मुझे पता है, आप सोच रहे होंगे, ‘अरे, यह क्या बेतुका सवाल है ? गोलगप्पा किसको पसंद नहीं होता ? इस में लड़के-लड़की वाली बात कहां से आ गई?‘
लेकिन, हम अगर गौर से देखे तो गोलगप्पा सामाजिक व्यवहार की एक कहानी सुनाता है. लैंगिक असमानता की कहानी. हमारी पसंद और स्वाद की वजह कुदरती ही नहीं, उनकी सामाजिक जड़ें भी हैं. जो हम पसंद करते हैं, वह सिर्फ हमारे डीएनए की वजह से नहीं होता, परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है.
गोलगप्पे को लेकर ताज़ा आंकड़े
मैं एक शोधार्थी हूं. हिंदुस्तान में दोस्ती के विषय पर शोध कर रहा हूं. अपनेपन और प्रेम के निर्माण में भोजन एक अहम किरदार है. हम क्या खाते हैं? किसके साथ? कहां? कैसे? यह सामाजिक संरचना के बारे में बहुत कुछ बताता है.
मैंने इस सिलसिले में बिहार के पूर्णिया शहर में नवंबर 2021 से मई 2022 तक एक सर्वे किया था. इसमें 525 महिलाएं और पुरुष शामिल थे, अलग-अलग उम्र के, अलग-अलग वर्गों के. उन से 100 से ज़्यादा सवाल पूछे गए, जिनमें से एक था: ‘घर के बाहर आपका पसंदीदा नाश्ता/स्नैक क्या है?‘
नतीजा काफी स्पष्ट और दिलचस्प उभर कर आया. पूर्णिया की महिलाएं गोलगप्पे की बेहद शौक़ीन निकलीं. उनके जवाबों में पानी-पूरी का ज़िक्र बार-बार हुआ (63%) जबकि पुरुषों ने गोलगप्पों को काफी कम भाव दिया (7%). पुरुषों की पसंदें अनेक जगहों पर बिखरी हुई थीं: चाय, समोसे, लिट्टी, इत्यादि…
मैं इन आंकड़ों को और प्रामाणिक बनाना चाहता था. इसलिए मैंने एक और सर्वे किया पूर्णिया के मुख्य मार्केट, बट्टा बाज़ार में. वहां मैंने गिनती की कि इस बाजार के 120 ठेलों पर कौन-कौन खाना खाने आता है. मैंने पाया कि जहां गोलगप्पा बिकता है, वहां महिलाएं ज़्यादा मौजूद होती हैं.
इन आंकड़ों से नज़र आ रहा है कि महिलाओं और पानी-पूरी का कोई संबंध तो है. मेरे पास बाकी हिंदुस्तान का डेटा नहीं है, लेकिन मेरा अनुमान है कि यह चलन पूर्णिया तक सीमित नहीं होगा. आप खुद गूगल, क्वोरा और रेड्डिट देख लीजिए. बहुत सारे लोग यह सवाल पूछ चुके हैं कि आख़िर भारतीय लड़कियों और गोलगप्पों के बीच इतना ख़ास रिश्ता क्यों है?
क्या यह सिर्फ़ ज़ायके का मामला है?
जब मैंने इस बारे में पूर्णिया के निवासियों से पूछा तो ज़्यादातर यही जवाब आया: स्वाद की बात है. सभी सहमत थे कि लड़कियां खट्टापन और तीखापन बहुत ज़्यादा पसंद करती हैं.
शुरू में मुझे लगा यह सब बकवास है. लेकिन शोध करके पता चला कि इस दावे में कुछ सच तो है. कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, औरतों की जीभ खट्टा स्वाद बहुत अच्छे से महसूस करती है, और इसी वजह से पुरुषों की तुलना में उनको खट्टेपन से ज़्यादा मज़ा आता है. इसी तरह, एक अन्य रिसर्च के मुताबिक, महिलाएं तीखा बेहतर तरीके से सह सकती हैं मर्दों के मुकाबले.
लेकिन ऐसा नहीं कि जिसे चटपटा खाने की तमन्ना है, उनके लिए गोलगप्पा इकलौता विकल्प है. मिसाल के तौर पर चाट (जो कि पूर्णिया में सफेद मटर से बनता है) में भी वही तीखापन है, वही खट्टापन है. लेकिन, सर्वे के अनुसार, महिलाएं ज़्यादातर गोलगप्पे को चुनती हैं.
इसका मतलब है कि कुछ और है लड़कियों और पानी-पूरी की प्रेम कहानी के पीछे. क्या इसमें समाज का हाथ है?
संस्कारी स्नैक: गोलगप्पा सामाजिक नियमों से बचने का बहाना
मेरे अनुसार पूर्णिया जैसे छोटे शहरों की महिलाओं के लिए पानी-पूरी सिर्फ लज़ीज़ स्नैक ही नहीं, एक बहाना भी है, घर से बाहर जाने का और मस्ती करने का.
पूर्णिया की औरतों के लिए बाज़ार में घूमना आसान नहीं है. छेड़छाड़ की चिंता, परिवार की रोक-टोक, समाज की निगाह- अलग-अलग तरह की रुकावटें हैं. सर्वे के अनुसार, महिलाओं की सबसे बड़ी दिक्कत असुरक्षा नहीं थी. सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि समाज में यह अपेक्षा फैली हुई है कि औरतों को अपना सारा वक़्त घर वालों को देना चाहिए. अगर कोई औरत बाहर मस्ती करती देखी जाएगी, तो लोग शक कर सकते हैं कि वह घर की ज़िम्मेदारी की परवाह नहीं करती.
यह मानसिकता सिर्फ मर्दों की ही नहीं, बल्कि महिलाओं की भी है. 50% महिलाओं का मानना था कि एक आदर्श पत्नी के लिए अपनी सहेलियों के साथ वक़्त बिताना समय की बर्बादी है.
बीस साल की रूपा कुमारी ने इसे इस तरह समझाया, ‘जब भी हम अपनी दोस्तों के साथ घर से बाहर निकलते हैं, तो गिल्ट महसूस होता है कि हम सेल्फ़िश हैं और सिर्फ अपनी ख़ुशी के बारे में सोचते हैं.’
अब ज़रा सोचिए जब मर्द लोग सड़क पर चाय पीते हैं, तो बड़े आराम से पीते हैं. शरीर फैलाकर बैठेंगे, सिगरेट जलाएंगे, अड्डेबाज़ी करेंगे. सिर्फ चाय की बात नहीं है , मोमो, समोसे, चाऊमीन, जिन्हें भी हम फास्ट फूड कहते हैं, मर्दों के पास आज़ादी रहती है उनको ‘स्लो’ खाने की.
लेकिन महिलाओं के लिए इस तरह से टाइमपास करने की गुंजाइश नहीं है. जैसा कि ज़बरदस्त किताब व्हाय लोइटर? में वर्णन किया गया है, सड़क पर महिलाओं को ज़्यादातर व्यस्त और संजीदा नज़र आना चाहिए, ताकि लोग उनके चरित्र पर सवाल न उठाएं.
36 साल की नेहा ने मुझे बताया, ‘चौक पे हम चाय कभी नहीं पीते, क्योंकि लोग सोचेंगे हम फ़िज़ूल की लफुआबाज़ी कर रहे हैं [यानी फालतू की आवारापन]. बोलेंगे, घर पर भी चाय मिलती है न, बाहर बैठकबाज़ी करने की क्या ज़रूरत है?’
पर अब देखिए पानी-पूरी का फंडा कैसा है. कुरकुरी पूरी और मसालेदार पानी की जोड़ी ऐसी है कि अगर देर करेंगे, वह घुल जाएगी, और उसके साथ खाने का आनंद भी. इसलिए गोलगप्पा फटाफट खाया जाता है. पांच मिनट के अंदर ही पार्टी ख़त्म हो सकती है. 24 साल की निष्ठा ने एक चुटकुला सुनाया, ‘आपको पता है गोलगप्पे को ‘गुपचुप’ भी क्यों कहते हैं? एकदम से चुपचाप खा लो और घर वापस जाओ!’
इसका मतलब नहीं है कि हंसी-वंसी नहीं होती खाते वक़्त- होती है, बहुत ज़्यादा! लेकिन गोलगप्पे के साथ मर्दों जैसा वक़्त लगाकर अड्डेबाज़ी मारना मुशिकल होता है.
महिलाओं के लिए गोलगप्पा का फ़ायदा यह है कि खाते समय उन्हें सड़कों पर ज़्यादा देर ठहरने की कोई ज़रूरत नहीं. इस तरह, गोलगप्पा सबसे संस्कारी स्नैक बनकर उभरा है!
शायद इसी कारण पानी-पूरी को लेकर समाज ज़्यादा सवाल नहीं उठता है.
गोलगप्पा, ‘लेडीज वाला‘ स्नैक?
ऐसा लगता है कि समाज ने मान लिया है कि गोलगप्पा लड़की वाली चीज़ बन गया है. पूर्णिया में गोलगप्पे के ठेले लड़कियों की तस्वीरों से सजाए जाते हैं, जैसे कि उनका प्राइम टारगेट वही हैं. जैसे लोग मानने लगे कि पड़ोसियों के साथ भजन गाना या किटी पार्टी करना भारतीय महिलाओं की पहचान बन गई है, वैसे ही समाज गोलगप्पा खाना लड़कियों की आदत समझने लगा है.
सिनेमा ने भी गोलगप्पे को महिलाओं से जोड़ दिया है. जैसे सोहिनी चट्टोपाध्याय ने रेखांकित किया है, हिंदी फिल्मों में महिलाएं खाना खाते हुए नज़र बहुत कम दिखती हैं. लेकिन जब दिखती हैं तो मुंह में ज़्यादातर पानी पूरी ही मिलता है. गूड न्यूज़ (2019), जिनी वेड्स सनी (2020), पगलैट (2021),रक्षा बंधन (2022), कटहल (2023)… यह सिलसिला अभी भी जारी है.
एक पानी पूरी वाले ने मुझसे कहा, ‘गोलगप्पा खाने से चंचलता बढ़ जाती है. लड़कियां चंचल होती हैं, इसलिए वे खुद को रोक नहीं पातीं.’
इसलिए यह सही है कि महिलाएं गोलगप्पे ज्यादा खाती हैं. लेकिन यह उनका कोई प्राकृतिक गुण नहीं. सामाजिक परिस्थिति का परिणाम है.
जो भी हो, कम से कम लड़कियों का गोलगप्पे खाते हुए नज़ारा आम और स्वीकार्य हो ही गया, और शायद इसी वजह से पूर्णिया जैसी जगह में लड़कियों के लिए सहेलियों के साथ मार्केट जाना थोड़ा सा आसान हो गया है (चाऊमीन खाने जाएंगे तो शायद लोग ज़्यादा आपत्ति जताएंगे).
लेकिन उम्र का फ़र्क भी पड़ता है. नौजवान लड़कियां ठीक है, लेकिन जहां तक अधेड़, शादीशुदा औरतों की बात है, उनके बाहर निकलकर गोलगप्पे खाने पर काफी ऐतराज़ रहता है. एक 45 साल की गृहिणी ने मुझसे यही कहा, ‘हम नहीं खाती गोलगप्पे, यह बच्चों के लिए है.’
बड़े-बड़े शहरों में छोटी बात, छोटे-छोटे शहरों में बड़ी बात
मैं मानता हूं कि अगर आप दिल्ली, मुंबई या किसी बड़े शहर में रहते हैं, तो आपका अनुभव बिल्कुल अलग हो सकता है. बात यह है कि जिनके पास पैसा है, उनके लिए मामला इतना पेचीदा नहीं है. अगर उन्हें दोस्तों से मिलना हो, तो ढेर सारे विकल्प हैं. सीधे कॉफ़ी शॉप या एसी वाले रेस्टोरेंट में बैठ सकते हैं. सड़क से बचना आसान है. इसलिए उन लोगों के लिए गोलगप्पे का मतलब सिंपल सा है: एक बहाना नहीं, बस मज़ा ही मज़ा.
लेकिन पूर्णिया जैसे छोटे शहरों में गोलगप्पे की एक और भूमिका हो सकती है. घर के बाहर निकालने के लिए महिलाओं को अक्सर कोई तरकीब निकालनी पड़ती है. पानी पूरी, जो मिनटों में खाई जाती है, और जो कि आजकल लोगों के लिये लड़की वाली चीज़ समझी जाती है, ऐसी बढ़िया तरकीब बन सकती है.
इसलिए मैं कह रहा हूं कि हमारी पसंदें अक्सर हमारी सामाजिक स्थिति पर टिकी होती हैं.
अब आप शायद यही सोच रहे होंगे कि मैंने ज़्यादा सोच साझा कर गोलगप्पे का लुत्फ़ बिगाड़ दिया. इसलिए मेरी एक ही राय बाकी है: आप गोलगप्पे खाते रहिए, और वह भी बेझिझक.
(लेखक दिल्ली स्थित फ्रेंच सामाजिक विज्ञान केंद्र (CSH)से जुड़े शोधार्थी हैं.)