गांधी शांति फाउंडेशन और कुछ अन्य संस्थानों ने मिलकर हाल ही एक विमर्श आयोजित किया जिसमें इस पर विचार किया गया कि लोकसभा चुनाव के बाद स्थिति में जो परिवर्तन आया है, उसके बाद सिविल समाज, सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध संगठनों और सजग-सक्रिय नागरिकों की आगे क्या भूमिका हो, क्या दिशा हो, क्या सामूहिक और व्यक्तिगत प्रयत्न हों. विमर्श व्यापक और बहुकोणीय था और उसमें देश के कई अंचलों से आए बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं, संगठनकर्ताओं आदि ने भाग लिया. पूरे समय मैं नहीं रह पाया लेकिन जितना मैंने सुना उससे यह प्रभाव स्पष्ट पड़ा कि पहले जैसी निरुपायता, निराशा और विकल्पहीनता की व्याप्ति थी वैसी अब नहीं रही है. परिवर्तन होना शुरू हुआ है. पहले जैसे निराशा के कर्तव्य थे, उनकी जगह आशा के कर्तव्य ले रहे हैं.
सामाजिक और लोकतांत्रिक, सत्यनिष्ठ और अहिंसक परिवर्तन की संभावना के लिए जो अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रयत्न होना है उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है. यह बात नज़रअंदाज़ नहीं की गई कि जिन शक्तियों ने हिंसा-हत्या-घृणा-असत्य, भेदभाव और अन्याय की राजनीति सफलतापूर्वक चलाई है उन शक्तियों का प्रभाव थोड़ा कम भले हुआ है पर उनके साधन न तो घटे हैं, न ही उनकी तिकड़मबाज़ी कम हुई है. समाज, शिक्षा, धर्म, मीडिया आदि में जो ज़हर फैल गया है वह रातोंरात ग़ायब नहीं हो जाएगा, न हो रहा है.
हमारे समय का एक दुखद अंतर्विरोध यह है कि उसमें ये शक्तियां अब भी हावी और सक्रिय हैं, उन्हें समर्थन देने वाला पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग झांसों-वायदों की गिरफ़्त में है जबकि इन शक्तियों को प्रतिरोध देने वाली शक्तियों का प्रभाव भी बढ़ा और बढ़ रहा है.
यह बात भी सामने सशक्त रूप से आई कि परिवर्तन की शाश्वत आकांक्षा और उसकी नैतिक शक्ति का आज सबसे बड़ा प्रेरक गांधी हैं और गांधी-नेहरू-आंबेडकर की साझा विरासत हमारा सबसे बड़ा संबल हो सकती है. हमें सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा आदि धारणाओं और उपकरणों का, परिवर्तित स्थिति के अनुरूप, पुनराविष्कार, परिवर्द्धन और संशोधन कर सकना चाहिए. यह सब कोई केंद्रीकृत आंदोलन का रूप नहीं ले सकता: पर स्थानीय स्तर पर इसकी प्रभावशाली सक्रियता और सहकार हो सकता है.
हमने अब तक जो ग़लतियां, उदाहरण के लिए धर्मनिरपेक्षता, वाम-दक्षिण अटल द्वैत आदि के नाम पर की हैं उन पर पुनर्विचार कर उनमें ज़रूरी बदलाव कर सकना चाहिए. यह बात भी उठी कि हमें वैकल्पिक राज व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, अर्थव्यवस्था आदि का सुचिंतित प्रारूप समाज के सामने रखना चाहिए.
इस पर भी ज़ोर दिया गया कि हमारे संविधान में जो समतावादी-न्यायसम्मत प्रावधान हैं, उसमें जिस तरह समावेशिता के साथ स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता पर आग्रह, उन्हें सजीव कर सामाजिक संप्रेषण और संवाद में लाने की ज़रूरत है.
एक दिलचस्प सुझाव यह भी था हमें अपनी विरासत गांधी तक महदूद न रखकर समूचे स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय मूल्यों को अपनी विरासत में सजग और आत्मालोचक ढंग से शामिल करना चाहिए.
अलग-अलग धाराओं से आए लोगों के बीच यह सहमति बनी कि जनमत बनाने और उसे मुखर करने का सम्मिलित प्रयास किया जाएगा. कोशिश राजनीतिक जागरण और सामाजिक लेन-देन विकसित करने की होगी. यह भी कोशिश होगी कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सभी तरह के सवालों पर सुचिंतित बयान जारी होते रहें.
मुक्त महेश
महेश एलकुंचवार की कीर्ति और प्रतिष्ठा देश के एक श्रेष्ठ नाटककार के रूप में है: वे मराठी में लिखते हैं पर उनके नाटक कई भारतीय भाषाओं में बड़े निर्देशकों ने खेले हैं. उनके चार निबंधों का एक संग्रह ‘चतुर्बंध’ शीर्षक से हिंदी अनुवाद में कापर क्वाइन ने हाल ही में प्रकाशित किया है. इन निबंधों में ‘भाषा में भटकने का सुख’ है. मुक्त चिंतन, मुलाक़ातें-बातें, घटनाएं, प्रसंग आदि सब शामिल हैं. वे प्रवाह की तरह हैं जिसमें कई धाराएं, यादें, विचार, उक्तियां मुक्त भाव से आते रहते हैं और आप उनमें आसानी से बहते चलते हैं.
महेश किसी दिशा या वैचारिक रुझान में आपको बांधना नहीं चाहते. ये निबंध लगातार बतकही करते हैं और आप पढ़ने भर के उद्यम से उसमें शामिल हो जाते हैं.
दो प्रसंगों पर ध्यान गया. एक है जब उन्होंने कथक गुरु और कलाकार विदुषी रोहिणी भाटे से पूछा: ‘… लगभग सत्तर साल से आप कथक की राह पर चल रही हैं. क्या आपको लगता है कि आप मुक़ाम पर पहुंच गई हैं? इस पर वे अत्यंत सहज घरेलू आवाज़ में बोलीं, ‘नहीं जी मुझे कहीं जाना ही नहीं था.’ आइ वाज़ स्टंड फ़ॉर अ मोमेंट. सोचा था, वो अथक यात्रा, अथक साधना, कला का मर्म वगैरह कुछ कहेंगी… फिर मुझे गुमसुम देखकर काफ़ी देर बाद बोलीं, मैं बहुत नाची. ताल-मात्राओं से बहुत प्यार किया, उसकी चौखट में दिखती रही. लेकिन एक दिन रियाज़ करते समय अजीब बात हो गई. नाचते-नाचते अचानक ताल-मात्राओं के बंधन झर गए. बाद में तो मुझे ताल-मात्राओं का सुनाई देना भी बंद हो गया. मैं अपनी मौन लय में ही मंथर-मंथर घूमती हुई इर्दगिर्द की विराट् शांति में घुलती रही. जब मेरा नाचना थम गया, तब लगा कि समझ आ गया है मुझे. अब तो नृत्य की भी ज़रूरत नहीं लगती मुझे.’
महेश आगे कहते हैं पोलिश रंगकर्मी ग्रोटावस्की के हवाले से: ‘व्रावला शहर में जब ग्रोटावस्की से मुलाक़ात की, वे भी बिल्कुल यही बोले. मुझे नाटक करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती अब. मुझे जो चाहिए था, लगता है, समझ गया हूं.’
महेश जोड़ते हैं कि ‘व्रतस्थ कला उस व्योमातीत की ओर ले जाती है हमें. वह स्वयं भी वहां विसर्जित हो जाती है और फिर आप भी. ऐसा ही होगा’.
अन्यत्र महेश को एक क़िस्सा याद आता है: ‘मेरी एक सहेली गायिका है और फेमिनिस्ट भी. एक बार अत्यंत दंभ से मुझसे बोली, मैं ‘सास ननदिया ताने मारे’ ऐसा कुछ नहीं गाती….तभी एक भव्य राग मासूम आवाज़ में मुझसे बोला कि शब्द किसलिए चाहिए गाते समय? जब हम गाते हैं तब शब्द कहां होते हैं? यानी षड्ज, ऋषभ, गंधार, पंचम, घैवत, निषाद वगैरह का जेंडर क्या है? मैंने कहा, हिम्मत हो तो उसी से पूछो? रंग का जेंडर क्या है? सुरों का जेंडर क्या है?’
अमिताव कला
अमिताव दास से ख़ासा पुराना परिचय है. भारत भवन के दिनों से, जहां वे अक्सर आते रहते थे. जगदीश स्वामीनाथन उनके प्रशंसक थे: अपने से युवतर पीढ़ी के उन्हें एक महत्वपूर्ण चित्रप्रवण कलाकार मानते थे. दिल्ली में उनकी कई प्रदर्शनियां देखने का अवसर मिला और उनसे अक्सर गपशप होती रही है.
उन्होंने रज़ा फाउंडेशन के लिए युवा चित्रकारों की एक प्रदर्शनी का चयन भी किया. फिर भी, उनके लगभग ढाई सौ चित्रों की जो प्रदर्शनी किरण नादर संग्रहालय में लगी है उसने मुझे चकित किया. उनका रेंज बहुत व्यापक और जटिल है. वे जिस कलासामग्री का उपयोग अपने चित्रों में करते हैं वह अप्रत्याशित और विपुल है. उनका बारीकी पर असाधारण अधिकार है. यह भी अचरज की बात है कि उनका हमारे समय के महत्वपूर्ण अमूर्तन के प्रयोक्ताओं में अक्सर नाम क्यों नहीं आता.
यह भी एक असामान्य बात है कि इतने व्यापक रेंज और चित्रों की विपुल संख्या के बावजूद अमिताव अपनी कला में अल्पभाषी हैं: वे अपने कहने का बोझ अपने चित्रों पर नहीं लादते. वे दर्शक को स्वतंत्र छोड़ते हैं कि वह स्वयं अर्थरचना करे.
एक ऐसे समय में जब आग्रह और किसी हद तक वर्चस्व जगहों और लोगों पर था, आख्यान और बखान पर था, अमिताव ने कला को जगह माना और बनाया बजाय किसी जगह का प्रतिबिंब बनाने के. उनका आग्रह कहने पर नहीं चित्र में अंतगुर्म्फित संभावना को प्रगट करने में है. कुछ इस अंदाज़ से कि ‘बात बोलेगी, हम नहीं’.
हर कलाकार की तरह अमिताव के पास कहने को बहुत होगा पर वे अचूक संयम से बहुत कम कहते हैं और जो काफ़ी अनकहा रह जाता है उसकी अंतर्ध्वनियां उनके चित्रों में देखी-सुनी जा सकती हैं. उनका यह विश्वास भी मार्मिक है कि बहुत सारे टूटे-बिखरे में, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में प्रायः अलक्षित जानेवाली चीज़ों में भी मर्म और अर्थ होता है जिसे कला, बिना नाटकीय हुए, सहज भाव से देख-दिखा सकती है.
कला सिर्फ़ दृष्टि का समावेश नहीं, सामग्री का समावेश भी होती है. ललित-कोमल-भंगुर सौंदर्य से लेकर कठिन-बीहड-विमित्र सौंदर्य सभी अमिताव कला में प्रगट होते हैं. वे आकृतियों के नहीं, आकार के चित्रकार हैं.
यह प्रदर्शनी कलावेती और संग्राहक रूबीना करोड़े की अद्भुत कलप्नाशीलता और गहरी समझ का एक और प्रमाण और प्रतिफल है. प्रदर्शनी में, जो दस से अधिक कक्षों में नियोजित है, चित्रों के चयन, उनके समूहों का बहुत संवेदनशील प्रकाश-व्यवस्था में नियोजन आदि ने प्रदर्शनी को सुंदर, सार्थक और विस्मयकारी बना दिया है. किसी भी संवेदनशील दर्शक को लगेगा कि वह एक बड़े कलाकार और उसके काम को उसकी सघन-उत्कट व्यापकता में देख और सराह पा रहा है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)