अंतरराष्ट्रीय विवादों पर मध्यस्थता और चीन का बढ़ता प्रभुत्व

पिछले दशक में चीन दुनिया के प्रमुख मसलों को सुलझाने के लिए आगे आया है. यह रणनीति चीन को अमेरिका के बरअक्स स्थापित कर रही है, और उसे अफ्रीका व एशिया के उन देशों का समर्थन भी दिला रही है जो अमेरिका और पश्चिम से सशंकित रहते हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग (फोटो साभार: kremlin.ru)

नई दिल्ली: पिछले दशक में चीन सिर्फ बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए नहीं बल्कि दुनिया के प्रमुख मसलों को सुलझाने के लिए पहचाना जाने लगा है. हाल के वर्षों में चीन अंतरराष्ट्रीय मसलों पर मध्यस्थता को लेकर अत्यधिक सक्रिय हो गया है. अफगानिस्तान, बांग्लादेश, सीरिया और इजरायल जैसे देशों में संघर्ष को रोकने या उसका हल खोजने के लिए चीन आगे आ रहा है.

आखिर क्यों चीन बतौर मध्यस्थ एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर रहा है?

साल 2012 में चीन केवल तीन अंतरराष्ट्रीय मसलों पर मध्यस्थता कर रहा था, 2017 में यह संख्या नौ हो गई. ध्यान रहे 2012 में शी जिनपिंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के महासचिव बने थे, और 2013 में चीन के राष्ट्राध्यक्ष. चीन की मध्यस्थता गतिविधियों में सक्रियता साल 2013 से शुरू होती है. इसी वर्ष बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) शुरू हुआ था. इससे पहले चीन अंतरराष्ट्रीय मसलों पर मध्यस्थता के लिए अपेक्षाकृत अनिच्छुक दिखाई देता था.

बीआरआई के साथ चीजें बदल गईं. चीन न सिर्फ़ मध्यस्थता प्रयासों पर अधिक ध्यान देने लगा, यह अपनी गतिविधियों को मीडिया के माध्यम से सक्रिय रूप से प्रचारित करने लगा. गौरतलब है कि चीन ने अपने मध्यस्थता प्रयासों को दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व और पूर्वी अफ्रीका पर केंद्रित किया है – जो बीआरआई के लिए रणनीतिक-आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं.

चीन यह भूमिका इसलिए भी निभा पा रहा है क्योंकि वह एक शक्तिशाली अर्थव्यवस्था बन चुका है. चीन की विशाल अर्थव्यवस्था उसे विश्व स्तर पर प्रभुत्ववान बनाती है. चूँकि उसका तमाम देशों में निवेश है, उसकी आर्थिक शक्ति उसे इन देशों के बीच मध्यस्थता के लिए सक्षम बनाती है.  

फिलिस्तीन के विभिन्न गुटों के बीच चीन ने किस समझौते को अंजाम दिया? इसका क्या भविष्य है?

इजरायल-फिलिस्तीन के बीच जारी हालिया संघर्ष में जहां पश्चिम की सरकारों ने एकतरफा रुख अपनाते हुए इजरायल के साथ एकजुटता दिखाई है, वहीं चीन ने फिलिस्तीन को संगठित करने का प्रयास किया है. चीन के प्रयासों से इजरायल के प्रतिद्वंद्वी फतह और हमास ने संयुक्त रूप से गाजा और वेस्ट बैंक में अंतरिम सरकार चलाने पर राज़ी हुए हैं. बता दें कि चीन फिलिस्तीनी मुद्दे के प्रति सहानुभूति रखता रहा है और द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थक रहा है. 

पिछले सप्ताह फिलिस्तीनी गुटों ने एक ‘राष्ट्रीय एकता’ समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसका उद्देश्य इजरायल से युद्ध समाप्त होने के बाद गाजा पर फिलिस्तीनी नियंत्रण बनाए रखना है. चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा था कि तीन दिनों की गहन वार्ता के बाद मंगलवार (22 जुलाई, 2024) को फिलिस्तीन के अलग-अलग धड़ों के प्रतिनिधि साथ मिलकर सरकार चलाने को तैयार हुए हैं. इस समझौते पर पुराने प्रतिद्वंद्वी हमास और फतह के साथ-साथ 12 अन्य फिलिस्तीनी समूहों ने भी हस्ताक्षर किया है. इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों का एक मंच पर आना ऐतिहासिक है, और चीन की कूटनीतिक उपलब्धि भी. 

इस साल अप्रैल में भी चीन ने फतह और हमास की मेजबानी की थी. वार्ता के नवीनतम दौर में हमास के राजनीतिक गुट के प्रमुख इस्माइल हनीयेह और फतह के उप प्रमुख महमूद अल-अलौल शामिल थे.

हालांकि, इजरायल फिलिस्तीनों धड़ों के बीच करार से नाखुश है. वह गाजा पर शासन करने में हमास की भूमिका का कड़ा विरोध करता है. हमास के साथ सहयोग करने के लिए फतह प्रमुख और फिलिस्तीनी प्राधिकरण के अध्यक्ष महमूद अब्बास पर निशाना साधते हुए इजरायल के विदेश मंत्री इजरायल काट्ज़ ने कहा कि संघर्ष समाप्त होने के बाद गाजा पर इजरायल के अलावा किसी का नियंत्रण नहीं होगा.

दिलचस्प है कि समझौते को एक सप्ताह ही बीता है और हमास के नेता इस्माइल हनीयेह की ईरान की राजधानी तेहरान में हत्या (30 जुलाई) कर दी गई है. इस हमले की किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली है. लेकिन हमास इसे यहूदी हमला बता रहा है. ईरान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि हनीयेह का बलिदान बेकार नहीं जाएगा. वहीं  अयातुल्ला अली खामेनेई ने कहा कि हनीयेह की हत्या का बदला लेना तेहरान का कर्तव्य है. 

यह चीन के सामने चुनौती है कि हमास के प्रमुख नेता की हत्या के बाद वह हालिया समझौते को कैसे साधता है.

सऊदी-ईरान के बीच समझौता और चीन की कूटनीतिक सफलता 

पिछले साल मार्च में जब चीन के प्रयासों से मध्य पूर्व के दो प्रतिद्वंद्वी देश ईरान और सऊदी अरब ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की अप्रत्याशित घोषणा की, तो पूरी दुनिया विशेषकर पश्चिम चकित रह गया था. अमेरिका लंबे समय से मध्य पूर्व में अपनी राजनीतिक शक्ति और प्रभाव बनाए हुए है. लेकिन इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती पैठ इस गणित को बदल रही है. 10 मार्च, 2023 को सऊदी अरब और ईरान ने चीन की मध्यस्थता से संबंधों के सामान्य होने की घोषणा की थी. एक संयुक्त त्रिपक्षीय बयान में कहा गया था कि सऊदी अरब और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान के बीच समझौता हो गया है. बयान में दोनों देशों ने राजनयिक संबंध बहाल करने और कुछ ही महीनों में दूतावासों को फिर से खोलने की बात कही थी.  

सामरिक दृष्टि से यह एक मास्टर स्ट्रोक था. खाड़ी के दुश्मन देशों को एक दूसरे के करीब लाकर चीन यह दिखाने में कामयाब रहा कि वह दुनिया के सबसे अशांत क्षेत्रों में भी संतुलन बहाल कर सकता है, जबकि अमेरिका इन दोनों शक्तियों को एकसाथ लाने में विफल रहा था. सऊदी और ईरान के समझौते को अंजाम देकर चीन ने अपने लिए दो महत्वपूर्ण तेल उत्पादकों का समर्थन भी हासिल कर लिया. रियाद और तेहरान के बीच शांति समझौता खाड़ी में चीन के बढ़ते रणनीतिक और आर्थिक हितों को साधता है. 

चीन पिछले दशक में किन संघर्षरत देशों को समझौते के मंच पर लेकर गया है?

साल 2013 में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की शुरुआत के साथ चीन अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के मामलों में अधिक सक्रिय होता है. हालांकि प्रयास पहले भी जारी थे, लेकिन छोटे स्तर पर. पिछले एक दशक में चीन को सीरिया में गृह युद्ध, इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष, रोहिंग्या लोगों को लेकर बांग्लादेश-म्यांमार विवाद, अफगानिस्तान-पाकिस्तान विवाद, कोरिया और दक्षिण सूडान विवाद की मध्यस्थता करते देखा गया है. इससे पहले चीन नेपाल, ज़िम्बाब्वे और रवांडा के घरेलू राजनीतिक संघर्षों में भी मध्यस्थता कर चुका है. 

चीन की मध्यस्थता अमेरिका की मध्यस्थता से किस तरह भिन्न है और इसका वैश्विक व्यवस्था पर क्या प्रभाव दिखाई दे रहा है?

सऊदी-ईरान समझौते का ही उदाहरण लेते हैं. चीन ने जो किया वह स्पष्ट रूप से अमेरिकी तरीके के विपरीत था, जहां ‘बड़े लोग’ (अर्थात वाशिंगटन) छोटे देशों पर अपनी इच्छा थोपते हैं. चीन का रवैया शांति बहाली के नाम पर दूसरे देशों की सरकार चलाने का नहीं रहा है- जैसे अमेरिका अफगानिस्तान समेत अन्य देशों में करता रहा है. चीन खुद को एक ऐसी शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता है, जो एक शांतिपूर्ण, बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था चाहता है, न किसी एक देश का आधिपत्य. 

यह रणनीति चीन को अमेरिका के बरअक्स स्थापित कर रही है, और चीन को अफ्रीका व एशिया के उन तमाम देशों का समर्थन भी दिला रही है जो अमेरिका और पश्चिम से सशंकित रहते हैं.