प्रेमचंद: समाज के साथ खड़ा एक निर्भीक लेखक

जन्मदिन विशेष: प्रेमचंद ने 'चंद्रकांता संतति' पढ़ने वाले पाठकों को 'सेवासदन' का पाठक बनाया. साहित्य समाज की अनुकृति मात्र नहीं बल्कि समाज को दिशा भी दिखा सकता है, यह प्रेमचंद से पहले कल्पना करना असंभव था.

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प्रेमचंद. (जन्म: 31 जुलाई 1880 – अवसान: 08 अक्टूबर 1936) (फोटो साभार: रेख्ता डॉट ओआरजी)

रचनाकार जब अपनी रचना में एक संसार की सृष्टि करता है तो वह उसके अपने अनुभवों, अपने भावों से निर्मित संसार होता है. पाठक उस संसार से अपने आप को कितना जोड़ पाते हैं, वही उस रचनाकार की असल शक्ति है और बुनियादी सफलता भी. केवल इस एक मयार पर भी अगर हम हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय साहित्य को परखना चाहें तो प्रेमचंद (1880-1936) उन चंद साहित्यिकों में होंगे जिन्होंने औपनिवेशिक भारतीय यथार्थ को सबसे अधिक प्रामाणिकता के साथ दिखलाया है.

उनके साहित्य ने सजग पाठकों का निर्माण करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी निभाई है. एक पूरे युग की पाठकीयता को उनकी रचनाओं ने संस्कार दिया, वरना प्रेमचंद से पहले तक साहित्य अधिकांशतः तिलिस्मी, जादुई, धार्मिकता और इस प्रकार मनोरंजन का, शगल का एक साधन भर था.

आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में यह प्रेमचंद ही थे, जिन्होंने चंद्रकांता संतति  पढ़ने वाले पाठकों को सेवासदन  का पाठक बनाया. साहित्य समाज की अनुकृति मात्र नहीं बल्कि समाज को दिशा भी दिखा सकता है, यह प्रेमचंद से पहले कल्पना करना असंभव था. पर यह केवल रचनात्मक प्रतिभा मात्र से तो संभव नहीं था. इसके लिए नितांत आडंबरहीन और ज़मीन से जुड़ा वह जीवन भी जीना आवश्यक था जो किसी भी कथन में प्रामाणिकता लाने का सबब बनता है.

प्रेमचंद को बतौर इंसान जानने की प्रक्रिया में यह पहेली स्वयं सुलझती जाती है कि आखिरकार प्रेमचंद का साहित्य क्यों कई दशकों के भारतीय जीवन का सबसे प्रामाणिक चित्र बन सका. प्रेमचंद की बतौर इंसान इस खोज का एक सिरा हमें उनके परवर्ती साहित्यकारों के प्रेमचंद के साथ हुए संवाद में मिल जाता है.

त्यागपत्र  और सुनीता  जैसे क्रांतिकारी उपन्यास हिंदी साहित्य को देने वाले जैनेन्द्र कुमार (1905-1988) ने प्रेमचंद के जीवन को बड़े क़रीब से देखा था. उनके संस्मरणों में झांकता प्रेमचंद का व्यक्तित्व एक साहित्यिक से अधिक उस व्यक्ति का है जो अपने पूरे गठन में निहायत ही साधारण है.

आयु में प्रेमचंद से कोई पच्चीस वर्ष छोटे जैनेन्द्र की एक प्रशंसक से उनके सबसे घनिष्ठ सहयोगी बनने की यात्रा इतनी दिलचस्प है कि वह उस पूरे युग को हमारी आंखों के सामने साकार कर देता है. प्रेमचंद द्वारा संपादित पत्रिका ‘माधुरी’ के लिए अपनी पहली कहानी भेजने से शुरू हुआ यह सिलसिला प्रेमचंद की मृत्यु शैया पर उनका हाथ थामे बैठने तक चला. यह न केवल मानवीय संबंधों की उदात्तता को दिखलाता है बल्कि एक ऐसे समय की भी कहानी कहता है जहां साहित्य की सेवा करने वालों का बिना किसी वाद-विवाद में बंटे, बिना किसी अहं के भी एक सामान्य भूमि पर सहचर बन जाना संभव था.

अपने संस्मरण ‘प्रेमचंद: मैंने क्या जाना और पाया’ में जैनेन्द्र बताते हैं कि कैसे सबसे पहले 1929 में छात्र जैनेन्द्र ने अपनी एक कहानी लखनऊ से निकलने वाली प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘माधुरी’ को भेजी थी. पर वह कहानी ‘संपादक प्रेमचंद को नहीं बल्कि ग्रंथकार प्रेमचंद’ को प्रेषित थी. वह पहली कहानी तो वापस लौटा दी गई पर दूसरी कहानी को स्वीकार करते हुए प्रेमचंद ने जिस सीधे-सरल तरीके से उत्तर दिया था, उसे याद करते हुए जैनेन्द्र लिखते हैं,

‘उत्तर में मुझे एक कार्ड मिला. उसमें दो-तीन पंक्तियों से अधिक न थीं. इस पत्र पर मैं विस्मित होकर रह गया. पत्र में प्रोत्साहन का, बधाई का, प्रशंसा एक शब्द भी नहीं था. लेकिन जो था वह ऐसे सैकड़ों प्रोत्साहनों से भारी था. प्रेमचंदजी की अंतःप्रकृति की झलक पहली ही बार मुझे उस पत्र में मिल गई थी. वह जितने सद्भावना शील थे, उतने ही उन सद्भावनाओं के प्रदर्शन में संकोची थे. नेकी हो तो कर देना, पर कहना नहीं- यह उनकी आदत हो गई थी.’

जैनेन्द्र प्रेमचंद के इस पत्र पर सोचते हुए बाद में भी लिखते हैं कि ‘अगर उस पत्र के साथ कृपा एवं अनुग्रह से भरे वाक्य भी होते तो क्या बेजा था! लेकिन प्रेमचंद वह व्यक्ति था जो उनसे ऊंचा था. उसने कभी यह जाना ही नहीं कि उपकार किया है या वह कर सकता है. नेकी उससे होती थी, उसे नेकी करने की ज़रूरत न थी.’

पर किसी भी किशोर की तरह अधीर होकर जब उन्होंने प्रेमचंद से इसरार किया कि वह कहानी अगले ही अंक में छाप दी जाए तो संपादक प्रेमचंद अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए यह लिखते हैं कि चूंकि वह कहानी (फलां) विशेषांक के लिए चुन ली गई है तो उसी में छपेगी. यह उत्तर एक संपादक के रूप में प्रेमचंद की गंभीर कर्तव्यनिष्ठता की ओर संकेत करता है.

जैनेन्द्र प्रेमचंद की इस ‘ममताहीन सद्भावना’ पर चकित होकर रह गए थे. यह घनिष्ठ विशिष्टता एक व्यापक अर्थ में प्रेमचंद के साहित्य की भी पृष्ठभूमि बनती है जिसके संदर्भ में वह कहते हैं, ‘उनके साहित्य के रग-रग में सद्भावना व्याप्त है. लेकिन भावुकता में वह सद्भावना किसी भी स्थल पर कच्ची या उथली नहीं हो गई. वह अपने में समाई हुई है, छलक-छलक नहीं पड़ती.’

फिर तो जैनेन्द्र और प्रेमचंद के बीच पत्र-व्यवहार का यह सिलसिला साहित्य के वृहत्तर प्रश्नों से जाकर जुड़ने लगा. पर उम्रों और अनुभवों के अंतर के बावजूद भी यहां श्रेष्ठता और अहं की कोई जगह न थी. जैनेन्द्र अपनी हर अस्वीकृत कहानी पर प्रेमचंद से वाद-विवाद करते और प्रेमचंद उनकी शंकाओं के बेधड़क उत्तर देते. लिखने की इच्छा रखने वाले एक जिज्ञासु किशोर को गंभीरता से न भी लेना प्रेमचंद का अधिकार था, पर अपने ओहदे को विशिष्ट बनाए रखने की चाह में वह मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रखना न जानते थे.

उनकी आपसी चर्चाओं से लेखक प्रेमचंद की रचनादृष्टि का भी पता चलता है. मसलन किसी अवसर पर प्रेमचंद ने कहानी के लिए आवश्यक तत्वों की बात की है जो उनके व्यक्तित्व का ही प्रसार मालूम पड़ती है. जैनेन्द्र की शंकाओं के उत्तर में प्रेमचंद ने उन्हें यह सुझाया और याद रखने को कहा था कि ‘कहानी हृदय की वस्तु है, नियम की वस्तु नहीं है. नियम हैं और वे उपयोगी होने के लिए हैं. हृदय के दान में जब वे अनुपयोगी हो जाएं तब बेशक उन्हें उल्लंघनीय मानना चाहिए.’ प्रेमचंद की यह राय उनके साहित्य का ही निचोड़ है. उनकी कहानियां उनकी व्यावहारिक बुद्धि से अधिक उनके हृदय की मान्यताओं की अभिव्यक्ति हैं.

मानव हृदय को उसकी सम्पूर्ण विचित्रता में वह अपने कथा-संसार में उभारते हैं. चाहे वह उनकी आदर्शवादी कहानियों में होने वाले हृदय परिवर्तन हों (दो बैलों की कथा, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी, शांति, मंत्र, दुर्गा का मंदिर, पंच परमेश्वर इत्यादि में) या बाद के यथार्थवादी लेखन में होने वाले मोहभंग (गोदान, कफ़न, सद्गति, लांछन, ठाकुर का कुआं जैसी रचनाओं में) उन्होंने नियमों की लीक नहीं पकड़ी, कथ्य में जो कहना उनका अभीष्ट था वह ही उनकी कहानियों का शिल्प बन गया. इसीलिए प्रेमचंद के साहित्य को हम हृदय से निकले हुए विचारों की तरह पाते हैं जो किसी भी साधारण मनुष्य की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है और तभी संभवतः उनका प्रभाव भी इतना गहरा होता है.

हिंदी साहित्य में जिस प्रकार उन दिनों विभिन्न लेखन शैलियों के अपने-अपने गढ़ बनने की, स्कूल विकसित होने की बात चलने लगी थी, उसके संदर्भ में प्रेमचंद स्वयं हमें बहुत उत्साहित और सतर्क नहीं दिखलाई पड़ते.

जैनेन्द्र को लिखे एक पत्र में वह इस ओर इशारा करते हुए ही कहते हैं कि जिस रियलिज्म की इतनी चर्चा उन दिनों होने लगी है, सही मायनों में तो ‘रीयलिस्ट हममें से कोई भी नहीं है. हममें से कोई भी जीवन को उसके यथार्थ रूप में नहीं दिखाता: बल्कि उसके वांछित रूप में ही दिखाता है. मैं नग्न यथार्थवाद का प्रेमी भी नहीं हूं.’

कथादृष्टि की यह विशिष्टता उनके पूरे साहित्य में दिखलाई पड़ती है. कफ़न (1935) के हृदयविदारक यथार्थ में भी नशे की ही हालत में सही पर वह आंतरिक मानवीयता घीसू और माधव में दिख जाती है, जो कहानी को पूरा स्याह नहीं बनाती.

जैनेन्द्र के संस्मरण यह स्पष्ट करते हैं कि प्रेमचंद का जीवन अपने लेखन से अलग नहीं था. जिन संघर्षों, अनथक परिश्रम और कठिन अनुभवों ने उनके जीवन को गढ़ा था, वह ही उनके लेखन में अभिव्यक्त होता आया. एक साहित्यकार-सर्जक होने की श्रेष्ठता और अहं भावना उनके भीतर न थी. जिसके कथा-साहित्य को यूं हाथों-हाथ जनता लेती थी, उसका निजी जीवन शोर-शराबे, सभा-समारोहों से दूर अपने छोटे शहर के गुमनाम मोहल्ले और घरों में बीता करता था. युग के महत्वपूर्ण लेखक की उनकी छवि उनके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग पड़ती थी.

जैनेन्द्र ने जिस प्रेमचंद की कल्पना उनकी रचनाओं और उनकी संपादित पत्रिकाओं से की थी, यथार्थ में मिलने वाले प्रेमचंद उससे साफ अलग थे. प्रेमचंद से अपनी पहली मुलाकात के संदर्भ में वह लिखते हैं:

‘प्रेमचंद के नाम पर वह सामने खड़ा व्यक्ति, साधारण, इतना स्वल्प, इतना देहाती मालूम हुआ था. …अपने ही जीवन इतिहास की वह प्रतिमा थे. उनके चेहरे पर बहुत कुछ लिखा था जो पढ़ने योग्य था. मैं सोचा करता हूं कि बादाम में गिरी के लिए, उस गिरी में मिठास के लिए, उस मिठास की रक्षा के लिए क्या यह नितांत और अनिवार्य है कि उसके ऊपर का छिलका खूब सख्त हो. मैं मानता हूं कि उस छिलके को कड़ा होने का अवकाश, वैसी सुविधा न हो तो बादाम की गिरी को कभी वैसा उपादेय बनने का सौभाग्य भी नसीब न है.’

और यह क्या ही विरोधाभास था कि जीवन के संघर्ष प्रेमचंद के हृदय को कठोर न बना पाए. सहज विश्वास कर लेना उनकी विशेषता थी और अनेकानेक अवसरों पर उनकी सबसे बड़ी मुश्किल भी. जैनेन्द्र ऐसे कई उदाहरण अपने संस्मरण में देते हैं, जहां प्रेमचंद अपने स्वभाव के कारण कई बार सैकड़ों रुपये का नुकसान कर बैठे थे.

एक बार तो हद ही हो गई जब एक मामूली परिचय वाले युवक ने न केवल अपने विवाह के लिए सभी खर्चे प्रेमचंद से करवा लिए बल्कि नई वधू के गहने भी प्रेमचंद ने गढ़वाए और महीनों सुनारों के तगादे करते रहे. जैनेन्द्र से अपने इस तरह ठगे जाने का ज़िक्र करने पर भी प्रेमचंद को अपने छले जाने का बहुत अफ़सोस न था. जैनेन्द्र भी टिप्पणी करते हैं कि इतना घाटा सहने के बाद भी उनका हृदय नए आघातों और धोखों के लिए एक बार फिर नए सिरे से तैयार था.

कला के साधक के रूप में जिस प्रेमचंद में ‘मानवीय भावनाओं और अपरिमित स्नेह का दैन्य न था’, व्यक्ति प्रेमचंद को जीवन में आर्थिक संघर्ष ताउम्र करना पड़ा. ‘चिरसंगिनी दरिद्रता’ के अनुरोध पर ही वह बंबई फिल्म इंडस्ट्री जाने का विचार करते हैं ताकि वहां साल भर रहने के बाद कुछ ऐसा कान्ट्रैक्ट कर सकें कि ‘यहीं बैठे-बैठे तीन चार कहानियां लिख दिया करूं और चार-पांच हज़ार रुपये मिल जाया करें. उससे जागरण और हंस दोनों मजे में चलेंगे और पैसों का संकट कट जाएगा.’

साहित्य की सेवा करने के लिए ही उन्हें पैसों की ज़रूरत थी और लगातार होने वालों घाटों ने सही मानों में उनकी कमर तोड़ दी थी. मृत्यु शैया पर भी हंस पत्रिका के निकलने की चिंता से वह ग्रस्त थे.

जैनेन्द्र के संस्मरण व्यक्ति प्रेमचंद के एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष का भी पता देते हैं. जब प्रेमचंद की तमाम रचनाओं में हम सत्य और असत्य, अच्छाई और बुराई, अंधकार और प्रकाश, नैतिक और अनैतिक के बीच एक स्पष्ट विभाजन देखते हैं, तब कहीं-न-कहीं हमारा मन ईश्वर पर उनकी अडिग आस्था में मानने के लिए बाध्य हो जाता है. पर अपने निजी जीवन में स्वयं प्रेमचंद की धारणाएं ईश्वर के प्रति इतनी उदार न थीं. उन्हें मनुष्य के ईश्वरत्व में तो विश्वास था, पर स्वयं ईश्वर की सत्ता के प्रति वह बहुत आश्वस्त न थे. एक हद तक वह नास्तिक ही थे. परमात्मा के प्रति अपनी आस्था के संदर्भ में वह जैनेन्द्र को कहते हैं,

‘जैनेन्द्र मैं कह चुका हूं, मैं परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता. मैं उतना विश्वास नहीं कर सकता. कैसे विश्वास करूं जब देखता हूं बच्चा बिलख रहा है, रोगी तड़प रहा है, यहां भूख है, क्लेश है, ताप है, वह ताप इस दुनिया में कम नहीं है. तब उस दुनिया में मुझे ईश्वर का साम्राज्य नहीं दिखे तो यह मेरा कसूर है? मुश्किल तो यह है कि ईश्वर को मानकर उसे दयालु भी मानना होगा. मुझे वह दयालुता नहीं दिखती.’

 अंत-अंत तक भी जब मृत्यु के एकदम समीप वह खड़े थे, उनका मन ईश्वर के प्रति अनुरक्त न हो सका था. मृत्यु-शैया पर पड़े प्रेमचंद जैनेन्द्र से कहते हैं: ‘जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय याद किया करते हैं ईश्वर. मुझे भी याद दिलाई जाती है. पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की ज़रूरत नहीं मालूम हुई है.’

पर इसका अर्थ यह न था कि वह सामाजिक श्रद्धा और आचार-व्यवहार को न मानते थे. उनका व्यक्तित्व इस स्तर पर कई विरोधाभासों का अद्भुत समन्वय था. इसी समन्वय को देखते हुए जैनेन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रेमचंद अत्यंत सप्रश्न थे, किंतु तभी अत्यंत श्रद्धालु भी थे. कई छोटी-मोटी बातों को ज्यों का त्यों मानते और पालते थे, कई बड़ी-बड़ी बातों में साहसी सुधारक थे.’

साहसी सुधारक का यह स्वर प्रेमचंद में इतना प्रखर था कि आज के संदर्भों में भी वह प्रेमचंद को सबसे अधिक प्रासंगिक लेखक बनाता है. प्रेमचंद अपने समय में सांप्रदायिक शक्तियों से कितनी बड़ी वैचारिक लड़ाई लड़ रहे थे, इसकी बानगी जैनेन्द्र को लिखे एक पत्र में मिलती है.

प्रसंग आचार्य चतुरसेन शास्त्री की सन 1933 में आई रचना इस्लाम का विष वृक्ष  का है. प्रेमचंद लिखते हैं ‘और इन (चतुरसेन) को हो क्या गया है कि ‘इस्लाम का विष वृक्ष’ लिख डाला. उसकी एक आलोचना तुम लिखो और वह पुस्तक मेरे पास भेजो. इस कम्युनल प्रोपगैंडा का ज़ोरों से मुकाबला करना होगा.’

जैनेन्द्र की अपनी टिप्पणी उनके व्यक्तित्व का एक सशक्त मूल्यांकन है जब वह कहते हैं कि चाहे कैसी भी अवस्था हो साहित्य में कदर्प और कदर्थ का विरोध करने में प्रेमचंद को हिचक न होती थी.

बहरहाल, जीवन में किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता अनायास होती है. वह हमारे जीवन जीने की प्रक्रिया में ही हमारे विचारों का एक सहज अंग बन जाती है. लेखक के रूप में प्रेमचंद ने जिस साहित्य को रचा है उसके पीछे कोई सुनियोजित, सतर्क योजना नहीं रही. उनकी कहानियों की कथावस्तु, पात्र, स्थितियां, दर्शाई गई समस्याएं- यह सब उनके स्वयं अपने आस-पास के जीवन से गहराई से जुड़े सरोकारों के कारण हैं. इसीलिए वह अपने जीवन से कटा हुआ कुछ नहीं लिख रहे थे. और यही कारण है कि प्रेमचंद के साहित्य की प्रासंगिकता आज के पाठकों के लिए भी उतनी ही है या अगर विचार करें तो अधिक है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)