नई दिल्ली: पिछले एक दशक में आर्थिक रूप से तेजी से तरक्की करने वाला बांग्लादेश राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है. करीब 15 साल से लगातार सरकार चलाने वालीं शेख़ हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर देश से भागना पड़ा है. 17 करोड़ की आबादी वाले बांग्लादेश की राजधानी ढाका की सड़कें हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ और लूटपाट की गवाही दे रही हैं. भीड़ इतिहास के नायकों को उखाड़ फेंकने पर आमादा है.
बांग्लादेश के मुक्तिदाता शेख़ मुजीबुर रहमान के घर में आगजनी और उनकी प्रतिमा को तोड़ा जाना इस बात का संकेत है कि बांग्लादेश का इतिहास नए सिरे से लिखा जाने वाला है. लेकिन नींव उखाड़ कर सब कुछ नया करने का प्रयास कितना सफल होगा, इसका फैसला भविष्य में होगा. ध्यान रहे जिस घर को जलाया गया, उसी घर में 15 अगस्त 1975 को मुजीबुर रहमान और उनके परिवार के 10 अन्य सदस्यों की हत्या कर दी गई थी. यह बांग्लादेश की आजादी की कीमत थी, जिसे शेख़ मुजीबुर रहमान और उनके परिवार ने अपनी जान देकर चुकाई थी.
फिलहाल जो सवाल उठ रहे हैं कि लगभग अजेय प्रतीत होने वाली हसीना के खिलाफ असंतोष का यह सैलाब आया कहां से? आरक्षण को लेकर एक विश्वविद्यालय में शुरू हुआ प्रदर्शन ‘लोकतांत्रिक’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेता के रूप में सम्मानित हसीना के पतन का कारण कैसे बन गया? क्या आर्थिक तरक्की के गुब्बारे में गैर-बराबरी की हवा थी या हसीना का भारत समर्थक रवैया उन्हें ले डूबा? हसीना का राजनीतिक अवसान भारत के लिए चिंता का विषय क्यों है?
आर्थिक तरक्की का गुब्बारा
बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले परिवार की बेटी शेख हसीना साल 2009 में एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और विश्वसनीय चुनाव के माध्यम से सत्ता में आई थीं. इसके बाद हुए तीन आम चुनाव (2014, 2019 और 2024) न सिर्फ विवादास्पद रहे, बल्कि विपक्षी दलों द्वारा बड़े पेमाने पर बहिष्कृत भी रहे. लेकिन शेख हसीना ने सत्ता पर पकड़ बनाए रखी और देश को आर्थिक गति देने का पूरा प्रयास किया. द इंडियन एक्सप्रेस में सैयद मुनीर खसरू लिखते हैं, ‘उनके (शेख हसीना) नेतृत्व में बांग्लादेश दुनिया के ‘सबसे गरीब देशों में से एक’ से इस क्षेत्र में ‘सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक’ में बदल गया, यहां तक कि अपने बड़े पड़ोसी भारत को भी पीछे छोड़ दिया. देश की प्रति व्यक्ति आय एक दशक में तीन गुना हो गई है और विश्व बैंक का अनुमान है कि पिछले 20 वर्षों में 2.5 करोड से अधिक बांग्लादेशी गरीबी से बाहर निकल आए.’
हालांकि, इस आर्थिक तरक्की की दौड़ में लगातार लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रताओं को कुचला जा रहा था. खसरू लिखते हैं, ‘2014, 2018 और 2024 में संसदीय चुनाव विपक्षी दलों के बहिष्कार, कम मतदान और हिंसा से प्रभावित हुए थे. हसीना सरकार पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए कठोर कानूनों का इस्तेमाल कर रही थीं, जिससे भय और दमन का माहौल पैदा हुआ. 2018 में लागू किया गया डिजिटल सुरक्षा अधिनियम सरकार के लिए आलोचकों को चुप कराने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करने और ऑनलाइन स्पेस का गला घोंटने का एक शक्तिशाली हथियार बन गया. प्रेस की स्वतंत्रता को लगातार खतरा रहा. नागरिक अधिकारों को व्यवस्थित रूप से दबा दिया गया. हसीना ने ये सबकुछ खुद को सत्ता के केंद्र में बनाए रखने के लिए किया.’
इस तरह आर्थिक बदलाव की पटकथा लिखने वाली, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में सम्मानित शेख हसीना अपने नागरिकों के लिए सर्वसत्तावादी नेता में बदल गईं. आलोचना के प्रति असहिष्णु रहने, विरोधियों को जेल में डालने और घोर पूंजीवादियों को पालने की उनकी नीति विफल रही. बांग्लादेश से यह सबक मिलता है कि सिर्फ आर्थिक प्रगति किसी नेता की लोकप्रियता को बनाए नहीं रख सकती. लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता की कीमत पर आर्थिक विकास को प्राथमिकता देने वाले नेता हसीना की हालत से सीख ले सकते हैं.
बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति का एक पहलू यह भी है कि जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था बढ़ रही थी, वैसे-वैसे अमीर और गरीब के बीच असमानता भी बढ़ती जा रही थी. खसरू लिखते हैं, ‘हसीना सरकार में बैंक घोटाले बढ़ गए, ऋण न चुकाने वालों (डिफॉल्टर) की सूची लंबी हो गई. सीएलसी पावर, वेस्टर्न मरीन शिपयार्ड और रेमेक्स फुटवियर जैसी कंपनियां डिफॉल्टरों की सूची में सबसे ऊपर हैं, जिनका फंसा कर्ज 965 करोड़ से लेकर 1,649 करोड़ बांग्लादेशी टका तक है. बढ़ती आर्थिक असमानता और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार ने आर्थिक प्रगति के बावजूद सार्वजनिक असंतोष को बढ़ावा दिया.’
आरक्षण का विवाद
भाई-भतीजावाद, अनियंत्रित भ्रष्टाचार, आर्थिक असमानता, अपारदर्शिता, लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण आदि ने देश का मिजाज पहले ही गर्म कर रखा था, उस पर आरक्षण के मुद्दे पर हुए आंदोलन ने देश का स्वरूप बदल दिया. हाल का छात्र आंदोलन सिविल सेवा नौकरियों में कोटा हटाने की एक साधारण मांग के रूप में शुरू हुआ था. दरअसल, जून में हसीना सरकार पहले से स्थगित किए गए नीतिगत आरक्षण को वापस लाने की तैयारी में थीं. इसके तहत स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में सीटों का एक बड़ा हिस्सा दिया जाना था. दूसरे शब्दों में कहें तो सत्तारूढ़ अवामी लीग के परिवार को इसका ज्यादा फायदा मिलता.
इसके खिलाफ ढाका विश्वविद्यालय में शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू हुआ, लेकिन जल्द ही यह अन्य संस्थानों और फिर आम जनता में फैल गया. स्थिति तब बिगड़ गई जब अवामी लीग की छात्र शाखा ‘बांग्लादेश छात्र लीग’ के सदस्यों ने प्रदर्शनकारियों पर हमला करना शुरू कर दिया. इसने आंदोलन को विद्रोह में बदल दिया. जब तक अदालत ने फैसला देकर कोटा घटाया, तब तक 200 प्रदर्शनकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ हसीना ने कड़ा रुख बनाए रखा. पिछले महीने के अंत में छात्रों के खिलाफ पुलिस और अर्धसैनिक बलों को तैनात करने का उनका फैसला उल्टा पड़ गया, जिससे व्यापक जन आक्रोश भड़क गया. सरकार ने देखते ही गोली मारने और सख्त कर्फ्यू के भी आदेश दिए, जिससे माहौल लगातार बिगड़ता चला गया. इसके अलावा, हसीना द्वारा प्रदर्शनकारियों को ‘रजाकार’ बताने से भी तनाव बढ़ा.
जैसे-जैसे विरोध प्रदर्शनों ने गति पकड़ी उसने युवाओं के माता-पिता, शिक्षकों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं सहित समाज के विभिन्न वर्गों को अपने भीतर समाहित कर लिया. खसरू लिखते हैं, ‘समर्थक वर्ग बढ़ने के साथ ही आंदोलन अपनी प्रारंभिक मांगों से आगे बढ़कर 15 साल के भय और उत्पीड़न के खिलाफ निराशा की सामूहिक अभिव्यक्ति बन गया. छात्रों द्वारा प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में शामिल होने से इनकार करना जब तक कि उनकी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, गहरे बैठे अविश्वास और आक्रोश को दर्शाता है.’
जब ढाका जल रहा था और लग रहा था कि हसीना के घर पर हमला हो सकता है, हसीना को इस्तीफा देने और देश छोड़ने की सलाह दी गई. बांग्लादेश के दैनिक समाचार पत्र ‘प्रोथोम अलो’ के अनुसार, अंतिम क्षण तक हसीना सुरक्षा बलों पर कड़ी कार्रवाई करने के लिए दबाव बना रही थीं. इसके बाद उनके बेटे ने फोन पर तुरंत पद छोड़ने की सलाह दी. उनके बेटे साजिब वाजिद जॉय ने लंदन में बीबीसी से कहा कि वह ब्रिटेन में शरण लेंगी और उनकी बांग्लादेश या राजनीति में लौटने की कोई योजना नहीं है. इस प्रकार शेख मुजीबुर रहमान की बेटी शेख हसीना का राजनीतिक जीवन समाप्त माना जा रहा है.
बांग्लादेश में हसीना के साथ ही भारत के ख़िलाफ़ भी माहौल क्यों?
बांग्लादेश से निकलकर शेख हसीना सीधे भारत पहुंची हैं. 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति में भारत की भूमिका रही है. भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ राजनीतिक और सशस्त्र विद्रोह के दौरान मुजीब का साथ दिया था. यही वजह है कि भारत शेख हसीना की पारिवारिक और राजनीतिक विरासत का हिस्सा है. लेकिन पिछले एक दशक में भारत से करीबी ने शेख हसीना के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं. उन पर आरोप लगे हैं कि वह भारत पर आंख बंद करके भरोसा करती हैं, उन्होंने भारत के कहने पर उद्योगपति गौतम अडानी की कंपनी के साथ बिजली खरीदने का करार किया, जो देश के लिए नुकसानदेह साबित हुआ.
इसके अलावा, बांग्लादेश के नागरिकों को यह भी दिख रहा था कि शेख हसीना भारत के सत्तारूढ़ दल भाजपा द्वारा बांग्लादेशी नागरिकों के खिलाफ दिए जाने वाले बयानों पर भी कभी कुछ नहीं कहतीं. अमित शाह ने अपने एक भाषण में बांग्लादेशी लोगों को दीमक कहकर अपमानित किया था. लोगों के असंतोष को देश के कट्टर इस्लामवादियों ने खूब हवा दी.
न्यूजलॉन्ड्री ने लिखा है कि ‘खालिदा जिया की सरकार पूरे पांच वर्ष राजनीतिक रूप से पाकिस्तान समर्थक जमात-ए-इस्लामी पर निर्भर रही और भारत के लिए सुरक्षा के लिहाज से ये वर्ष दुःस्वप्न से कम न थे. उस सरकार के दौरान बांग्लादेश चरमपंथी, कट्टरपंथी तत्वों के लिए एक उपजाऊ जमीन बन गया था. पूर्वोत्तर के विद्रोही समूहों को बांग्लादेश में सुरक्षित पनाह दी गई थी. भारत विरोधी भावना बढ़ी थी. एक दशक बाद, 2009 में हसीना की सत्ता में वापसी दिल्ली के लिए राहत भरी बात थी. तब से ढाका और दिल्ली ने सुरक्षा मुद्दों पर मिलकर काम किया है.’
लिहाजा शेख हसीना का सत्ता खो देना और बांग्लादेश के मुक्ति इतिहास पर हमला भारत के लिए संकट का संकेत है.