भारतीय उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाया है. मुख्य न्यायाधीश समेत सात सदस्यों वाली पीठ ने ‘पंजाब राज्य बनाम देविंदर सिंह’ वाद पर 6-1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए राज्यों को अनुसूचित जाति एवं जनजाति के आरक्षण को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति प्रदान की है. इस फैसले ने 2004 में ‘ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश मामले’ में दिए गए पूर्ववर्ती निर्णय को पलट दिया हैं, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति एक ‘समरूप समूह’ के रुप में अधिसूचित हैं, जिसे श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता.
ये दोनों केस आरक्षण की व्यवस्था में राज्यों के हस्तक्षेप से संबंधित है. आंध्र प्रदेश सरकार ने 1997 ई. में कुछ दलित संगठनों के दवाब में आकर अनुसूचित जाति आरक्षण को चार उपवर्गो में बांटने का फैसला लिया, जिसके विरोध में ईवी चिन्नैया ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. उच्चतम न्यायालय के आदेश के उपरांत आंध्र प्रदेश समेत अनुसूचित जाति का वर्गीकरण करने वाले सभी राज्य-निर्मित कानून निरस्त हो गए.
इसी महत्वपूर्ण फैसले के आधार पर पंजाब उच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार द्वारा अनुसूचित जाति के आरक्षण में में दो जातियों के लिए किए गए विशेष प्रावधानों को खारिज कर दिया गया. इसके बाद यह वाद पुनः उच्चतम न्यायालय पहुंचा और उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार किया कि ईवी चिन्नैया वाद पर आए फैसले पर पुनर्विचार होना चाहिए. इसी पुनर्विचार के आधार यह निर्णय रखा गया है.
निर्णय देते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि अनुसूचित जाति समूह में आने वाली जातियों में भी असमानता रही है. अनुसूचित जातियां एकीकृत रूप से समांगी नहीं है.’
अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग में आने वाली जातियां सदियों से सामाजिक स्तर पर अपनी विभिन्न परंपराओं, रीति-रिवाजों एवं मान्यतायों का अनुसरण करती आ रही हैं. स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात गांवों और शहरों में किसी स्थान विशेष पर सामूहिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी बसने वाली जातियों ने किस तरह से साझा संस्कृति और सामाजिक नियमों का निर्माण किया, यह डॉ. बीआर आंबेडकर द्वारा शुरू किए गए ‘नव संगठित बौद्ध आंदोलन’ द्वारा समझा जा सकता हैं.
बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के अगले चार वर्षों में लगभग बीस लाख दलितों ने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना लिया. धर्म-परिवर्तन की यह गति लगातार अब तक जारी हैं. आंकड़े बताते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की बौद्ध जनसंख्या 84 लाख थी तथा वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत थी. इसमें 13 प्रतिशत परंपरागत और 87 प्रतिशत ‘नव संगठित बौद्ध’ हैं. इसके अलावा एक बड़ी जनसंख्या उन दलितों की हैं, जो भले ही औपचारिक रूप से बौद्ध न हुए हो, लेकिन विवाह एवं अन्य अवसरों पर बौद्धिक रीति-रिवाजों को महत्व देते हैं.
इसके साथ ही भारतीय संविधान ने इन सभी जातियों को एक विशेष सूची में अनुबंधित कर तथा दलित आंदोलनों ने विभिन्न जातियों के बीच असमानताओं के बावजूद उन्हें एक साझा मंच पर लाने का काम किया है.
क्रीमी लेयर का सिद्धांत
सुप्रीम कोर्ट के हालिया केस में सहमति पक्ष में निर्णय देने वाले जस्टिस बीआर गवई ने क्रीमी-लेयर का सूत्र सुझाते हुए कहा कि ‘राज्य को एससी/एसटी वर्ग में क्रीमी-लेयर की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर करने के लिए नीति विकसित करनी चाहिए.’
भारतीय न्यायिक इतिहास में ‘क्रीमी लेयर’ शब्द पहली बार 1992 ई. के ‘इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ’ वाद में आया, जहां उच्चतम न्यायालय ने अन्य पिछड़ा वर्ग में आर्थिक रूप से उन्नत लोगों को आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई से बाहर रखने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया.
‘क्रीमी-लेयर’ के निर्धारण के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश आरएन प्रसाद के नेतृत्व में समिति का गठन किया गया. ‘क्रीमी लेयर’, आर्थिक उन्नति का परिचायक रहा है, जिसमें शैक्षणिक प्रगति को शामिल करते हुए समान्यत: मान लिया जाता हैं कि व्यक्ति शिक्षा के सहारे एक निश्चित आर्थिक स्थिति को हासिल कर चुका हैं.
लेकिन अनुसूचित जाति/जनजाति की परिस्थितियां कहीं भिन्न हैं. अनुसूचित जाति/जनजाति को प्रदत्त आरक्षण के अधिकार का आधार सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ापन है, जिसका कारण इन जातीय-समूहों के साथ सदियों से हुई ‘अस्पृश्यता’ एवं ‘जातीय भेदभाव’ हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग के संदर्भ में आर्थिक उन्नति को सामाजिक उन्नति के साथ जोड़कर देखा जा सकता हैं, लेकिन दलितों और आदिवासियों में आर्थिक समृद्धि और सामाजिक उन्नति दोनों अलग-अलग बातें है.
राजस्थान के रहने वाले मणिपुर कैडर के आईपीएस अधिकारी सुनील धनवंता को फरवरी 2022 अपनी ही शादी के दिन घोड़ी पर बैठने के लिए भारी पुलिस को बुलाना पड़ा. ऐसी अनेकों घटनाएं हैं.
कॉरपोरेट सेक्टर की स्थिति और भी बदतर हैं. बेंगलूरू की एक आईटी कंपनी में काम करने वाले विवेक राज ने चार जून 2023 को आत्महत्या कर ली, क्योंकि उन्हें अपने कार्यालय में जातीय-भेदभाव का सामना करना पड़ रहा था. विवेक राज का सुसाइड वीडियो नोट भी यूट्यूब ने हटा दिया, जिसमें उन्होने कॉरपोरेट सेक्टर में हो रहे जातीय भेदभाव एवं उसके खिलाफ त्वरित कार्रवाई की मांग की थी. जातीय-हिंसा की इन घटनाओं से स्पष्ट है कि दलित-आदिवासियों के एक वर्ग को सिर्फ आर्थिक उन्नति के आधार पर आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं किया जा सकता.
अगर इस फैसले के बाद इन जातियों में क्रीमी लेयर लागू हो जाती है, तो यह आरक्षण के मूल उद्देश्य के साथ छेड़खानी होगा, जो कि जातीय-हिंसा को और बढ़ाएगा.
गौर करें, बहुमत के निर्णय से असहमति दर्ज करवाते हुए जस्टिस बेला त्रिवेदी ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की- ‘कार्यपालिका या विधायी शक्ति के अभाव में राज्यों के पास जातियों को उपवर्गीकृत करने की कोई क्षमता नहीं है.’
आरक्षण एवं अनुसूचित जाति एवं जनजाति की सूचियों में बदलाव जैसे कार्य केंद्र सरकार के पास है. राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में कोई नियम बनाना संघीय ढांचे का अतिक्रमण होगा.
इस निर्णय ने दलित-आदिवासी संस्कृति, इतिहास और परंपराओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए जहां एक ओर सामाजिक-राजनीतिक चेतना को प्रभावित करने का प्रयास किया हैं, वहीं दलितों और आदिवासियों के समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी प्रस्तुत कर दिया है कि आरक्षण के प्रावधान के बावजूद जो जातियां और वर्ग अब तक पिछड़े हैं, उनकी उन्नति का उत्तरदायित्व कौन लेगा?
स्वतंत्रता के सात दशक के बाद अनुसूचित जाति एवं जनजाति से आने वाली कुछ जातियों ने आरक्षण के सहारे खूब प्रगति की है, वहीं कुछ जातियां अब भी पूर्ववर्ती अवस्थाओं में हैं. जब तक उनका अपेक्षित उत्थान नहीं हो जाता, तब तक आरक्षण का सरोकार अधूरा है.
इसका माध्यम डॉ. आंबेडकर का सुझाया ‘पै-बेक टू सोसाइटी’ का मंत्र हो सकता हैं, जो न केवल दलित जातियों की समान प्रगति का पथ प्रशस्त करेगा वरन दलित सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को भी मजबूत करेगा.
(प्रमोद प्रखर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के छात्र हैं.)