पिछले महीने पश्चिम बंगाल के समाचार पत्रों के पहले पृष्ठ पर एक खबर छपी. बताया गया कि राज्य सरकार ने राज्य के क़रीब 40,000 क्लबों को दुर्गा पूजा से पहले दी जाने वाली अनुदान राशि को प्रति क्लब 70,000/- से बढ़ाकर 85,000/- कर दिया है. हर वर्ष की तरह अनुदान राशि इस साल भी बढ़ाई गई है और हर साल की तरह इस बार भी समालोचना का एक बवंडर चंद दिनों के लिए कुछ आंके-बांके प्रश्नों को आकाश में उड़ाकर फिर वापस बैठ गया.
इस अनुदान का क्या औचित्य है? एक धर्मनिरपेक्ष देश में दुर्गा पूजा के लिए इस तरह से सार्वजनिक निधि का वितरण क्या सही है? इस अनुदान का असली मक़सद क्या सत्ताधारी पार्टी द्वारा पाड़ा (मोहल्ला) क्लबों पर क़ाबू करना नहीं? यह और ऐसे कई सवाल दनादन उठने लगे. परंतु मैंने जब इस खबर की हेडलाइन देखी तो मेरे सामने 35 साल पहले के पाड़ा क्लबों के कुछ चित्र तैर गए.
मैंने जो पाड़ा क्लब सर्वप्रथम देखे थे, वो बारासात शहर में थे. उसके बाद मैं उत्तर 24 परगना में जिस किसी क़स्बे या शहरी इलाक़े में जाता तो मुझे ये क्लब दिख जाते थे. सड़क के किनारे या किसी अपेक्षित नुक्कड़ पर छोटे–से बरामदे के साथ जुड़ा एक कमरा जिसके दरवाज़े पर सामान्यतः दिन के समय एक ताला लटका दिखता था. शाम होते ही दरवाज़ा सपाट खुला मिलता और कमरे की छत से बीचों–बीच लटका बल्ब जल उठता था. उस बल्ब की फीकी पीली रोशनी के नीचे मेज़ पर टिके कैरम बोर्ड के चारों ओर खड़े–खड़े ही खेलते और तन्मयता से खेल को देखते हुए किशोर तथा नौजवान, कमरे के एक कोने में दो–एक अख़बार पढ़ते युवक और बरामदे पर कुछ लड़के किसी रोचक चर्चा में व्यस्त अक्सर दिख जाते थे.
उस कमरे में कितनी कुर्सियों हैं और टेबल फैन है या नहीं, देखकर आप क्लब की समृद्धि का अंदाज़ लगा सकते थे. अगर कोने में टीवी सेट भी शोर करता दिखता तो आप समझ जाते कि यह पांच सितारा दर्जे का क्लब है. और कुछ हो या ना हो कैरम बोर्ड पाड़ा क्लब की जान भी था और प्रतीक भी.
जहां तक मैं जान पाया, पश्चिम बंगाल में इस तरह के क्लबों की अनुप्रेरणा के स्रोत स्वाधीनता के पूर्व ब्रिटिश काल में स्थापित कलकत्ता और ज़िला मुख्यालयों के यूरोपीयन क्लब थे. इन्हें भारत के अंग्रेज शासकों ने अपने लिए बनाया था और इनमें भारतीयों का प्रवेश निषेध था. भव्य इमारतों में संचालित इन संस्थानों में गोरे चमड़ी वाले सरकारी और सैन्य अफ़सर, व्यवसायी इत्यादि मिलते–जुलते और अपना मनोरंजन करते थे.
आज़ादी के उपरांत कलकत्ता तथा अन्य शहरी इलाक़ों में जैसे जैसे जनसंख्या बढ़ती गई, आवासीय मकान संकुचित हो गए और हरेक मुहल्ले में युवाओं के मिलने और समय बिताने के लिए ‘पाड़ा क्लब‘ प्रिय जगह बन गई. गरीब छप्पर की काया लिये जन्मे कई क्लबों ने समय के साथ कमरे का आकार और आवरण धारण कर लिया. कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत सारे क्लबों के मकान सरकारी या फिर निजी ज़मीन पर अतिक्रमण कर के बनाए गए थे. इस वजह से कुछ क्लब अब भी कोर्ट–कचहरी में मामलों में उलझे हुए हैं.
चूंकि इन क्लबों का पैसा पाड़ा के ही लोगों से मिलता था, उनके पास संसाधन भी कम होती थे. इसलिए टीवी से बहुत पहले मनोरंजन के लिए कैरम बोर्ड ही मुख्य आकर्षण था, हालांकि कहीं–कहीं लड़के शतरंज खेलते हुए भी दिख जाते थे. न्यूनतम साधनों से युक्त यह था तब का पाड़ा क्लब.
पिछले तीन दशकों में पाड़ा क्लबों में ढेरों परिवर्तन दिखने लगे. धीरे–धीरे पाड़ा क्लब केवल किशोरों एवं नवयुवकों के मनोरंजन का एक सहज केंद्र नहीं रहे. जैसे–जैसे इनकी लोकप्रियता बढ़ी, यह मोहल्ले के अन्य क्रियाकलापों से भी जुड़ते गए. मोहल्ले के बुजुर्ग पाड़ा क्लब को चलाए रखने के लिये चंदा तो देते थे, पर क्लब की गतिविधियों में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होता था. लेकिन चूँकि लड़के उस चंदे पर निर्भर होते थे, वे बड़ों की बात सुनते थे और फिर पाड़ा के हित-अहित का भी ख़्याल रखते थे. कई जगह मोहल्ले की महिलाओं ने लड़कों को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों की ओर प्रेरित किया और ये क्लब कविता पाठ, रविंद्र संगीत, ड्रामा इत्यादि के आयोजन से जुड़ने लगे.
इसी तरह पाड़ा क्लबों ने सरस्वती पूजा और फिर दुर्गा पूजा के आयोजन का भी दायित्व अपने कंधे ले लिया. एक दिलचस्प बात यह है कि इन सारे परिवर्तनों के बीच पाड़ा क्लब मूलतः लड़कों का ही क्लब बना रहा, इसमें लड़कियों की भागीदारी न हो सकी.
2011 में पहली बार सरकार बनाने के एक वर्ष बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के 25,000 पंजीकृत पाड़ा क्लबों को सरकारी अनुदान देने की नई प्रथा की नींव रखी. उन्होंने पाड़ा क्लबों में 15.50 करोड़ रुपये अनुदान स्वरूप वितरित किये. कुछ समाचार पत्रों के अनुसार 2021 तक पाड़ा क्लबों को दी गई कुल राशि बढ़कर 1500 करोड़ रुपये हो चुकी थी.
शुरुआत में इन क्लबों को सिर्फ़ वार्षिक अनुदान दिया जाता था, परंतु कुछ वर्षों के बाद राज्य सरकार फुटबॉल के लिए अलग से अनुदान देने लगी. 2017–18 में पहली बार सरकार ने 10,000 रुपये की राशि प्रति क्लब को दुर्गा पूजा आयोजित करने के लिए दी जो 2024 में बढ़कर रुपये 85,000 हो गई है. शायद किसी को भी अचंभा नहीं होगा कि पंजीकृत पाड़ा क्लबों की संख्या भी 10–11 वर्षों में बढ़कर 40,000 हो गई है जिनमें से 7,500 क्लब कलकत्ता महानगरी में स्थित हैं.
इस संदर्भ में एक प्रश्न जो बार बार सुनने को मिलता है वह है इन पाड़ा क्लबों का राजनीतिकरण– क्या यह ठीक हो रहा है?
शायद पाड़ा क्लबों में राजनीति का प्रवेश 1990 के दशक में हुआ. चुनावों के मौसम में उस समय की सत्तारूढ़ वाम पार्टियों ने पाड़ा क्लबों के लड़कों को भी प्रचार और जन संपर्क के कार्यों में लगाना शुरू किया. विशेष रूप से क्लब के वे सदस्य जो वाम पार्टियों से या उनसे संबंधित संस्थाओं से जुड़े हुए थे इस मामले में सक्रिय हो गए थे. पार्टी का पोस्टर लगाना, दीवार लेखन, वोटरों को टिकट वितरण, इत्यादि कार्यों में क्लब के किशोर हिस्सा लेने लगे थे. परंतु इस दौरान भी क्लबों की भूमिका पाड़ाओं के सांस्कृतिक तथा सामाजिक जीवन में भी काफ़ी विस्तृत थी. उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और उन्हें किसी भी प्रकार का सरकारी अनुदान नहीं मिलता था.
इस शताब्दी के पहले दशक से पाड़ा क्लबों द्वारा विभिन्न क्रियाकलापों को अपनाने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति बदलने लगी. सरकारी अनुदान के शुरुआत के साथ ही उन्हें स्थानीय नेताओं का समर्थन और व्यवसायों की मदद भी मिलने लगी.
फलस्वरूप, पाड़ा क्लबों की अवस्था में तीव्र गति से तरक़्क़ी हुई है. बहुत सारे क्लबों ने अपने भवन का निर्माण कर लिया. जहां टीन के छप्पर तले अख़बार पढ़ने वालों को पंखे की हवा नसीब न थी, वहां अब वातानुकूलित कमरे में कैरम बोर्ड का आनंद लिया जाता है. स्वाभाविक है कि राजनीति में भी पाड़ा क्लबों की सक्रियता बढ़ गई है. अब यह सत्तारूढ़ तृणमूल पार्टी के पोस्टर चिपकाने या वोट के दिन टिकट पहुंचाने तक सीमित नहीं रही है बल्कि कई लोगों के अनुसार अब पाड़ा क्लब पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए लोगों को जुटाने में अहम भूमिका निभाते हैं और हिस्सा भी लेते हैं.
1990 में उत्तर 24 परगना में ज़िला प्रशिक्षण के पहले माह में मैं ज़िला मजिस्ट्रेट के साथ दौरे पर बैरकपुर गया था. दो–तीन बैठकों के बाद लौटते वक्त हम लोग एक मैदान के किनारे बनी एक छोटी–सी इमारत के सामने रुके. यह था सोबुज स्वप्नो (हरित स्वप्न) जो कभी पाड़ा क्लब था पर अब फुटबॉल से जुड़ गया था और ज़िला परिषद से कुछ आर्थिक सहायता की उम्मीद कर रहा था. इसलिए इस क्षेत्र के ज़िला परिषद के सदस्य भी वहां मौजूद थे.
क्लब के मुख्य कमरे में कैरम बोर्ड एक ओर सरकाकर बीचों–बीच एक मेज़ लगा दी गई थी. बातचीत आरंभ हुई ही थी कि वामपंथी ज़िला परिषद सदस्य ने क्लब के अध्यक्ष के पीछे दीवार पर लगे पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की तस्वीर की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘आपनारा ऐखोनो एदेर फोटो टांगिये रेखेचेन‘ (आप लोगों ने अभी तक इनकी फोटो टांग रखी है?). क्लब के अध्यक्ष महोदय के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कराहट आई और बातें आगे बढ़ीं. चाय पीकर सभी फुटबॉल मैदान का मुआयना करने बाहर गए.
दस मिनट बाद जब हम सब वापस कमरे में पहुंचे तो मैंने देखा कि दीवार से पूर्व प्रधानमंत्री की तस्वीर गायब हो चुकी है. इसीलिए मुझे लगता है कि पाड़ा क्लब में कैरम बोर्ड का भविष्य राजनीति के भविष्य से कहीं अधिक सुरक्षित है.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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