लद्दाख ने कहा: पांच बरस बाद न प्रश्न मिटे, न पीड़ा

भारतीय संसद द्वारा पारित 'जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019' के तहत लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, विकास के तमाम दावे किए गए थे. क्या बीते पांच साल में लद्दाख की बयार बदली है?

लेह में सड़क किनारे लगा पानीपुरी का ठेला (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

नई दिल्ली: पांच साल पहले 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से लद्दाख का ठंडा रेगिस्तान हमेशा के लिए बदल गया. इस निर्णय ने लद्दाख को जम्मू-कश्मीर राज्य से अलग कर एक नया केंद्र शासित प्रदेश बना दिया. 

तब (2019 में) बौद्ध-बहुल लेह में पटाखों के साथ जश्न मनाया गया था, वहीं मुस्लिम-बहुल कारगिल में बाजार सुनसान रहे थे. लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की मांग करने वालों को लगा कि उनकी मांग सही साबित हुई है. यह उनके लिए कश्मीर-केंद्रित राजनीतिक नेतृत्व से मुक्त होने का क्षण था.  

लेकिन यह उत्सव लंबा नहीं चला. केंद्र सरकार के खिलाफ़ आरोपों के साथ प्रदर्शनकारी सड़क पर उतर आए हैं, और बाहरी लोगों से अपनी संस्कृति, पहचान, जमीन और नौकरियों को बचाने की मांग कर रहे हैं. 

पिछले साल लद्दाख के नायक सोनम वांगचुक ने 21 दिनों की भूख हड़ताल की, जिसका असर 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी दिखा. लद्दाख को बिना विधानसभा के केंद्र शासित प्रदेश में बदलने वाली भाजपा को मुंह की खानी पड़ी और स्वतंत्र उम्मीदवार मोहम्मद हनीफ को 18वीं लोकसभा चुनाव में भारी जीत मिली.

पांच साल में लद्दाख की बदली बयार का जायजा लेने के लिए द वायर हिंदी ने इस इलाके के निवासियों से बात की.

लेह के फेह गांव की रहने वाली त्सेवांग डोलमा कहती हैं कि लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनने का कोई लाभ नहीं मिला है, ‘कुछ नहीं बदला है. हमारे लोगों को नौकरी भी नहीं मिल रहा है. लद्दाख में भी कश्मीर वालों को ही नौकरी मिल रही है. लद्दाखी लोगों को नौकरी नहीं मिल रहा है. सभी ऑफिस और बैंक में हर जगह कश्मीरी ही हैं. लद्दाख के लोग इक्का-दुक्का ही नज़र आते हैं.’

खाना बनाने की तैयारी करतीं त्सेवांग डोलमा और उनके घर की खिड़की से लेह का दृश्य. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

कुछ इसी तरह की बात द हिंदू को हाल में दिए साक्षात्कार में हनीफ ने भी कही थी, ‘अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद लद्दाख में लोक सेवा आयोग का अस्तित्व समाप्त हो गया. इसके चलते कोई भर्ती नहीं हुई है. ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन कर चुके युवा निराश हैं. नौकरी में उम्मीदवारों को आयु मानदंड में छूट दी जानी चाहिए. पिछली बार एचपीसी (उच्चाधिकार समिति) ने हमें आश्वासन दिया था कि अरुणाचल प्रदेश की तर्ज पर स्थानीय लोगों को 80 फीसदी आरक्षण दिया जा सकता है. नौकरियों के लिए लद्दाख निवासी प्रमाणपत्र (एलआरसी) अनिवार्य होना चाहिए, लेकिन सरकार की ओर से अब तक कोई स्पष्टता नहीं मिली है.’

लद्दाख में बाहरी लोग आकर बस रहे हैं या नहीं? इस सवाल पर डोलमा ने कहा, ‘मैंने सुना है. देखा नहीं है. यहां के लोग विरोध कर रहे हैं …हम यहां पहले ही पानी की किल्लत से परेशान हैं. बर्फ कम गिर रही है. अब हर जगह (पानी की) गाड़ी पहुंच जा रही है. नुकसान (पर्यावरण को) तो होगा ही.’ डोलमा लेह में एक छोटा होटल चलाती हैं.

फेह गांव के सरपंच और किसान लोबज़ैंग पुंतसोक कहते हैं, ‘बदलाव (370 के बाद का) अच्छा तो नहीं है. 370 होने से हमारी जमीन, हमारी नौकरी पर हमारा (लद्दाख के लोगों का) हक था. कोई बाहर से आकर छेड़छाड़ नहीं कर सकता था. हम चाहते थे कि लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित राज्य बनाया जाए, लेकिन विधायिका के साथ. अभी तो हम बिना विधायिका के हैं. मौसम की वजह से लद्दाख में साल में छह महीने सब कुछ बंद रहता है. विधायिका न होने के कारण, काम तेजी से नहीं हो पाता है और टलता रहता है.’  

जमीन और नौकरी को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए पुंतसोक कहते हैं, ‘370 हटने से जमीन और नौकरी भी केंद्र के हाथ में चली गई है. हमारी पुरानी संस्कृति खत्म होती जा रही है. पानी की दिक्कत बढ़ती जा रही है. मैंने सुना है कि केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद से बाहरी लोग आकर बस रहे हैं.’

(फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

लेह निवासी और नेशनल फॉरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी (दिल्ली) की छात्रा लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के फायदे गिनवाती हैं. ‘पहले हम लद्दाखियों के पास कोई ढंग का कॉलेज नहीं था. एक ही कॉलेज था, जिसमें बहुत कम विषयों की पढ़ाई होती थी. छात्र-छात्राओं के पास बहुत कम अवसर होते थे. लेकिन अब हमारे पास तीन विश्वविद्यालय हैं- लेह, कारगिल और खलत्से में. यानी शिक्षा के क्षेत्र में बड़े सुधार हुए हैं. पहले लद्दाख में सरकारी स्कूल जम्मू-कश्मीर बोर्ड के अंतर्गत आते थे. अब लद्दाख के बच्चे सरकारी स्कूलों में सीबीएससी बोर्ड की शिक्षा ले रहे हैं. केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद सरकारी स्कूलों की शिक्षा में सुधार हुआ है.  बच्चों के सामने अब अवसर के दरवाजे खुल गए हैं. मेरे माता-पिता दोनों शिक्षा के क्षेत्र में ही हैं, सरकारी नौकरी में हैं.’

विकास के अन्य कार्यों को गिनवाते हुए वह कहती हैं, ‘अब हमारी अपनी पहचान है. जब केंद्र शासित प्रदेश नहीं मिला था, हमारा न जिक्र होता था, न अपना बजट होता था. पहले जम्मू-कश्मीर के बजट का बहुत छोटा हिस्सा लद्दाख के हिस्से आता था. अब हमें अपना खुद का बजट मिल रहा है. तेजी से विकास हो रहा है. दूर-दूर के गांवों में सड़कें बन रही हैं, मोबाइल नेटवर्क पहुंच रहा है. ये सब पिछले पांच साल में हुआ है.’

लद्दाख जैसे संवेदनशील क्षेत्र में विकास के मौजूद स्वरूप को लेकर पर्यावरणविद् लगातार सवाल उठाते रहे हैं लेकिन पिछले पांच साल से दिल्ली में रहकर पढ़ाई करने वाली इन छात्रा का कहना है कि ‘लेह बहुत पिछड़ा इलाका है. वहां विकास की जरूरत है. वह इलाका सिर्फ पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील नहीं है. अपनी भू-राजनीति की वजह से भी संवेदनशील है. एक तरफ पाकिस्तान है तो दूसरी तरफ चीन. ऐसे में जब तक वहां रोड नहीं होगा, गाड़ियां नहीं चलेंगी, मिलिट्री कैसे काम करेगी. बिना इंफ्रास्ट्रक्चरल के सुरक्षा कैसे होगी.’

वह आगे जोड़ती हैं, ‘मुझे याद है, मेरे बचपन में सर्दी के दिनों में बर्फ गिरने से हम पूरी तरह मेनलैंड से कट जाते थे. तीन महीने तक सब्जी और जरूरत की दूसरी चीजें भी नहीं मिलती थीं. हमें सब कुछ पहले से स्टोर करके रखना पड़ता था. इसलिए मैं कहूंगी कि सड़कें वगैरह वहां जरूरी है.’