अमृतलाल नागर का ‘करवट’: कई पीढ़ियों के इतिहास को समेटता उपन्यास

आज अमृतलाल नगर की 108वीं जयंती है. पढ़िए उनके उपन्यास 'करवट' पर लेख जो प्रस्तावित करता है कि यह उपन्यास विश्व के महानतम उपन्यासों के समकक्ष रखा जा सकता है.

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'करवट' का कवर और अमृतलाल नागर. (फोटो साभार: राजपाल एंड सन्स/विकीपीडिया)

अंग्रेज़ी में विश्व साहित्य की महान कृतियों के लिए अक्सर ‘टाइमलेस’ विशेषण का प्रयोग किया जाता है. मुझे यह शब्द उतना ही अर्थविहीन लगता है जैसा उसका शब्दशः हिंदी अनुवाद ‘कालातीत या कालविहीन, या कालरिक्त.’ ख़ासकर जब एक उपन्यास के लिए ‘टाइमलेस’ शब्द का इस्तेमाल होता है, तब यह शब्द और भी असहज लगता है. क्योंकि मेरी दृष्टि में, मेरे पाठकीय अनुभव के अनुसार, एक उपन्यासकार पात्रों के जीवन में होनी वाली घटनाओं को क्रमबद्ध करता है, उन्हें सिलसिलेवार तरीक़े से पाठकों के सामने रखता है. एक उपन्यासकार का सर्वोपरि कार्य है घटनाओं को एक साहित्यिक विमर्श के ज़रिये पेश करना और पाठकों को नई-नई घटनाओं और नए नए पात्रों से अपनी रचनात्मक कुशलता से अवगत कराना.

विभिन्न साहित्यिक सम्मानों और पद्मभूषण से सम्मानित अमृतलाल नागर में ये क्षमता, ये क़ाबिलियत इतनी मज़बूत थी कि मेरे जैसा पाठक, जो आज 21वीं सदी के तीसरे दशक में, भारत से कहीं दूर बैठा उनके उपन्यास पढ़ता है, तो उसे भारतीय इतिहास के ही नहीं, आज के हर पल बदलते समाज को समझने में आसानी होती है, उसके लिए एक परिपेक्ष्य मिलता है. इसीलिए मैं उनके उपन्यासों को टाइमलेस/समयविहीन नहीं, समसामयिक (timely/contemporary)  मानता हूं.

नागर पात्रों, घटनाओं और पाठकों को अपने उपन्यासों में शब्द, भाव, विचार, संवाद, व विवेचन से बांधने वाले, एक अभूतपूर्व देश-काल-बंधक (‘time-place-capturing’) उपन्यासकार थे. हालांकि उनकी सभी कृतियां, जैसे ‘मानस का हंस,’ ‘नाच्यो बहुत गोपाल,’ ‘भूख’ इत्यादि, अलग -अलग तरीक़े से घटनाओं को और समय को बांधती हैं, मैं अपने विचार उनके उपन्यास ‘करवट’ (1985) पर केंद्रित रखूंगा.

बीसवीं सदी का आठवां दशक भारतीय उत्तर-औपनिवेशिक अंग्रेजी साहित्य में नए अध्याय के लिए जाना जाता है. सलमान रुश्दी की मिडनाइट्स चिल्ड्रन (1981) की शानदार वैश्विक सफलता के बाद स्वातंत्र्योत्तर भारत पर आधारित कई महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए. इनमें अनीता देसाई का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित बाउमगार्टनर्स बॉम्बे (1988) शामिल है, जो एक जर्मन-यहूदी नायक ह्यूगो बाउमगार्टनर के बारे में है, जिसे जर्मनी में नाजियों के सत्ता में आने के बाद हैम्बर्ग छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है. द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-पाकिस्तान की स्वतंत्रता और विभाजन के दौरान और उसके बाद बाउमगार्टनर शरणार्थी बन कर रहता है.

अमिताव घोष की साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता द शैडो लाइंस  (1988) में कथाकार अपने चचेरे भाई त्रिदिब की कहानी बताता है. त्रिदिब की कहानी भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास के साथ साथ चलती है, जिसमें स्वदेशी आंदोलन और पूर्व और पश्चिम बंगाल का विभाजन (1905), दो विश्व युद्ध, और 1963-64 के ढाका दंगे शामिल हैं.

उपर्युक्त उपन्यासों का ऐतिहासिक ढांचा बीसवीं सदी तक सीमित रहा. इन उपन्यासों में एक समानता थी, उनकी सृजनात्मक भाषा: एक भिन्न रूप से ढाली गई भारतीय (या दक्षिण एशियाई) अंग्रेजी. यह नई और अद्भुत भाषा आधुनिकतावादी अंग्रेजी कथा साहित्य के सभी रंगों के साथ खेलती थी. रुश्दी ने जेम्ज़ जॉयस की तरह भाषाई क्रीड़ा को प्राथमिकता दी, तो घोष ने उपन्यास की एक बहु-दृष्टिकोणीय और खंडित कथा-तकनीक अपनाई.

वहीं देसाई ने अंग्रेजी या जर्मन उपन्यासों के नकली भारीपन को अस्वीकार कर दिया. हिटलर की नाज़ी तानाशाही की छाया में मानवता की निराशा, यहूदियों का नरसंहार, और फिर भारत और पाकिस्तान के विभाजन के साथ आए धार्मिक दंगों के रक्तपात को व्यक्त करने के लिए देसाई ने आवश्यक एक सरल, प्रत्यक्ष प्रभावशाली भाषा का इस्तेमाल किया.

अमृतलाल नागर का ‘करवट’ कई कारणों से ऊपर वर्णित उपन्यासों से इतर चर्चा का हकदार है.

सबसे पहला, उपन्यास में उन्नीसवीं सदी के उत्तर और पूर्वी भारत के युगांतरकारी सामाजिक-राजनीतिक और ऐतिहासिक परिवर्तनों का काल्पनिक पुनर्निर्माण. दूसरा, उपन्यास का मुगल साम्राज्य के अंतिम महत्वपूर्ण गढ़: अवध रियासत, और उसकी राजधानी लखनऊ शहर पर ध्यान केंद्रित करना, ख़ासकर 1857 के ग़दर और उसके बाद की आधी सदी के दौरान. तीसरा, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कलकत्ता शहर में अंग्रेजों के औपनिवेशिक प्रशासन और आधुनिक अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली के नाटकीय प्रभावों का विवरण. और अंत में, नागर द्वारा लखनऊ, कलकत्ता (अब कोलकाता) और लाहौर में एक सवर्ण हिंदू जाति, खत्रियों के सूक्ष्म इतिहास को भी दर्शाना.

यह सभी पहलू ‘करवट’ में उपन्यास के नायक द्वारा अंग्रेजी सीखने और फिर पढ़ाने की पृष्ठभूमि में घटित होते हैं. ‘करवट’ का आख्यान इतिहास के कई मोड़ दर्ज करता है, जिनमें उपमहाद्वीप का भाषाई परिवर्तन भी शामिल है: उन्नीसवीं सदी के भारत में अंग्रेजी का अधिग्रहण और प्रसार, तथा शासक शिक्षित वर्ग की भाषा के रूप में फारसी का प्रतिस्थापन.

कई मायनों में, यह उपन्यास भारत में अंग्रेज़ी के इतिहास का पूर्वाभास देता है जिसमें रुश्दी, घोष और देसाई अपनी रचनाएं लिखते हैं. लेकिन जिस तरह भारतीय अंग्रेज़ी में भारतीय भाषाएं, उनके व्याकरण और शब्दावली हमेशा प्रस्तुत रहते हैं, उसी तरह नागर का हिंदी उपन्यास नागरी में लिखे जाने के बावजूद कई भाषाओं का समागम बन जाता है. इसमें लखनऊ की नफ़ीस उर्दू के साथ-साथ सभी तबकों में इस्तेमाल की जाने वाली अवधी, जिसका भाषायी धार्मिकरण नहीं हुआ है, जिसे हिंदू और मुसलमान सब इस्तेमाल करते हैं, कलकत्ता में बांग्ला और हिंदी भाषी खत्रियों की बांग्ला पुट वाली हिंदी और हिंदी पुट वाली बांग्ला, अंग्रेजों और यूरेशियनों की अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी के नवशिक्षितों की हिंदी-उर्दू-बांग्ला मिश्रित अंग्रेज़ी, और लाहौर की पंजाबी- सभी भाषाएं और बोलियां एक अद्भुत बहुभाषीय कथासरित्सागर की रचना करती हैं.

‘करवट’ वर्ष 1854 के आस पास शुरू होता है, जब नायक बंसीधर टंडन, जिसे घर में प्यार से ‘तनकुन’ कहा जाता है, उन्नीस साल की उम्र में तीन जीवन-परिवर्तनकारी निर्णय लेता है: पहला, फ़ारसी में अपनी उपलब्धियों को त्यागना, दूसरा, अंग्रेज़ी सीखना, और तीसरा, जानेआलम नवाब वाजिदअली शाह के सामंती लखनऊ से निकलकर कलकत्ता जाना, जो भारत में राजनीतिक और आर्थिक शक्ति का नए केंद्र के रूप के विकसित हो रहा है.

लेकिन उपन्यास की शुरुआत न नवाबों से होती है, न ही हिंदुस्तान के नए रहनुमाओं से, जिन्हें ‘लाट साहब’ या ‘कंपनी बहादुर’ कहा जाता है. उपन्यास का पहला पन्ना पाठकों का समाज के हाशिए पर रहने वाले, मेहनत मशक़्क़त करने वाले एक ऐसे तबके से तारूफ़ कराता है, जिनके पेशे उपन्यास के अंत (1905) तक ग़ायब हो जाएंगे: जैसे महलों में काम करने वाली बांदियां, अस्तबलों के मालिक जो किराए पर अपने घोड़े देते हैं, सराय में रात गुज़ारने वालों की ख़िदमत करने वाले मसलची और किस्सागो वग़ैरह.

बंसीधर एक खत्री परिवार से आता है, उसके पिता मुसद्दीलाल फेरी लगाकर कपड़ों के थान बेचते हैं. संयोग से बंसीधर लखनऊ में ‘रेज़िडेंट बहादुर’ के हेड क्लर्क में काम करने वाले एक युवा अंग्रेज़ अफ़सर से, और उसके ज़रिये लेडी नैन्सी मैल्कम से मिलता है. ये बंसीधर के जीवन की पहली करवट साबित होती है. जैसे-जैसे हिंदुस्तान की कहानी बदलती है, वैसे-वैसे बंसीधर की ज़िंदगी कई करवटें लेती है.

बंसीधर के पिता की परिचित लेडी नैन्सी मैल्कम, कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मिस्टर पिनकॉट को संबोधित करते हुए एक परिचय पत्र लिखने का वादा करती है, हालांकि एक शर्त के साथ. बंसीधर को उसके और पिनकॉट के लिए ‘दुर्लभ संस्कृत पांडुलिपियां’ प्राप्त करनी होंगी. एक परिचित बंसीधर को लखनऊ में रहने वाले कश्मीरी प्रवासी रैना पंडित से मिलवाता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके पास उत्तर भारत में पुस्तकों का सबसे अच्छा संग्रह है, लेकिन शहर में अंग्रेजों के आने के बाद से उसने उनकी परवाह करना बंद कर दिया है.

जब बंसीधर पंडित की लाइब्रेरी में प्रवेश करता है, वह खुद को फर्श से छत तक अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, कश्मीरी और बांग्ला में ढेर सारी किताबों से घिरा हुआ पाता है. बंसीधर पंडित को धोखा देकर उससे ‘कामसूत्र,’ ‘भगवद-गीता’ और ‘महाभारत’ आदि की कुछ सचित्र प्रतियां सस्ते दामों पर ख़रीद लेता  है. पंडित रैना की लाइब्रेरी की किताबें जल्द ही लखनऊ में लेडी मैल्कम और फिर कलकत्ता में मिस्टर पिनकॉट की अलमारियों से होते हुए लंदन पहुंच जाती हैं.

लॉर्ड विलियम बैबिंगटन मैकाले के 1835 के कुख्यात भाषण, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक शेल्फ भारत और अरब के पूरे साहित्य’ के बराबर नहीं हो सकती, ‘करवट’ के मुख्य पात्र के जीवन में और लखनऊ से कलकत्ता की सरज़मीं पर अपना असर दिखाना शुरू करती है. बंसीधर लखनऊ में अपना सामूहिक परिवार छोड़कर कलकत्ता चला जाता है. इस घटनाक्रम के बाद बंसीधर की ही नहीं, एक पूरे साम्राज्य, एक समूचे उपमहाद्वीप की अंग्रेज़ी में औपनिवेशिक शिक्षा का शुभारंभ हो जाता है, जिसका ठोस असर हमें आज भी न सिर्फ़ भारत की, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के आधीन रहे सभी उत्तर-औपनिवेशक राष्ट्रों में देखने को मिलता है.

कलकत्ता में अंग्रेज़ी सीखने के बाद, अंग्रेज़ी से मैट्रिक करने के बाद बंसीधर लखनऊ लौटकर एक अंग्रेज़ी स्कूल का हेड मास्टर बनता है, और उपन्यास के अंत में इंस्पेक्टर ऑफ एजुकेशन के पद से सेवानिवृत्त होता है. फ़ारसी की साहबियत को अंग्रेज़ी की साहबियत बड़े आराम से बदल देती है.

पर साहबियत की करवट इस उपन्यास का सिर्फ़ एक आयाम है. हुक़ूमतें बदल रही हैं, और उनके साथ आदतें भी, ख़ासकर हिंदू समाज की जातिगत रूढ़ियां और प्रथाएं.

भारतीय साहित्य में सवर्ण समाज की कुरीतियों और उनके दलित/बहुजन समाज पर किए अत्याचारों पर कई सशक्त उपन्यास लिखे गए हैं: कन्नड़ में यूआर अनंतमूर्ति का ‘संस्कार,’ पंजाबी में गुरदयाल सिंह का ‘मढ़ी दा दीवा,’ मलयालम में कवियूर मुरली का ‘ऊरालीकुट्टी’ आदि. पर ‘करवट’ एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें लखनऊ से लेकर कलकत्ता तक के खत्री समाज की अपनी रूढ़ियों और अंधविश्वासों के साथ साथ उनकी आर्थिक उपलब्धियों, और बिरादरी से डरी-सहमी करवटों का भी खुल कर विवरण किया गया है.

अंग्रेज़ी यहां भी एक अहम भूमिका निभाती है, क्योंकि उसे उन्नीसवीं सदी में, ख़ासकर 1857 के ग़दर के बाद या तो दुश्मनों की भाषा समझा जाता है, या धर्म भ्रष्ट करने वाले ‘किरिस्तानों’ की. हिंदू सवर्ण समाज की सनातन धर्म के नाम पर चल रही कुरीतियों: जैसे बाल विवाह, बहु-पत्नी प्रथा, सती, विधवा प्रतारण, स्त्री-अशिक्षा, जैसी कुरीतियों पर भी नागर ने बंसीधर के द्वारा गहरा कटाक्ष किया है.

ढकोसलों और सड़ी-गली परंपराओं को ताक पर रखकर बंसीधर ही नहीं, उसकी जीवनसंगिनी चमेली/चम्पकलता दोनों ही एक अविस्मरणीय कदम उठाते हैं, जिसकी शुरुआत होती है पारिवारिक और सामाजिक जीवन में घूंघट प्रथा को त्याग कर. एक महिला का सशक्त कदम अन्य कई महिलाओं को प्रेरित करता है, और कई सामाजिक करवटें, कई ग़दर शुरू हो जाते हैं.

लखनऊ, कलकत्ता, और उपन्यास के उत्तरार्ध में लाहौर उपन्यास के किरदार बनकर सामने आते हैं. जानेआलम की कलकत्ता में जिलावतनी होने के मौक़े पर जिस शिद्दत के साथ नागर लखनऊ के सभी हिंदू और मुसलमानों का दर्द और उनकी हताशा का बयान करते हैं, उसी प्रगाढ़ता के साथ वे कलकत्ता वासियों का रामकृष्ण परमहंस के प्रति आदर और सत्कार का विवेचन करते हैं, और उसी शाब्दिक महारत से कलकत्ता में ब्राह्म समाज के प्रति, या लाहौर और लखनऊ में आर्य समाज के प्रति कट्टर हिंदुओं की भर्त्सना को व्यक्त करते हैं.

ये उपन्यास जहां उपनिवेशवाद की प्रगति को दिखाता है, वहीं अंग्रेज़ों के अत्याचार और उनके रंगभेद की भी खुली चर्चा करता है. बंसीधर एक तरफ़ बाबाओं और भस्म और चरण-धूलि में फंसी हिंदू जनता को नकारता है, तो दूसरी तरफ़ अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए एक नए भूरे साहबों के वही पुराने रुतबे का ज़ोर और उनकी अधपकी अस्मिता, जो न भारतीय है, न ही अंग्रेज़, उसका भी तिरस्कार करता है. और इस पूरे परिदृश्य में उन्नीसवीं सदी के सारे महत्वपूर्ण भारतीय उपन्यास के पात्रों की तरह प्रस्तुत रहते हैं, जिनमें वाजिद अली शाह से लेकर लॉर्ड रिपन, राजा राममोहन राय के ब्राह्म समाज से लेकर महर्षि दयानंद का आर्य समाज आंदोलन, और ईश्वरचंद्र विद्यासागर से लेकर सर सैयद अहमद खान तक शामिल हैं.

उपन्यास के अंत में बंबई में ऐलन ओक्टेवियन ह्यूम, उमेशचंद्र बनर्जी और दादाभाई नौरोजी के साथ बंसीधर भी एक नवनिर्मित कांग्रेस पार्टी के पहले अधिवेशन में शामिल हो जाता है.

विश्व साहित्य की महान कृतियों में नागर के उपन्यासों का, और ख़ासकर ‘करवट’ का एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. इतिहास या तारीख़ यहां पृष्ठभूमि नहीं, अग्रभूमि निर्मित करती है. हिंदी भाषा के लेखक होने के नाते ‘करवट’ के पन्नों पर नागर ने अंग्रेज़ी भाषा और शिक्षा का जो ज़बरदस्त इतिहास लिखा है, मेरी दृष्टि में ऐसी उपलब्धि अन्यत्र मुश्किल से मिलेगी. लेकिन भाषा से कहीं आगे, ‘करवट’ में नागर हमें सामूहिक सामंतशाही, साम्राज्यवादी, या राष्ट्रीय इतिहास के साथ व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन की करवटों की कहानी सुनाते हैं.

यों तो विश्व के किसी भी साम्राज्य या देश पर अनगिनत ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए हैं. पर विश्व साहित्य में मेरी दृष्टि में तीन नोबेल पुरस्कार साहित्यकारों की कृतियां ‘करवट’ के समकक्ष हैं: जर्मन साहित्य में टामस मान कृत बुदेनब्रुक्स (1901), तुर्की में ओरहान पामुक का सेव्देत बे एंड हिज संस (1982), अंग्रेज़ी में टोनी मोरिसन कृत बिलव्ड (1987) और अब्दुलरज़्ज़ाक गुरनाह का आफ्टरलाइव्स (2020).

इन सभी उपन्यासों के पात्र व उनके परिवार और समाज अप्रत्याशित युगांतर का हिस्सा बनते हैं, जब सियासी तारीख़ एक ख़ास मुक़ाम से गुज़र रही हो, जिसकी चपेट से खुद को कोई नहीं बचा सकता, जिसका असर हर शख़्स और शय पर होगा.

इन कृतियों को ‘टाइमलेस’ कहा जाता हैं, पर मेरे जैसे पाठक के लिए ये उपन्यासकार काल की रिक्तता को अपने शब्दों से भरते हैं, उन्हें आने वाले कालचक्रों के लिए सहेज कर जाते हैं. मैं इन्हें कालजयी मानता हूं. नागर हिंदी ही नहीं, बल्कि भारतीय और राजनीतिक सीमाओं के परे विश्व-साहित्यिक पटल पर एक कालजयी लेखक हैं.

जैसे वो ‘करवट’ की प्रस्तावना में खुद लिखते हैं, ‘समय का परिवर्त्तन इतिहास की पूंजी है’. उस परिवर्त्तन की पूंजी को वो अपनी साहित्यिक वसीयत में हम सब के लिए छोड़ गए हैं. उनकी 108वीं जयंती पर उस विरासत के लिए आभार. 

(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन-मैडिसन में जर्मन और विश्वसाहित्य के प्रोफेसर हैं और हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट फॉर वर्ल्ड लिटरेचर में भी पढ़ाते हैं.)