हमारे समय में तरह-तरह के दावे अनेक लोग, राजनीति, धर्म, बाज़ार, मीडिया आदि लगभग रोज़ीना और लगातार करते रहते हैं. इनमें से कुछ दावे ऐसे हैं जो बार-बार किए जाते हैं और कभी सच नहीं हो पाते. वे सच के बजाय दावे ही बने रहते हैं और उनका बार-बार वैसा किया जाना चलता रहता है. हम भी अक्सर इस सचाई को पहचानते नहीं हैं और न ही यह याद रखते हैं कि ये दावे न जाने कब से किए जा रहे हैं और कभी सचाई में नहीं बदले. हम फिर-फिर इन्हीं दावों के झांसों में आते रहते हैं. अगर हमें यह एहसास होता है कि ये दावे या इनमें से कुछ दावे हवाई हैं या झूठे हैं, सच नहीं होने वाले तो फिर हम उनको ख़ारिज क्यों नहीं करते और ऐसे व्यवहार करना क्यों जारी रखते हैं मानो कि हमें इन दावों पर भरोसा है?
राजनीति सदियों से यह दावा करती आ रही है कि हमें स्वतंत्र, समतामूलक, न्याय-सम्मत और बंधुतावाली व्यवस्था देगी पर इनमें से प्रायः कोई भी पूरी तरह से आज तक संभव और सच नहीं हुआ. हमारी स्वतंत्रता में राजनीति कटौती करती रहती है, समता के बजाय विषमता बढ़ाती-पोसती रहती है; न्याय से स्वयं विरत रहती है और हमें वंचित करती रहती है और बंधुता का परिवेश दूषित-खंडित करती रहती है.
धर्म हमें सदियों से आध्यात्मिक मुक्ति, उदारता-उदात्तता का आश्वासन देता रहा है और ये दावे भी खोखले सिद्ध होते रहे हैं. स्वयं उसके प्रचारक और प्रवक्ता, व्याख्याता और नेता इन मूल्यों से विरत रहते आए हैं और अधिकांश भ्रष्टाचार-कदाचार में लिप्त रहते हैं. वे बहुत सक्रियता और वाचालता से सांप्रदायिकता और हिंसा, नफ़रत और भेदभाव फैलाने में व्यस्त रहते हैं.
मीडिया सच और सचाई के साथ खड़ा होगा, वह सत्ता के सभी रूपों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रखेगा और लोकतंत्र में असहमति की विधा में होगा यह सब हमने पिछले दशक में भयानक अश्लीलता लेकिन साधन-संपन्नता के साथ मीडिया के एक बड़े प्रभावशाली हिस्से से हाशिये पर खिसकाए जाकर गोदी मीडिया बनते देखा है. गोदी मीडिया हमारे समय में सबसे अधिक झूठ-नफ़रत-हिंसा बोलने-फैलाने में बेहद तेज़ और सक्रिय रहा है.
बाज़ार हर चीज़ को ख़रीद-फ़रोख़्त का मामला बनाकर किसी मूल्यदृष्टि को अप्रासांगिक बनाने दे रहा है. उसका दावा सबको साथ लेने का है पर सचाई में वह नई विषमताएं, नए लालच, नए अपराध उकसाने में व्यस्त और सफल है. सांप्रदायिकता, धर्मांधता आदि को बढ़ावा देने और उनको भी लाभ-हानि की चीज़ बनाने में बाज़ार की बड़ी भूमिका है.
ऐसे में साहित्य भला किस तरह के दावे कर सकता है! शायद इतना ही कि वह हर हालत में मनुष्य बने रहने, प्रश्नवाचक और असहमत होने, अपने को भी प्रश्नांकन के घेरे में लेने की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा है.
अनुपस्थिति-उपस्थिति
हिंदी लेखक को अपने परिवेश में कई तरह से कई अनुपस्थितियों, उपस्थितियों का अनुभव और सामना करना पड़ता है. लिखना भले एकांत में होता हो, वह किसी अरण्य में नहीं होता. उसके इर्द-गिर्द हमारे समय में कई तत्व और शक्तियां सक्रिय और मौजूद रहती हैं जो उसे प्रभावित, बाधित आदि करती रहती हैं. कई बार लगता है कि हम लेखक और लेखन की हिंदी में सामाजिक पृष्ठभूमि और संदर्भ का आकलन करते समय इन्हें हिसाब में नहीं लेते. अगर खुले दिमाग़ से यह विश्लेषण किया जाए तो कई बारीकियां भी नज़र आएंगी, कई विडंबनाओं और कई अंतर्विरोध.
सबसे भयावह विडंबना है लेखक और लेखन को समझ-संवेदना से पढ़ने वाले समाज की अनुपस्थिति. हिंदी समाज का थोड़ा-सा हिस्सा, उदाहरण के लिए, कविता सुनता-सराहता है वह ऐसी कविता है जो सतही-भावुक-हंसोड़ कविता है, ऐसी कविता नहीं जो महत्वपूर्ण और गहरी है. यह कोई नई बात नहीं है. गंभीर साहित्य के पाठक हिंदी में हमेशा से कम रहे हैं. प्रसाद जैसा बड़ा कवि अपने मित्र और अपने साहित्य के कुपाठ की शुरुआत करने वाले प्रेमचंद जैसा मान्य और लोकप्रिय कभी नहीं हो पाया. जो समाज प्रेमचंद को समझता था उसने प्रेमचंद जैसा मान्य और लोकप्रिय कभी नहीं हो पाया. जो समाज प्रेमचंद को समझता था उसने प्रसाद को समझने की कोई कोशिश कभी नहीं की.
वैसे छायावादियों को यह सुयोग मिला कि जब वे लिख रहे थे तभी हिंदी साहित्य की पढ़ाई, उसके शोध आदि ने आकार लेना शुरू किया और उन्हें आसानी से पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों में जगह मिल गई. हिंदी समाज उन्हें ज़्यादातर पाठ्य कवि के रूप में ही पढ़ता-जानता रहा है.
आगे जाकर बच्चन-दिनकर आदि कवियों को सामाजिक लोकप्रियता मिली, हालांकि उनमें से कोई भी प्रसाद-निराला जैसी ऊंचाई और गहराई का कवि नहीं था. इस कविता में एक तरह का वीरता और बेचारगी-दीवानगी का भाव था, लोकप्रियता के कारण नायकत्व का छद्म जिसमें ‘अपने समय का सूर्य हूं मैं’ जैसी अतर्कित उक्तियां प्रशंसित होती रहीं. इतना ज़रूर है कि इन कवियों ने कविता का सार्वजनिकता की, थोड़े समय के लिए सही, पुनर्वास किया. इस सामाजिक उपस्थिति से, बाद के समय में, आज तक, अनुपस्थिति की ओर अपसरण ही होता रहा है.
अक्सर इसके लिए सरसरी तौर पर यह कहा जाता है कि लेखक ही समाज से दूर जा रहा है: इसका एहतराम तक नहीं है कि हिंदी में समाज भी साहित्य से लगातार दूर जाता रहा है. भारत में, किसी अन्य भाषा-भाषी समाज में, साहित्य इतना हाशिये पर नहीं है जितना हिंदी में. यह तब जब बौद्धिक रूप से समकालीन हिंदी लेखन का बहुत बड़ा हिस्सा समाज से अपनी प्रतिबद्धता का बहुत मुखर इज़हार करता रहा है. हिंदी समाज, कुल मिलाकर, अपने लेखकों को अकेला, निरुपाय और निहत्था करता आया है.
स्वयं साहित्य के अपने परिवेश में आलोचनात्मक दृष्टि का लगातार क्षरण होता रहा है. एक तरह की सतही-उथली, ज़्यादातर बेईमान सार्वजनिकता छा गई है. सोशल मीडिया इस सार्वजनिकता को पोसने-फैलाने में बड़ा सक्रिय रहा है. जहां उस पर साहित्य की उपलब्धता, उस पर चर्चा आदि बढ़ी हैं, वहीं, दूसरी ओर, उसमें कृतियों और लेखकों पर अतर्कित फ़तवेबाज़ी, कीचड़ उछाल, हर किसी कविता की प्रशंसा आदि आलोचना-विरोधी गतिविधियां भी बढ़ी हैं.
सोशल मीडिया का एक बड़ा वाचाल-सक्रिय हिस्सा साहित्य को सिर्फ़ राय का मामला बनाकर आलोचना को अनावश्यक बना रहा है. परस्पर-प्रशंसा-मंडल तेज़ी से बढ़ रहे हैं. यह अलक्षित नहीं जाना चाहिए कि सोशल मीडिया पर सर्वग्रासी राजनीति और उससे बढ़ रहे ख़तरों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सिकुड़ती जगह का कोई तीख़ा एहसास दिखाई नहीं देता.
स्वतंत्रता का अर्थ
स्वतंत्रता का एक स्थायी शाश्वत अर्थ है और सदियों से रहा है. पर उसमें, बदलते परिवेश और समय के अनुसार, कई और अर्थ जुड़ते रहे हैं. इस संदर्भ में अगर हम आज विचार करें तो लगेगा कि हमारे लिए इस समय का अर्थ प्रमुख रूप से यह है कि हम झूठ-नफ़रत-हिंसा-हत्या-बलात्कार की मानसिकता और राजनीति की गुलामी करने से मुक्त रहें. हम झगड़ों-झांसों-गाली-गलौज की भाषा और उसके बढ़ते व्यवहार से अपने को मुक्त रखें. हम धर्म की दादागिरी सांप्रदायिकता की बढ़ती प्रवृत्ति से भी अपने को मुक्त रखें.
हम मीडिया, बाज़ार आदि के गुलाम बनने का सख़्त प्रतिरोध कर अपनी स्वतंत्रता का इज़हार करें. जो समाज, भले वह कितना ही व्यापक क्यों न हो, विषमता और गै़र-बराबरी बढ़ाता है, हिंसा और नफ़रत को अपने स्वभाव में शामिल कर रहा है उस समाज से हम अपने को स्वतंत्र मानें और उसका विरोध करें.
हमें यह याद रखना चाहिए कि हम पर विदेशी कर्ज तेज़ी से बढ़ता गया है और पहले के मुक़ाबले कई गुना हो चुका है: उस पर हमारा बस भले नहीं है, पर बहुत सारा चमकीला विकास इस उधारी के बल पर हो रहा है. हमें उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए. ऐसी ही स्वतंत्रता का इज़हार हमें करना चाहिए ज्ञान के अपमान और ज्ञानोत्वादन के साधन लगातार घटाए जाने के विरुद्ध सचेत और सक्रिय होकर.
स्वतंत्रता एक बार मिल गई स्थिति नहीं है: उसे लगातार समृद्ध करना और बचाना होता है, हर पीढ़ी, हर व्यक्ति और हर समाज को.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)