आशुतोष भारद्वाज ने अनुच्छेद 370 हटाए जाने से पहले और उसके बाद कश्मीर की कई यात्राएं की हैं. उनके लंबे रिपोर्ताज की यह दूसरी क़िस्त. पहला भाग यहां पढ़ें.
दफ़ा 370 को कश्मीर से हटाया जाना सामूहिक स्मृतियों को मिटाने और नई स्मृतियों को निर्मित करने का प्रयास है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार किसी राज्य को उसकी विधायिका और निवासियों की सहमति व परामर्श के बगैर उसे विभाजित कर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. संविधान के अनुसार किसी राज्य के विभाजन से पहले उसकी विधानसभा द्वारा इसकी सिफ़ारिश अनिवार्य है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
बहुत जल्द कश्मीर के शिक्षण संस्थानों में तिरंगा और राष्ट्रगान अनिवार्य कर दिए गए. सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया, ‘भारत कश्मीर से लगभग अनुपस्थित रहा है. स्कूलों में भारतीय प्रतीकों के बारे में बहुत कम पढ़ाया जाता है. यहां के बच्चे भारतीय स्मृति के बगैर बड़े होते आए हैं. हमें इसे बदलना होगा.’
केंद्र सरकार कश्मीर में ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ का निर्माण कर रही है. अगस्त 2019 के बाद कश्मीर में कई ‘भारत-समर्थक’ स्वर उभर आए हैं- भारत के प्रति अपनी आस्था की घोषणा करते तमाम पत्रकार, कार्यकर्ता और गैर-सरकारी संगठन. सत्ता इन युवा कश्मीरी मुसलमानों को धन, सुरक्षा, आवास और दफ़्तर भी देती है.
पिछले वर्षों में ‘राष्ट्र-प्रेम’ की सार्वजनिक अभिव्यक्ति मुखर हो गई है. 23 मार्च 2022 अर्थात पाकिस्तान दिवस को श्रीनगर के लाल चौक पर एक कश्मीरी टीवी चैनल ‘कश्मीर स्पीक्स’ विषय पर संवाद करा रहा था. सड़क और मंच पर तिरंगा लहलहा रहा था. कश्मीरी वक्ता भारत के लिए अपने प्रेम का बखान और कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक लॉबी की कड़ी निंदा कर रहे थे.
कभी उग्रवाद का मुख्यालय रहे लाल चौक ने करवट ले ली थी. लाल चौक भारत के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का प्रमुख केंद्र रहा था, यहां हिंसक रणनीति रची जाती थी, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे. लेकिन आज यहां एएनएन न्यूज चैनल भारत के समर्थन में डिबेट करा रहा था. गौर करें, कुछ साल पहले सरकार ने कश्मीर के सभी चैनल प्रतिबंधित कर दिए थे, सिर्फ़ यही चैनल कश्मीर में आज चालू है.
श्रीनगर प्रेस क्लब को इस बरस बंद कराने के पीछे भी ‘भारत समर्थक’ पत्रकारों का एक अभियान था, जो मानते थे कि प्रेस क्लब ‘पाकिस्तान समर्थक’ पत्रकारों का अड्डा बन गया था. कभी प्रतिरोध का प्रतीक रहे ‘राइजिंग कश्मीर’ और ‘ग्रेटर कश्मीर’ अखबार आज प्रधानमंत्री या उपराज्यपाल की तस्वीरों और चापलूस खबरों से अटे दिखाई देते हैं.
मसलन, उनतीस अक्तूबर दो हजार उन्नीस को यूरोपियन यूनियन के सांसद कश्मीर के विभाजन के बाद स्थिति का निरीक्षण करने श्रीनगर आए थे. उस दिन राइजिंग कश्मीर का प्रमुख संपादकीय था- ‘साइकिल चलाने के फ़ायदे’. जब बारह फ़रवरी दो हजार बीस को कई विदेशी राजदूत श्रीनगर दौरे पर आए, इस अख़बार का प्रमुख संपादकीय था- ‘अच्छे अभिभावक कैसे बनें’.
मैं नहीं मानना चाहूंगा कि इन अख़बारों के संपादक ये ख़बरें अपनी इच्छा से छापते होंगे. कल्पना कीजिए उस भय की जिसके तहत कभी धाकड़ रहे संपादकों को आज साइकिल और मधुमेह पर लेख छापने पड़ रहे हैं. कश्मीर में पत्रकारिता दैनिक अपमान का सबब है. जिन तमाम अधिकारों के साथ अन्य राज्यों के पत्रकार काम करते हैं (हालांकि पिछले वर्षों में देश भर में सत्ता पत्रकारिता को धमकाती आ रही है), कश्मीर में नदारद हैं.
जब पांच अगस्त दो हजार उन्नीस के बाद कई महीने कश्मीर में इंटरनेट बंद रहा, श्रीनगर के पत्रकार रोज शाम अपनी ख़बरें भेजने एक सरकारी मीडिया केंद्र जाया करते थे. करीब दो सौ पत्रकारों के बीच सिर्फ़ दस कंप्यूटर. जब मैं उस साल नवम्बर में कश्मीर आया था, अपनी ख़बरें वहीं से भेजता था- लंबी लाइन लगी रहती थी. हमें मालूम था कि सरकारी कंप्यूटर पर जैसे ही अपना ईमेल चलाएंगे, हमारा पासवर्ड तुरंत सरकार के पास चला जाएगा, लेकिन हम बेबस अपनी निजता का, अपने संवैधानिक अधिकारों का हनन होते देखते थे.
‘आप रोज़ सुबह उठकर इस प्रोपगैंडा को देखते हैं, रोज़ अपमानित होते हैं,’ एक मजबूत कद-काठी के युवा कश्मीरी व्यापारी कहते हैं. चटखदार सलवार कमीज और भारी गहने पहने उनकी पत्नी उनके बगल में बैठी है. वह एक सरकारी कॉलेज में शिक्षिका है: ‘जब उन्होंने कॉलेज में मुझे राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर किया, मुझे लगा कि मेरे साथ बलात्कार हो रहा है.’ उनके पति जोर देते हैं कि ‘वह बिल्कुल भी राजनीतिक नहीं है, लेकिन वह भी राज्य की क्रूरता सहन नहीं कर पाई.’
मैं इसे चुप सुनता हूं. यह मेरी चेतना और कल्पना से परे का बिंब है. कश्मीरी युवतियां स्कूल की पंक्ति में ‘जन गण मन’ गा रही हैं, ख़ुद के साथ बलात्कार होता महसूस कर रही हैं. मैं इस अपमान की तीव्रता को समझना चाहता हूं. अगले दिन सेना के एक अधिकारी के सामने यह बात उठाता हूं. वे इसे नकारते हुए कहते हैं कि ‘कश्मीरियों के भीतर विक्टिमहुड कॉम्प्लेक्स बसा हुआ है, वे अपनी हर कठिनाई को बड़ा करके देखते हैं, और उससे भी कई गुना अधिक किसी बाहर वाले को उसे सुनाते हैं.’
भारतीय सत्ता और कश्मीरी के बीच की खाई असंभव दिखाई देती है, लेकिन मेरे एक कश्मीरी मुसलमान मित्र गहरी बात कहते हैं: ‘कश्मीर का एक संकट यह है कि हरेक समुदाय अपनी पीड़ा को सबसे बड़ा मानता है. मुसलमानों को लगता है कि उनके साथ अधिक अन्याय हुआ, पंडितों को लगता है वे कहीं बड़े विक्टिम हैं.’ यहां तक कि जम्मू के लोगों को भी लगता है कि सबसे बड़ी नाइंसाफ़ी उनके साथ हुई, कश्मीर पर सारा ध्यान रहा, योजनाओं का पैसा जाता रहा, लेकिन ‘हिंदू होने के बावजूद जम्मू उपेक्षित रहा’.
पीड़ाओं और दावों की यह प्रतिस्पर्धा संवाद और समाधान की संभावना कम कर देती है.
तिरस्कार के इस भाव को मैंने नवंबर-दिसंबर 2019 में कहीं गहराई से महसूस किया था. हाल ही में राज्य का विभाजन हुआ था, लग रहा था कि घाटी में जल्द विस्फोट हो सकता है. लेकिन अपनी आगामी यात्राओं में मैंने पाया कि समय के साथ यह भाव अदृश्य और मद्धिम हो गया, या शायद लोग चुप सहने के आदी हो गए, या किसी ‘भारतीय’ के सामने अपनी पीड़ा नहीं उजागर करना चाहते थे.
कोई ‘भारतीय’ इस अपमान को आसानी से समझ भी नहीं सकता. मसलन, भीषण सर्दियों में श्रीनगर के रिहायशी इलाकों की बिजली चली जाती है और हीटर बंद हो जाते हैं. कई दिनों तक लोगों के घरों के सामने और सड़क पर बर्फ़ जमी रहती है, लेकिन सरकारी कर्मचारी बर्फ़ हटाने नहीं आते.
कश्मीर में इस वक्त दो भावनाएं साथ बहती हैं. गहरा आक्रोश और अपमान, किसी चिंगारी की प्रत्याशा जो भारतीय सत्ता को घुटनों के बल ला देगी. दूसरी, घनघोर निराशा कि यह स्थिति अब अपरिवर्तनीय है. तमाम तेवरों के बावजूद न तो पाकिस्तान आज़ादी दिला सकता है, न केंद्र की कोई आगामी सरकार 5 अगस्त से पहले की स्थिति बहाल कर पाएगी या करना चाहेगी.
‘दफ़ा 370 कभी 50 मंजिला इमारत हुआ करती थी. समय के साथ यह दो मंजिला रह गई. लेकिन जिस तरह से इसे हटाया गया, लोगों ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया. हालांकि, जब यह हो गया है, तो हमें इसके साथ रहना होगा,’ रफ़ीक बालोट कहते हैं, जो उरी ज़िले में ब्लॉक विकास परिषद के अध्यक्ष हैं.
सेना के अधिकारी जोर देते हैं कि हिंसा में कमी और घुसपैठ में भारी गिरावट आई है, और पर्यटक वापस आ गए हैं. मसलन, सितंबर 2021 के बाद जून 2022 तक, यानी सिर्फ़ दसेक महीनों में करीब एक करोड़ सैलानी कश्मीर आ चुके थे. कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकियों की संख्या पहली बार दौ सौ से नीचे आई थी. आतंकी हिंसा में कमी के कई कारण हैं- सुरक्षा बलों के बीच बेहतर समन्वय, जम्मू-कश्मीर पुलिस का कायांतरण, अलगाववादियों और असंतुष्टों पर सख्त कार्रवाई, सैन्य क्षमता में वृद्धि, ग़जब का गुप्तचर तंत्र, और पाकिस्तान की अपेक्षाकृत ख़ामोशी.
कई कश्मीरी मानो बैचेन प्रतीक्षा करते दिखाई देते हैं कि कब उनका पड़ोसी सक्रिय होगा.
लेकिन अगर अगस्त 2019 के विभाजन और उसके बाद लगे कर्फ्यू ने कई कश्मीरी मुसलमानों को ज़लालत के दलदल में छोड़ दिया, तो उन्हें उन भावनाओं को साझा करने का भी मौका दिया जो पहले अव्यक्त रही आती थीं. मसलन, एक समय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मरे उग्रवादियों के जनाज़े पर बेहिसाब भीड़ उमड़ पड़ती थी, चीत्कार करते और छातियां पीटते इंसान. लेकिन आतंकवादियों की गोलियों से मारे गए लोगों का सार्वजनिक अंतिम संस्कार भी संभव न था. लोग आतंकियों के डर से अपने परिजनों की मृत्यु का शोक तक नहीं कर पाते थे. अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद कश्मीर में व्याप्त सामुदायिक भाव गहरा हो गया, अपने समुदाय को बचाने की साझा आकांक्षा, यह एहसास कि गोली कहीं से भी आए, शिकार कश्मीरी ही होगा- भले वह रेहड़ीवाला हो या सिपाही या पड़ोस का लड़का जो एके-47 लेकर लड़ने चला गया था. मार्च 2022 में बडगाम ज़िले में आतंकवादियों ने एक विशेष पुलिस अधिकारी और उसके भाई को मार दिया. उनके अंतिम संस्कार में कई हजार लोगों की भीड़ उमड़ आई थी .
इसके बीच अवाम उबल रहा है, भले आपको दिखाई न दे. ‘आपको सतह पर शांति दिखाई दे रही है, क्योंकि हम अंदर फूट रहे हैं. मैं आपके साथ झील के किनारे बैठा हूं, मुस्कुरा रहा हूं, लेकिन कहीं गहरे में उबल रहा हूं,’ एक कश्मीरी युवक ने एक अंधेरी शाम मुझसे कहा. श्रीनगर का जीरो ब्रिज दूर चमक रहा था.
श्रीनगर झेलम पर बने लकड़ी के पुलों का शहर है. आप एक मोहल्ले से दूसरे पर जाने के लिए पुल पार करते हैं. इन पुलों पर रेहड़ी वाले और मछलियां बेचती स्त्रियां बैठी रहती हैं. किसी समुदाय का मनोविज्ञान उसके भूगोल से भी संचालित होता है- उसकी नदियां, घाटियां, पर्वत, रेगिस्तान, बीहड़ वन, हरे मैदान. इन सभी इलाकों के निवासियों की मानसिक और संवेदनात्मक अवस्था का कोई अंश उनके भूगोल से भी निर्धारित होता होगा.
विडंबना देखें कि पुलों के सहारे दूरियां मिटाता आया शहर भारत के साथ सभी पुल तोड़ने पर आमादा है, भले कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े. कश्मीर इस आत्महंता भाव को पिछले पाँच वर्ष से नहीं जी रहा है, यह कई पीढ़ियों की, कई वर्गों की सामूहिक विफलता है. कश्मीरी भाषा में पुल का नाम हुआ कदल- ऐसे ही एक कदल पर 1990 का वह चर्चित कांड हुआ था, जब सेना की गोलियों से मुसलमान मारे गए थे.
श्रीनगर के सात पुल प्रमुख हैं, सबकी ज़बान पर हैं, कई सदियों पहले बनाए गए थे- अमीर कदल, हब्बा कदल, फ़तेह कदल, ज़ाइना कदल, अली कदल, नवा कदल, सफ़ा कदल.
हब्बा कदल कश्मीर की मशहूर शायरा हब्बा ख़ातून के नाम पर है.
एक पुल सबसे आखिर में आया और उसका नाम जीरो ब्रिज पड़ गया. कहते हैं श्रीनगर की पहली सॉफ्टी आइसक्रीम यहीं एक रेस्तरां में मिला करती थी- जीरो इन. मैं कश्मीरी दोस्तों के साथ अक्सर शाम यहां आ जाता हूं. दूर पहाड़ पर सेना की छावनी रोशनी से जगमगाती है- किस तरफ़ होगा पाकिस्तान? कहां से आते होंगे लश्कर और हिज़बुल के आतंकी?
‘शांति? कहां है शांति? पृथ्वी पर इससे अधिक फौज़ी कहीं नहीं मिलेंगे आपको. इन जवानों की यहां मौजूदगी अपने आप में हिंसा है.’ वह युवक कहता है.
मुझे याद आता है बस्तर के कांग्रेसी नेता कवासी लखमा ने कभी मुझसे कहा था: ‘इतनी सारी फोर्स हैं यहां. हमारी मिट्टी को ख़राब कर रही है.’ आदिवासी नेता लखमा कहते थे कि पुलिस के बूट और बंदूकों की उपस्थिति मात्र उनके जंगल को मैला कर देती है.
कश्मीरी शायद ठीक कहते हैं. बाहर से आया एक ‘भारतीय’ उनके आक्रोश को नहीं समझ सकता. चूंकि इस ‘भारतीय’ की समझ अधूरी है, उसके शब्द भी अपर्याप्त रहेंगे.
अगस्त 2019 में कश्मीर के विभाजन के बाद माना जा रहा था कि कश्मीर कभी भी फूट पड़ेगा और यह ज्वालामुखी 2010 और 2016 की गर्मियों से भी भीषण होगा. लेकिन सितंबर और अक्टूबर बीत गया, कश्मीर शांत रहा आया. फिर कहा गया कि सर्दियों के बाद विस्फोट होगा, फिर गर्मियां आ गईं और फिर एक और सर्दियां और नई गर्मियां. मेरी पिछले वर्षों में कई कश्मीरी मुसलमानों से इस बारे में चर्चा होती रही है- कश्मीर के नागरिक प्रतिरोध में आई गिरावट को भारतीय सत्ता अपनी सफलता बता रही है. कश्मीर की ख़ामोशी को किस तरह देखा जाए?
एक सुबह मेरे साथ चाय पीते हुए एक कश्मीरी युवक ज़बरदस्त अंतर्दृष्टि देता है. ‘हमें प्रतिरोध का तरीका बदलना होगा. परिस्थितियां सुरक्षा एजेंसियों के पक्ष में हैं. हम एक लाश गिराएंगे, वे हमारे चार लोग मार डालेंगे. हम अपनी जान गंवाने का जोखिम नहीं उठा सकते.’
घाटी में प्रतिरोध का एक पैटर्न है. 2008 में यह अमूमन रैलियों और नारों के जरिये दर्ज हुआ. अगले साल नारों के साथ पथराव शुरू हुआ, और 2010 में समूचा आक्रोश अमूमन पथराव के जरिये व्यक्त हुआ. हिज़बुल कमांडर बुरहान वानी 2010 की विकट गर्मियों की उपज था. 2016 में बुरहान की हत्या ने सैकड़ों बुरहानों को जन्म दिया, लेकिन उचित प्रशिक्षण और हथियारों के बिना ये लड़के भारतीय सेना का सामना नहीं कर सकते थे.
और फिर आया फरवरी 2019, जब सीआरपीएफ के 40 जवानों को आत्मघाती हमलावर आदिल डार ने मार गिराया- कश्मीर घाटी में सेना पर अब तक का सबसे बड़ा हमला. कश्मीर के हिंसक इतिहास में फ़िदायीन हमले गिने-चुने हुए हैं, इसलिए आदिल डार के कृत्य ने घाटी को दहला दिया था, भारत-पाकिस्तान को लगभग युद्ध की तरफ़ धकेल दिया था.
किसी उग्रवादी, आतंकवादी या क्रांतिकारी संगठन का सदस्य, या कोई सैनिक मौत के खौफ़ को मिटा कर हथियार उठाता है. यह इंसान अपनी मृत्यु को शहादत मानता है, उसे किसी बड़े लक्ष्य से जोड़कर देखता है. यह इंसान ख़ुद को मरते देख सकता है, दूसरे को मार सकता है. लेकिन फ़िदायीन एकदम भिन्न व्यापार है. नक्सल आंदोलन को पचपन बरस हुए, हज़ारों पुलिसवालों को उन्होंने मार गिराया, पुलिस के साथ लड़ते हुए कई गुना अधिक कामरेड साथियों को खो दिया. वे इस भाव के साथ जीते हैं कि आज की रात अंतिम हो सकती है, लेकिन नक्सली दस्ते से आज तक एक भी आत्मघाती लड़ाका नहीं निकला है, न उन्हें इसकी ट्रेनिंग दी जाती है.
आत्मघाती मानव-बम किसी हिंसक संगठन की शायद सबसे मारक, सम्मोहक रणनीति है- और अंतिम भी. इसके बाद कुछ शेष नहीं.
‘जो आदिल अहमद डार ने पुलवामा में किया था, आज कश्मीर में सिर्फ़ वही मॉडल काम कर सकता है.’ श्रीनगर की उस सुबह वह कश्मीरी युवक मुझसे कहता है, और तुरंत एक पंक्ति जोड़ता है, मानो कुछ अधूरा रह गया हो: ‘लेकिन यह कश्मीर को पूरी तरह तबाह कर देगा.’
इस घाटी में कोई भी संवाद आतंकवाद और आतंकवादियों की चर्चा के बगैर पूरा नहीं होता. लोग जोर देते हैं कि उन्हें उग्रवादी (मिलिटेंट) कहा जाए, न कि आतंकवादी (टेररिस्ट). यह स्थिति भारत की एक अन्य रणभूमि बस्तर के विपरीत है, जहां आदिवासियों का एक वर्ग नक्सलियों से विमुख हो रहा है, यहां तक कि नक्सली भी थकने लगे हैं. कश्मीर में आम इंसान भी नहीं थके हैं, लंबी दौड़ के लिए तैयार हैं. कश्मीर के प्रत्येक कोटर में आपको आशंकित फुसफुसाहटें सुनाई देती हैं.
कश्मीर के ख़ुफ़िया तंत्र की मेरी सबसे विध्वंसक स्मृति दिसंबर 2019 की उस सर्द और अंधेरी शाम की है, जब मैंने खानाबल में डीआईजी कार्यालय के सामने से बस ली थी. मेरे बगल की सीट पर आठवीं कक्षा का एक मासूम-सा लड़का बैठा था. अगले एक घंटे तक हम बतियाते रहे. वह धारा 370 और 371 की पेचीदगियों को जानता था. लश्कर-ए- तैयबा , जैश -ए-मोहम्मद और हिज़बुल के बारीक अंतर को समझा सकता था. मुज़ाहिदीन और अपने क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों के नाम बता सकता था. उसने आगे कहा कि पांच अगस्त के बाद लगे लंबे कर्फ्यू और लॉकडाउन ने दरअसल आतंकवादियों को फ़ायदा पहुंचाया था. वे अक्सर गांवों में आ जाते थे, स्थानीय लोगों के साथ रहते थे क्योंकि मुखबिर फोन बंद होने की वजह से पुलिस से संपर्क नहीं कर सकते थे. पांच अगस्त के बाद से कई महीनों तक भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र को सूचनाएं नहीं मिल पाई थीं.
(क्रमशः)