आशुतोष भारद्वाज ने अनुच्छेद 370 हटाए जाने से पहले और उसके बाद कश्मीर की कई यात्राएं की हैं. उनके लंबे रिपोर्ताज की यह तीसरी क़िस्त. पहला और दूसरा भाग यहां पढ़ें.
भाजपा के समूचे दावों के बावजूद कश्मीर में रह रहे पंडित अंजुरी भर सम्मान के लिए तरस रहे हैं. दिसंबर 2019 में ‘कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति’ के अध्यक्ष संजय टिक्कू मुझसे बोले थे, ‘1990 के दशक की तुलना में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद मैं अधिक खतरा महसूस करने लगा हूं.’ वह श्रीनगर के बरबरशाह इलाके में एक पुराने घर में रहते हैं. समय के साथ उन्हें आतंकवादियों से मिलती धमकियां बढ़ गई हैं. यह बुजुर्ग होते इंसान उम्मीद खो रहे हैं. 2021 के उत्तरार्ध में सरकार को उन्हें सुरक्षा देनी पड़ी, कई महीनों से वे घर के बाहर नहीं निकले. अगर कभी डॉक्टर इत्यादि के लिए जाते भी थे, तो पूरी सुरक्षा में.
अगले बरस वह मुझसे बोले, ‘पुलिस मुझे लेकर चिंतित है. अगर मुझे कुछ हो गया, घाटी में पंडितों की आखिरी आवाज मिट जाएगी.’
इस इंसान की पीड़ा में आप पंडितों को लेकर दक्षिणपंथ के खोखले दावों को देख सकते हैं. उनके कमरे में रंगीन कालीनों की मोटी परत बिछी है, जो पारंपरिक कश्मीरी घरों में दिखाई दे जाती है. कालीन में हल्की-सी भी सलवट उन्हें पसंद नहीं. मेरे बैठने से थोड़ी सलवटें आ गई हैं. वे इसे अशिष्टता मानते हैं, और मैं शर्मिंदा हो जाता हूं.
उनके संगठन ने पंडितों के पलायन का बारीक अध्ययन किया है. 31 दिसंबर 1989 को कश्मीर में 77,137 पंडित परिवार थे. मई 1990 तक करीब 70,000 परिवार अपना घर छोड़ कर जा चुके थे. बाकी भी धीरे-धीरे चले गए, आज लगभग 800 बचे हैं. वह आतंकी हमलों में पंडितों की मृत्यु पर सरकारी आकंड़े खारिज करते हैं. राज्य सरकार मृतक संख्या 219 बताती है, लेकिन समिति के अनुसार अकेले 1990 में 574 पंडित मारे गए थे.
‘हर कोई कश्मीरियों को बियरर चेक के रूप में इस्तेमाल करता है. मुसलमानों के नाम पर, पंडितों के नाम पर, डोगराओं के नाम पर… आप जिस तरह चाहें, हमारा इस्तेमाल कर सकते हैं’, उनकी आवाज डूबने लगती है.
टिक्कू उन चंद पंडितों में हैं जिन्होंने कभी घाटी छोड़ने के बारे में नहीं सोचा, लेकिन अब वे डरे हुए हैं. अगस्त 2019 में दावे किए जा रहे थे कि बहुत जल्द पंडित लौटकर कश्मीर आ जाएंगे, बाकी हिंदुस्तानी भी पहलगाम और सोनमर्ग में ज़मीन ख़रीद सकेंगे. 2020 में ट्विटर पर ‘#हमवापसआएंगे’ का हैशटैग अभियान चलने लगा, और पंडित पलायन के तीसवें वर्ष में अपनी भूमि पर लौटने की कसम खाने लगे.
लेकिन हालात ऐसे बिगड़े कि घाटी में बचे रह गए पंडित भी अपना घर छोड़कर जाना चाह रहे हैं. उन्होंने उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर अदालत से सरकार को उन्हें सुरक्षित स्थानों पर ले जाने का आदेश देने की भी मांग की थी.
संजय टिक्कू की यह याचिका कहती थी कि जम्मू-कश्मीर प्रशासन और केंद्र सरकार घाटी में अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में विफल रही है और प्रशासन की वजह से कश्मीर में रह रहे धार्मिक अल्पसंख्यक निराशा में डूब गए हैं. प्रशासन उनके साथ खिलवाड़ कर रहा है.
गौरतलब है कि कश्मीरी पंडित जोर देकर कहते हैं कि उनके लिए एक प्रमुख योजना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अप्रैल 2008 में लागू की थी जब उन्होंने घाटी में लौटना चाहते ‘कश्मीरी प्रवासियों की वापसी और पुनर्वास’ के लिए पैकेज की घोषणा की थी. लेकिन विडंबना देखिए कि पुनर्वास योजना के तहत नौकरी लेते वक्त पंडितों को एक शपथ-पत्र देना होता है कि वे कश्मीर में ही काम करेंगे और अगर किसी भी कारण से कश्मीर से पलायन करते हैं, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा.
अपने समुदाय पर हमले होते देखते प्रवासी पंडित इस शपथ-पत्र को रद्द करने की मांग करते हुए कहते हैं कि भारत में कोई ऐसी जगह बताएं जहां किसी को नौकरी मिलने से पहले ऐसा बॉन्ड लिखने के लिए कहा जाए. ‘हमें क्यों इस तरह अपमानित किया जाता है?’, वे पूछते हैं.
पलायन के बाद लौटे ये पंडित परिवार अस्थायी प्रवासी शिविरों में रहते हैं. एजबेस्टस की छत वाले घर गर्मी में तपते हैं. पानी की कमी और बदहाल नालियां अलग. शिविरों के अंदर और बाहर भीषण सुरक्षा बल तैनात हैं, आतंकी हमले से बचाने के लिए. कश्मीर के ये मूल निवासी अपनी ही भूमि पर दड़बे में बंद मुर्गियों की तरह रहते हैं. अगर भारत में पाकिस्तान की जीत पर तालियां पीटते कश्मीरी मुसलमानों पर सत्ता केस कर देती है, तो कश्मीर में पंडितों के लिए भारत की जीत पर जश्न मनाना खतरे का सबब हो सकता है.
अनंतनाग के एक शिविर में 695 पंडित परिवार सिकुड़-सिमट कर कुल 177 क्वार्टर में रहते हैं, इस कसकती स्मृति के साथ कि थोड़ी दूरी पर उनके बड़े घर और विशाल बागान उजाड़ पड़े हैं, लेकिन उनकी वापसी अब संभव नहीं. इस शिविर के एक छोटे-से क्वार्टर में बुजुर्ग भारत भूषण भट रहते हैं. उनकी बेटी सरकारी कर्मचारी है. वे मुझे बड़े प्रेम से अंदर बुलाते हैं. उनके पास भारत सरकार के ख़िलाफ़ ढेर सारी शिकायतें हैं.
कुलगाम जिले के चौगाम गांव में पंडितों के कई घर उजड़े पड़े हैं. चौगाम में लगभग 50 कश्मीरी पंडित परिवार रहते थे, आज केवल एक बचा है. कुछ घर मुस्लिम पड़ोसियों ने खरीद लिए हैं, कुछ खंडहर बन चुके हैं. चिनार और अखरोट के पेड़ों से घिरे इन घरों के चारों तरफ़ पीली पत्तियां बिखरी हुई हैं. इस हसीन घाटी में ऐसे उदास और उजड़े घरों को देखकर कसक उठने लगती है. कभी लगता है कि कश्मीर घाटी पंडितों के पलायन का शाप लिए जी रही है. चौगाम के एक अकेले दरवाजे की झिरी से एक पंडित स्त्री झांकती है, बात करने से हिचकती है.
कुलदीप कौल ने 6 मार्च 1990 को चौगाम में अपना घर छोड़ा था. वह जम्मू में बस गए और अपने पड़ोसी फ़ारूक़ अहमद को घर बेच दिया. वे लौटना चाहते हैं लेकिन रास्ता दिखाई नहीं देता. संजय टिक्कू तीखी लेकिन सच्ची बात कहते हैं, ‘हैशटैग अभियान से कुछ नहीं बदलेगा. कितने पंडित वाकई वापस आना और बसना चाहते हैं?’
घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडित इसलिए भी निराश हैं कि तमाम ख़तरों के साथ जीने के बावजूद उनकी आवाज गुम और उपेक्षित है, जबकि दिल्ली और विदेशों में रहने वाले समृद्ध पंडित अपने समुदाय के प्रवक्ता बन गए हैं. वे पंडित परिवार जिन्होंने सबसे भीषण हिंसा के दौरान भी अपना कश्मीर नहीं छोड़ा, इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ़ खड़े रहे, उन्हें कश्मीर की बहस में बहुत कम जगह मिलती है. पिछले बरसों में घाटी में रह रहे पंडितों और प्रवासी पंडितों के बीच की दरार गहरी हो गई है. यह कश्मीर के जटिल अंतर-सामुदायिक संबंधों को कहीं कंटीला बना सकती है.
लेकिन बड़ा प्रश्न है कि क्या कभी पंडित वापस लौट पाएंगे? उनकी वापसी कश्मीरी मुसलमान के खुलकर सहयोग बगैर असंभव है. सैद्धांतिक रूप से भले ही मुसलमान पंडितों की वापसी के खिलाफ नहीं हैं, कुछ मुसलमान उनके साथ हुई हिंसा के लिए माफी भी मांगते हैं, लेकिन वे वापसी को लेकर उत्साहित दिखाई नहीं देते. ऐसे तमाम किस्से हैं कि पंडित परिवार महीने-पंद्रह दिनों के लिए कश्मीर लौटे, और अपने पुराने मुसलमान पड़ोसियों के साथ रहे जिन्होंने उनके घर बहुत कम दाम में खरीद लिए थे. दोनों परिवारों के भावुक मिलन की तस्वीरें और वीडियो भी प्रचारित होते रहते हैं. लेकिन यह प्रेम तभी तक है जब तक कि मुसलमान परिवारों के आर्थिक हित प्रभावित नहीं होते. जो घर और बागान अब उनके पास चले गए हैं, वे पंडितों को आसानी से नहीं लौटाने वाले. पिछले बत्तीस बरसों से जो समुदाय पंडितों के पलायन की स्मृति को मिटाता आया है, वह यह संपत्ति पंडितों को कैसे वापस सौंप देगा?
कश्मीर आज मुस्लिम प्रदेश है, शायद बहुत पहले हो चुका था- इसके स्वीकार से आपकी धर्मनिरपेक्षता या राजनीतिक शुचिता अगर खंडित होती है तो आप मनुष्य नहीं, विचारधारा के साथ खड़े हैं. कश्मीरी पंडितों का पलायन कश्मीर पर, भारतीय गणतंत्र पर एक प्रश्न है. आप उनकी वापसी सुनिश्चित नहीं कर सकते, लेकिन इतना तो कर ही सकते हैं कि उनकी त्रासदी को स्वीकार सकें.
(क्रमशः)