क्या अयोध्या अब नए बदलाव की ओर चल पड़ी है?

लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने कहा था कि भले सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ, हवा में ऑक्सीजन थोड़ी बढ़ गई है. अब इस 'ऑक्सीजन' के असर को अयोध्या में महसूस किया जा सकता है.

अयोध्या. (फोटो साभार: फेसबुक/@AyodhyaDevelopmentAuthority)

अयोध्या/फैज़ाबाद: अयोध्या में इन दिनों सावन मेले की धूम है. हो भी क्यों नहीं, इसकी परंपरा सैकड़ों साल पुरानी हैं. जानकार बताते हैं कि रामानंदी संप्रदाय (जो बैरागी साधुओं के चार प्राचीन संप्रदायों में से एक और आज की तारीख में सबसे बड़ा है) के प्रणेता रामानंद की शिष्य परंपरा की चौथी पीढ़ी में अग्रदास हुए और उनके द्वारा सोलहवीं शताब्दी में रसिक संप्रदाय का प्रवर्तन किया गया, तो अयोध्या के ज्यादातर संत-महंत उनके अनुयायी बन गए.

हिंडोलों में राम

ज्ञातव्य है कि रामानंद के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक अनंतानंद भी थे, जिनके शिष्य कृष्णदास पयहारी आगे चलकर आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षागुरु बने. अग्रदास इन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे और उनके संप्रदाय में भगवान राम धनुर्धर से ज्यादा रसिकबिहारी और कनकबिहारी हुआ करते हैं- ‘रघुनंद, आनंदकंद, दशरथनंद, दीनबंधु, दारुण भवभयहारी’ और ‘नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम’ भी. इतना ही नहीं, उनकी छवि ‘कंदर्प अगणित अमित नवनील नीरद सुंदरम’ है. वे ‘दीनबंधु’ पहले हैं, दिनेश दानव दैत्यवंश निकंदनम बाद में. ‘आजानुभुज शरचापधर संग्रामजित खरदूषणम्’ से पहले ‘शिरकुमुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्’.

संत तुलसीदास उनसे ‘मम हृदय कुंज निवास’ करने का निवेदन करते हैं तो भी पहले उन्हें ‘शंकर शेष मुनि मन रंजनम्’ बताते हैं, ‘कामादि खल दल गंजनम्’ बाद में.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि अयोध्या में राम कभी फूल बंगले में विराजते हैं तो कभी हिंडोलों में झूलते हैं. सावन आता है तो पूरा का पूरा उनके झूलनोत्सव या उसकी तैयारियों के नाम हो जाता है, जबकि दशहरे में उनका रौद्ररूप प्रदर्शित करने वाले रावण वध या लंकाविजय का उत्सव इतना बड़ा नहीं होता.

बहरहाल, अयोध्या से रेलों व बसों की खिड़कियों या हवा-हवाई आवाजाही भर का रिश्ता रखने वालों को शायद ही पता हो कि सावन मेले का फैजाबादी अमरूदों के स्वाद व सुगंध से चोली-दामन का संबंध है. कुछ ऐसा कि आधी-आधी रात तक झूलनोत्सव देखते दर्शनार्थी-वे बालक हों, वृद्ध या युवा-इन अमरूदों को बड़े चाव से हलक के नीचे उतारते हैं. इस तथ्य के बावजूद कि अब ये अमरूद नाम को ही ‘गरीबों के सेब’ रह गए हैं और बारिश में भीगते हुए जेबें ढीली करके इन्हें खरीदने और खाने से सर्दी-खांसी व बुखार के बरबस चढ़ बैठने के अंदेशे भी बहुत सताते हैं.

लेकिन यहां इनके प्रसंग से आपको जो खास बात बतानी है, वह थोड़ी अलग है.

बढ़ती ऑक्सीजन

बीते सप्ताह इस मेले में एक ठेले पर बिकते अमरूदों का सजीला रूप-रंग देखकर खाने का मन हुआ तो पास जाकर भाव पूछा और जवाब सुनकर ‘बहुत महंगे हैं’ कहकर आगे बढ़ने को हुआ तो ठेले वाले को कहते सुना, ‘ले लीजिए, बाबूजी! अभी तो महंगा ही है. कुछ साल बाद मिलेगा ही नहीं. फैजाबादी है और अब या तो यह फैजाबादी बचा है या फैजाबाद लोकसभा सीट.’

‘क्या मतलब?’ मैंने चौंककर पूछा तो उसका जवाब था, ‘अभी योगी जी की कृपा नहीं हुई इस पर. वरना जैसे हमारे शहर, जिले, मंडल और रेलवे स्टेशन के नाम से फैजाबाद गायब हो गया, इसके नाम से भी गायब हो गया होता.’

उसके इतना कहते-कहते नजरें मिलीं तो हम दोनों ने एक दूजे को पहचाना. फिर मैंने पूछा, ‘अरे भाई! फलों के ठेलों पर नेमप्लेट लगाने के हुक्मनामों के इस दौर में तुम्हें जोर-जोर से ऐसी फुटानियां बोलते हुए डर नहीं लगता?’

उसने कहा, ‘लगता था सर, बहुत लगता था, लेकिन अब…!’

मुझे लगा कि आगे वह कहेगा, ‘… माहौल बदल गया है. इसलिए नहीं लगता.’ लेकिन वह ‘हद से गुजरने के बाद दर्द है कि दवा बन गया है’ कहता हुआ बेफिक्री से ‘अमरूद ले लो’ की हांक लगाने लगा, तो अचानक मुझे याद आया: लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो हरफनमौला चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने कहा था कि भले ही सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ, हवा में ऑक्सीजन थोड़ी बढ़ गई है.

यकीनन, ठेले वाले ने कहा भले नहीं, यह बढ़ी हुई ऑक्सीजन ही थी, जिसकी बिना पर वह इस मेले में उन हिंदू-मुस्लिम ग्रंथियों की जकड़नें ढीली कर रहा था, जिन्हें हिंदुत्ववादियों की नाना प्रकार की आक्रामक व विसंवादी कवायदों ने पिछले सालों में इस धर्मनगरी की छाती पर बरबस लाद दिया था. इस तरह कि वे हिंदुओं व मुसलमानों की ही नहीं, उदार व अनुदार हिंदुओं की बातचीत में भी दिखाई देने लगी थीं. परस्पर संदेहों, भयों व अविश्वासों के चलते यह तकल्लुफ पीछा ही नहीं छोड़ता था कि क्या पता किस बात से किसकी भावनाओं को कितनी गहरी ठेस लग जाए और वह बेवजह कितना बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दे.

मुंह नोचने वाले अदृश्य

कहीं पड़ोसियों के रिश्ते इतने रिसने लगे थे कि उनमें दुआ-सलाम बंद हो गई थी तो कहीं ‘ऊपर से तो दिल मिला भीतर फांकें तीन’ जैसी स्थिति थी, जिसमें भलमनसी को दिखावा माना जाने लगा था. यहां तक कि किराये पर घर ढूंढ़ने वाले उन मुहल्लों को प्राथमिकता देने लगे थे, जहां उनके धर्म के लोग हों. करते भी क्या, ‘भक्तों’ की नई जमात अपने ‘भगवान’ की शान में ‘जरा-सी गुस्ताखी’ पर भी मुंह नोच लेने पर उतर आती थी.

अब ऑक्सीजन बढ़ गई है तो जहां इन ‘भक्तों’ का बड़ा हिस्सा ‘अदृश्य’ हो गया है, वहीं ऐसे लोग सीन में आ गए हैं जो उक्त ठेले वाले की तरह अभिव्यक्ति के खतरे उठा रहे हैं. दिल की बात जुबां पर लाने से पहले सौ बार सोचने की जरूरत नहीं महसूस हो रही उन्हें और वे अपने भीतर जमा ‘बुग्ज’ को भरपूर निकाल रहे हैं.

कोई कहता है कि लल्लू सिंह (लोकसभा चुनाव में फैजाबाद सीट के भाजपा के प्रत्याशी) इस कारण हारे कि मतदाताओं व कार्यकर्ताओं के प्रति उनका बर्ताव बहुत रूखा हो चला था. तिस पर संविधान बदलने के लिए चार सै पार को जरूरी बताने वाले उनके वायरल हुए वीडियो ने भी उनका काम खराब किया, तो कोई यह पूछने की ‘हिमाकत’ भी कर देता है कि भाजपा की ओर से देश भर में इकलौते नरेंद्र मोदी ही चुनाव लड़ रहे थे और अयोध्या में भी वही सबसे आगे थे, तो उनकी जगह लल्लू क्योंकर हार सकते हैं? फिर यह कहने वाले भी आगे आ जाते हैं कि मामले को आस्था बनाम संविधान तो भाजपा ने ही बनाया.

पहले ऐसी ‘हिमाकतें’ अपने अपमान को निमंत्रित करने वाले दुस्साहस में शुमार की जाती थीं. लेकिन अब ‘भक्त’ इन्हें सुनते हैं तो अंदर ही अंदर तिलमिला कर भले रह जाते हों, न मुंह खोलते हैं, न कहने वाले से उलझते हैं.

कारण यह कि उलझने पर ‘तीसरा पक्ष’ मजे लेने लगता है: ‘यह आप (हिंदू) लोगों का आपसी मामला है. आपस लोग ही निपटाइए. हम तो खुश हैं कि आप अयोध्या में अपनी हार के लिए हमें (मुसलमानों को) जिम्मेदार नहीं ठहरा रहे. उन हिंदुओं को ही कोस रहे हैं, जिन्होंने चुनाव में अपनी जाति या संविधान को आस्था से ऊपर रखा. सोशल मीडिया पर उनके ही आर्थिक बहिष्कार की बातें भी कर रहे हैं. आपको ठीक लगता है तो यह बहिष्कार करके भी देख लीजिए. हां, चूंकि हमारा कुसूर नहीं, इसलिए हमारे उगाए फूल, हमारे सिले कपड़े और हमारे बनाए खड़ाऊं खुशी-खुशी देव मूर्तियों, विग्रहों और संतों की सेवा में अर्पित करते रहिये.’

फैजाबादी स्टाइल

निस्संदेह, ऐसी बातें हंसी-मजाक के लहजे में कही जाती हैं, लेकिन उनका संदेश ‘घाव करें गंभीर’ जैसा होता है. अलबत्ता, इसके चलते बात तल्ख होने लगे तो उसे हल्की करने का ‘फैजाबादी स्टाइल’ काम में लाया जाता है.

कोई झोला भर अमरूद लिए चला आता है. कहता हुआ कि छोड़िए भी, लीजिए, अमरूद खाइए. बस कुछ साल और खा पाएंगे. फिर तो दुर्लभ हो जाएगा यह.

सामने वाला पूछता है-‘क्यों भला?’ तो जवाब आता है: अमरूदों के बाग ही नहीं बच रहे. न मांझा में, न देवकाली में, न नहरबाग में, न जमथरा में, न ककरही बाजार में, न मीरानघाट में. कुछ बागों पर सरयू मैया कृपा कर दे रही हैं, काटकर अपने साथ बहा ले जा रही हैं, तो कुछ में बिल्डरों द्वारा वैध-अवैध कालोनियां या कंक्रीट के जंगल उगा दिए जा रहे हैं.

सामने वाला अमरूदों का कद्रदान नहीं हुआ तो बात फिर एक मोड़ लेती है: नहीं खाएंगे? कोई बात नहीं. बंदर क्या जाने अदरक, माफ कीजिएगा, अमरूद का स्वाद…. जानते हैं, एक समय ये अमरूद नवाबों के दस्तरखान की शोभा हुआ करते थे. अपने लाजवाब स्वाद व सुगंध के कारण…. लेकिन कोई बात नहीं, ले जाइए, बजरंगबली के सैनिकों को ही खिला दीजिए इन्हें. उन्हें ही अब ये अमरूद कहां मिलते हैं. जिस भी बाग में जाएं, भगा दिए जाते हैं बेचारे. उनकी ज्यादातर जगहें अयोध्यावासियों ने हथिया ली हैं.

कुछ समझे आप? धीरे-धीरे ही सही, अयोध्या मुक्त होकर अपने नए समतल की ओर चल पड़ी है. लेकिन क्या पता, उसे फंसाने में लगे रहने वाले उसकी इस यात्रा को किस तरह देख रहे हैं!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)