इतिहास की बावरी स्त्रियां

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अरुंधति सुब्रमण्यम की किताब ‘वाइल्ड वीमेन’ के परिप्रेक्ष्य में यह जानना बहुत आश्वस्तिकर है कि भारत में पहले भी स्त्री बोलती रही है, आवेग, समझ, निर्भीकता और साहस से.

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(फोटो साभार: penguin.co.in) (इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

मीरा ने अपने एक पद में यह कहा है कि लोग कहते हैं कि मीरा बावरी हो गई है. अंग्रेज़ी कवि और साधिका अरुंधति सुब्रमण्यम ने पेंगुइन से भारतीय पवित्र कविता का एक संचयन संपादित कर प्रकाशित किया है, ‘वाइल्ड वीमेन’ यानी बावरी स्त्रियां. उसमें थेरीगाथा से लेकर बीसवीं शताब्दी तक स्त्रियों द्वारा, स्त्रियों को चरित्र बनाकर लिखी गई तथाकथित आध्यात्मिक कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद में चयन किया गया है.

यह संचयन चौतरफ़ा हस्तक्षेप है. एक, वह औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक विस्मृति के बरक़्स हमारी जातीय स्मृति का पुनर्वास करता है. दो, स्त्रियों का सशक्तिकरण आधुनिकता का उपहार या परिणाम है इस ग़लतफ़हमी को वह पर्याप्त सर्जनात्मक साक्ष्य द्वारा दूर करता है. तीन, इस समय मुखर-सक्रिय स्त्रीवाद को वह एक परिप्रेक्ष्य देता है. चार, इन दिनों जो पौरुषप्रधान धार्मिकता फैलाई जा रही है उसका एक सार्थक प्रतिरोध करता है.

ये बावरी स्त्रियां, अरुंधति अपनी भूमिका में कहती हैं, ‘हमारे जीवन के सच का इज़हार करती हैं- देह और आत्मा के बीच हाइफ़न और ज्ञात-अज्ञात के बीच कांपते रस्सीपुल का.

वे यह भी रेखांकित करती हैं कि ‘ये कविताएं हमें याद दिलाती हैं कि हम शरीर और आत्मा, धरती और आकाश दोनों हैं. वे ऐंद्रिक को पवित्र से अलग करने से इनकार करती हैं और हमें दोनों के भव्य उत्तराधिकार का मनुष्य होने के लिए अनिवार्यता का एहसास कराती हैं. ये कविताएं उन स्त्रियों ने लिखीं जिन्होंने उनमें अपनी आंतरिक यात्राओं में संस्कृति और आस्था के पहरेदारों से त्रस्त और बाधित किए जाने से इनकार किया, जिन्होंने अपनी आत्मा के अलावा किसी और बाह्य सत्ता से अनुशासित होने को नहीं माना. वे हमें याद दिलाती हैं कि अपने भयों-आकांक्षाओं-विगलन में हम अकेले या पहले नहीं हैं: आत्मा के पथ पर कई तरह से पहले भी चला गया है. अर्थ और आशय के लिए रात के आकाशों को पहले भी चीज़ों से भरा गया है.’

एक बौद्ध भिक्षुणी कहती है:

इतनी मुक्त. इतनी पूरी तरह से मुक्त हूं मैं.
–तीन कुटिल चीज़ों से मुक्त
पलस्तर, मूसल और कुटिल पति से.

7-9वीं शताब्दी की विद्या इसरार करती है:

मुझे न जानते हुए, विद्या,
एक नीली कमल पंखुरी की तरह सांवली,
आलोचक दंडी ने
काव्यकला और विद्या की देवी को
पूर्ण श्वेत घोषित कर दिया.

उलटबांसी कबीर से कई सदियों पहले, आठवीं सदी की लक्ष्मीकारा के यहां है:

आश्चर्य, एक हाथी सिंहासन पर बैठा है
दो मक्खियों द्वारा सम्हाला जाता-
अविश्सनीय! अंधा राह दिखा रहा,
गूंगा बोल रहा है.

तेरहवीं सदी की मुक्ता बाई के लिए अतियथार्थ ही कविता का यथार्थ है:

आकाश में सीधे ऊपर उड़ती चींटी ने
सूर्य को निगल लिया
बांझ स्त्री ने जन्मा बेटा
पाताल में पहुंचा एक बिच्छू
अपने हज़ार सिरों से शेष ने
झुककर उसका अभिवादन किया.

14-15वीं शताब्दी की लिरल कहती हैं:

किसने खींची यह देह इतनी नाजुक
किसने गढ़ा उसको इतना कमज़ोर?

पर इसी पात्र में वृक्ष, फल और माली
इसमें बग़ीचा, क्यारियां, पानी, और हवा
इसी में ताला, चाबी, और ताला बनाने वाला
इसी में बहती है गंगा और यमुना पवित्र स्नान करने के लिए.

इन कविताओं में बीच-बीच में कई प्रश्न गुंथे हैं जैसे ‘क्या पानी को प्यास लगती है’. 18वीं सदी की दया कहती हैं:

यहां न समय न आग जीवित रहते हैं
न सर्दी, न गर्मी
यहां, इस रहस्‍यमयी गहराई में
मैं अपने को पूरी तरह से घर में पाती हूं.

18वीं सदी की मुड्डूपलनी का कहना है:

सांसारिक चीज़ें और सांसारिक बंधन तजे जा सकते हैं
यहां तक कि शरीर की सांसें भी.
लेकिन अपने पुरुष को दूसरी स्त्री के लिए तजना
यह कौन स्त्री बर्दाश्त कर सकती हैं?

यह जानना बहुत आश्वस्तिकर है कि भारत में पहले भी स्त्री बोलती रही है, आवेग, समझ, निर्भीकता और साहस से.

युवा प्रतिमान

यह शिकायत नई नहीं है कि युवा पीढ़ी को लगता है कि उससे पहले की पीढ़ी के लोग उसको समझ और संवेदना, खुलेपन के साथ नहीं पढ़ते-समझते. यह शिकायत पूरी तरह से निराधार नहीं कही जा सकती. लेकिन, दूसरी ओर, यह भी सही है कि आज से पहले की युवा पीढ़ियां अक्सर अपनी बदली हुई काव्य-संवेदना, भाषा, दृष्टि आदि को लेकर कुछ-न- कुछ लिखती-बताती थीं.

कविता में सारे मोड़ युवा कवि ही लाए हैं. युवा ही परिवर्तन या विच्छेद की पहल करते रहे हैं. आज की युवा पीढ़ियां वैसे तो बहुत वाचाल हैं पर उन्होंने क्या परिवर्तन किए हैं और उनकी नज़र में उनकी रचना को समझने के लिए कौन सी नई अवधारणाओं का सहारा लेना चाहिए इस बारे में बहुत कम कहा-लिखा गया है. सो, हम उन्हीं कुछ तत्वों को रेखांकित कर सकते हैं जो अपनी निरंतरता में प्रायः सभी रचना पर लागू हो सकती हैं. ऐसा नहीं लगता कि युवा लोग इसमें किसी रियायत की मांग या अपेक्षा करेंगे.

सबसे पहले कल्पना का वितान. किसी लेखक या कृति में अनुभव का भूगोल कितना सघन या विस्तृत है, कितना विशद या विपुल है. अनुभव की ईमानदारी कितनी है और उसकी आत्मचेतना किस कोटि की है. यह भी सचाई की हर समय जो विचित्रता होती है उसका कितना एहसास है. साहित्य भाषा में लिखा जाता है इसलिए उसमें जो कुछ भी होता है वह प्रथमतः और अंततः भाषा में ही होता है. यह भाषा कितनी ताज़ी, सटीक है. रूपाकार में कितना अतिरेक और कितना संयम है. क्या भाषा वहां जाने की कोशिश करती है जहां वह पहले न गई हो?

जो दृष्टि रूपायित और चरितार्थ होती है उसमें मानवीय स्थिति, मानवीय व्यथा और यंत्रणा, मानवीय विडंबना, मानवीय विकृतियां, मानवीय विपुलता और संभावना आदि को लेकर कितनी गंभीरता और वेध्यता है. परिवर्तन, चाहे संवेदना के हों या अभिव्यक्ति के, बिना जोखिम उठाए, जो रूढ़ और स्वीकृत-मान्य है उससे विपथगामी हुए संभव नहीं होते. कितनी जोखिम उठाया गया है, कितनी विपथगामिता का साहस प्रगट होता है?

साहित्य निरे विचार या निरी संवेदना से सार्थक रूप से नहीं लिखा जा सकता. संवेदना और विचार का कितना आवयविक संगुम्फन है. जिस समय में विस्मृति एक अभियान के तहत हम पर लादी जा रही है, उस समय में साहित्य में स्मृति और उसकी सक्रियता अपना घर खोजती है. ऐसी स्मृति की क्या जगह, क्या उद्बुद्धि, क्या अंतर्ध्‍वनियां हैं?

कहा जा सकता है कि ये कुछ सख़्त आधार हैं और इन पर तो पिछली पीढ़ियों का साहित्य भी खरा शायद न उतरे. अगर नहीं उतरता तो उसकी कमियों को हमें पहचान सकना चाहिए. जोसेफ़ ब्रॉडस्की ने कहा था कि हम सिर्फ़ अपने समकालीनों के लिए नहीं लिखते, हम अपने पूर्वजों के अनुमोदन के लिए भी लिखते हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)