काम करती रही है.
पहले चरण में मतदान प्रतिशत गत चुनावों के मुकाबले बहुत ऊंचा नहीं चढ़ा तो भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक मीडिया के कई हलकों में इस बात को लेकर अकारण ही ‘संतोष’ नहीं जताया गया कि अंततः कांग्रेस अल्पसंख्यकों में उत्साह जगाने में नाकामयाब रही. वे पिछले चुनावों की ही तरह मतदान के प्रति उदासीन बने रहे. न रहते तो मतदान का प्रतिशत जरूर बढ़ता.
कोढ़ में खाज यह कि इस बीच राज्य से आने वाली इस आशय की खबरें बहुत डरावनी हैं कि भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके परिवार के अन्य संगठन 2002 के सामूहिक संहार के बाद से ही वहां ऐसे प्रयास करते आ रहे हैं कि अल्पसंख्यकों की जानमाल की हिफाजत सम्बन्धी चिंताओं का इतना विस्तार कर दिया जाये कि वे उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के स्वेच्छया विसर्जन की स्थिति तक पहुंचा दें.
इसके लिए संघ परिवार के पास जो तीन सूत्री फार्मूला है, उसमें अल्पसंख्यकों को पहले तिरस्कृत, फिर वहिष्कृत और इससे भी काम न चले तो पुरस्कृत करके छुट्टी पा लेने पर जोर है.
मतदान के पहले चरण में शिकायतें आम थीं कि मतदान के दिन संघ व भाजपा के दबंग कार्यकताओं ने अनेक क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं को डरा धमकाकर या पैसे वगैरह देकर उनके पहचानपत्र अपने पास रख लिये और उनके द्वारा ‘भारी’ मतदान के खतरे को टाल दिया.
कई क्षेत्रों में उन्होंने उसी दिन उनकी अजमेरशरीफ यात्रा के लिए लग्जरी बसों का इंतजाम कर दिया ताकि न रहे बांस और न बजे बांसुरी. यह प्रचार तो खैर वे हर चुनाव से पहले करते हैं कि इस बार चुनाव में बड़े पैमाने पर दंगे-फसाद होंगे. यह भी कि जब जीतना अंततः नरेंद्र मोदी को ही है तो अपनी सुरक्षा को खतरे में डालकर मतदान करने जाने का कोई मतलब नहीं है.
कई क्षेत्रों में यह भी प्रचारित किया जाता है कि भाजपा के विरोध में वोट देकर भी अल्पसंख्यक क्या कर लेंगे, वह तो ईवीएम हैक कराकर भी जीत जायेगी. मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत का मार्ग भी ऐसे ही प्रशस्त किया जाता है.
देश में लोकतंत्र रहेगा, तो चुनाव आते-जाते रहेंगे और उनमें हार-जीत भी होती रहेगी. लेकिन उसके रूप को विकृत कर खात्मे की ऐसी कोशिशें, जिनमें कई रूपों में राज्य भी भागीदार है, हर लोकतंत्रकामी की चिंता का विषय होनी चाहिए.
फिलहाल, प्रार्थना ही की जा सकती है कि राज्य में लोकतंत्र के हिस्से में आयी यह लंबी रात जल्द से जल्द खत्म हो और उसके साथ-साथ देश भी नई सुबह से साक्षात्कार कर सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं.)