नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने माना है कि किसी समुदायों के अधिक पिछड़े लोगों के लिए अलग कोटा देने के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण किया जा सकता है.
रिपोर्ट के अनुसार, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात न्यायाधीशों- जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ के छह न्यायाधीश इस बात पर सहमत थे, हालांकि एक अन्य जज जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इस पर असहमति जताई.
शीर्ष अदालत का यह फैसला साल 2005 के ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले को पलट देता है जिसमें अदालत ने माना था कि अनुच्छेद 341 के तहत सभी अनुसूचित जाति समूह एक समरूप समूह थे. ज्ञात हो कि अनुच्छेद 341 राष्ट्रपति को कुछ जातियों और वर्गों को अनुसूचित जाति घोषित करने का अधिकार देता है.
लाइव लॉ के मुताबिक, पीठ ने इस पहलू पर भी विचार किया कि क्या आरक्षित जातियों के उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जानी चाहिए.
सीजेआई ने अपने फैसले में कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के सिद्धांत को सुनिश्चित करना) और 341 का उल्लंघन नहीं करता है.
सीजेआई ने यह भी जोड़ा, ‘अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो राज्य को किसी जाति को उप-वर्गीकृत करने से रोकता हो.’
साल 2020 में इस मामले को में पांच जजों की पीठ ने बड़ी बेंच को भेज दिया था. इस पीठ का भी कहना था कि ईवी चिन्नैया ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले को सही तरीके से लागू नहीं किया.
लाइव लॉ की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह मामला पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की धारा 4(5) की वैधता पर सवालों के साथ शुरू हुआ, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि एससी-कोटा की 50% रिक्तियां वाल्मीकि और मजहबी सिखों को दी जाएंगी.
हालांकि, साल 2010 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने ईवी चिन्नैया वाले फैसले के आधार पर उक्त प्रावधान को रद्द कर दिया था.