कितने तालिबान, कितना बदला अफ़ग़ानिस्तान

14 अगस्त, 2024 को तालिबान के सशस्त्र बलों ने सत्ता में आने की तीसरी वर्षगांठ का जश्न काबुल के नजदीक बगराम स्थित हवाई अड्डे पर मनाया, एक भव्य सैन्य परेड का आयोजन हुआ, जिसमें चीन और ईरान के राजनयिक भी शामिल थे.

काबुल पर नियंत्रण के बाद तालिबानी लड़ाके (flickr.com/photos/191009661@N02/52322065282/)

नई दिल्ली: 14 अगस्त, 2024 को तालिबान के सशस्त्र बलों ने सत्ता में आने की तीसरी वर्षगांठ का जश्न काबुल के नजदीक बगराम स्थित हवाई अड्डे पर मनाया था. एक भव्य सैन्य परेड का आयोजन हुआ, जिसमें सोवियत युग के टैंक और तोप भी देखने को मिले. सैकड़ों की संख्या में लोग एकत्र हुए थे, जिसमें चीन और ईरान के राजनयिक भी शामिल थे. परेड स्थल का चुनाव आकस्मिक नहीं था. यह एयरबेस दो दशकों तक तालिबान के खिलाफ अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य अभियान का मुख्य आधार रहा था.

आज उसी एयरबेस पर तालिबान अपनी पताका लहराकर याद दिला रहा था कि किस तरह तीन साल पहले, 15 अगस्त, 2021 को उसने एक झटके से काबुल को अपने नियंत्रण में ले लिया था.

अमेरिका समर्थित सरकार गिर गई थी और उसके नेता भाग गए थे. नाटो सेनाओं को लगभग भागते हुए अफगानिस्तान खाली करना पड़ा था और खुद अमेरिकियों को साइगॉन (अब हो ची मिन्ह सिटी, वियतनाम) की तरह अपने दूतावास की छत से हेलीकॉप्टर में उड़ना पड़ा था.

14 अगस्त को इसी जीत का जश्न मनाया गया. दरअसल, अफगान कैलेंडर के मुताबिक, वर्षगांठ एक दिन पहले मनाई जाती है. यह तालिबान की दूसरी सरकार का तीसरा वर्ष है. तालिबान 1996 से 2001 के बीच भी अफगानिस्तान की कमान संभाल चुका है.

तालिबान क्या है?

तालिबान को समझने से पहले उस अफगानिस्तान को समझने की जरूरत होगी, जिसकी स्थापना 1747 में अहमद शाह दुर्रानी ने की थी. कहा जाता है कि दुर्रानी अफगानिस्तान में मुहम्मद साहब का पवित्र लबादा लेकर आए थे, जिसे अफगानिस्तान के आधुनिक इतिहास में केवल एक व्यक्ति ने पहनने की हिम्मत की थी.

 1830 में मध्य एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इंग्लैंड और रूस के बीच अफगानिस्तान में टकराव हुआ. 1838 से 1919 बीच तीन एंग्लो-अफगान युद्ध लड़े गए. भारत पर शासन कर रहे अंग्रेज अफगानिस्तान पर कब्जा करना चाहते थे लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और अगस्त 1919 में अफगानिस्तान की स्वतंत्रता को मान्यता देते हुए एक शांति संधि पर हस्ताक्षर करना पड़ा.

1926 में गाजी अमानुल्लाह खान ने खुद को अफगानिस्तान का राजा घोषित किया. 1933 में ज़ाहिर शाह अगले राजा बने और अगले 40 वर्षों तक अफगानिस्तान पर शासन किया. 1973 में ज़ाहिर शाह के चचेरे भाई मोहम्मद दाऊद खान ने सोवियत संघ की मदद से तख्तापलट किया. इस तरह अफगानिस्तान में राजशाही का अंत हुआ और गणराज्य की स्थापना हुई.

1978 में अफगान कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक नूर मुहम्मद तराकी ने खान की हत्या कर दी और खुद राष्ट्रपति बन गए. इसके बाद अफगानिस्तान में गृहयुद्ध छिड़ गया और मुजाहिदीन नामक एक गुरिल्ला आंदोलन का शुरू हुआ, जिसे अमेरिका का समर्थन हासिल था. इसका उद्देश्य सोवियत शासन से लड़ना था.

1984 में सऊदी नागरिक ओसामा बिन लादेन सोवियत-विरोधी लड़ाकों की सहायता के लिए अफगानिस्तान पहुंचता है. उसने सोवियत के खिलाफ जिहाद की घोषणा करते हुए साल 1988 में अल-कायदा का गठन किया. 1989 में सोवियत संघ अफगानिस्तान से लौट गया और अमेरिका, सोवियत संघ और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान को स्वतंत्रता देने के लिए जिनेवा में शांति संधि पर हस्ताक्षर किए.

हालांकि, गृह युद्ध जारी रहा क्योंकि मुजाहिदीन काबुल में अभी भी सोवियत-समर्थित शासन से लड़ रहे थे.

ठीक इसी वक्त उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उदय हो रहा था. तालिबान पश्तो का शब्द है, जिसका अर्थ होता है- विद्यार्थी. 1990 के दशक की शुरुआत में उभरा तालिबान, शुरुआत में मुख्य रूप से पश्तून आंदोलन था. सऊदी अरब की आर्थिक मदद से यह धार्मिक मदरसों में फलफूल रहा था. सुन्नी इस्लाम के कट्टरपंथी संस्करण का प्रचार करते हुए, तालिबान ने अफगानिस्तान पर नियंत्रण के लिए आधे दशक तक लड़ाई लड़ी. इनका वादा था कि ये इस्लामी कानून के अनुसार शासन करके देश में स्थिरता बहाल करेंगे.

1998 तक तालिबान ने अफगानिस्तान के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से पर नियंत्रण कर लिया था. सोवियत के जाने के बाद मुजाहिदीन के बीच की अंदरूनी लड़ाई से आम अफगान थक चुके थे, और तालिबान की तरफ उम्मीद की नजर से देखने लगे थे. उन्हें भ्रष्टाचार, अराजकता और संघर्ष के खिलाफ एक ताकत के रूप में देखा गया.

द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक किंवदंती का जिक्र मिलता है, जिसके मुताबिक साल 1996 में तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर ने किर्का शरीफ दरगाह में रखी मुहम्मद साहब के लबादे को पहन लिया था, इस दृश्य को देखने वाले कई लोग बेहोश गए. इस पल से उमर जिहाद के निर्विवाद नेता बन गए. 

1997 में तालिबान ने कम्युनिस्ट राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह की हत्या कर दी. गौरतलब है कि वे उस वक्त काबुल में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के परिसर में थे, यानी अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक उन पर हमला नहीं किया जा सकता था.

इसके बाद अफगानिस्तान पूरी तरह तालिबान के नियंत्रण में चला गया, जिसे काफी हद तक जनता का समर्थन भी हासिल था. मुल्ला उमर ने साल 2000 में किसानों से अफीम की खेती न करने का आह्वान किया. किसानों ने खेती बंद कर दी और एक साल में ही अफीम उत्पादन में 90 प्रतिशत की गिरावट आ गई.

हालांकि, शरिया कानून, कठोर सामाजिक नीतियों और न्याय करने के उनके तरीकों से लोगों का मोहभंग भी शुरू हुआ. तालिबान के पहले कार्यकाल में महिलाओं को अकेले घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी, वहीं पुरुषों को एक निश्चित लंबाई की दाढ़ी रखने के लिए मजबूर किया गया था. संगीत, नृत्य और टेलीविजन को प्रतिबंधित कर दिया गया था. तालिबान के नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड सार्वजनिक और कठोर थे. व्यभिचारियों को उनके परिवारों के सामने बेरहमी से पीटा जाता था, चोरों के हाथ काट दिए जाते थे. 

कैसे हुआ तालिबान-1 का अंत?

11 सितंबर, 2001 को आतंकवादियों ने न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला किया. अमेरिका ने हमलों के लिए अफगानिस्तान में छिपे ओसामा बिन लादेन को दोषी ठहराया. अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अफगानिस्तान के सामने लादेन को सौंपने की मांग रखी.

कई विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि 9/11 से पहले तालिबान कभी भी अलकायदा के साथ मज़बूती से नहीं जुड़ा था. हमलों के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने तालिबान को अल्टीमेटम दिया कि अलकायदा और ओसामा बिन लादेन को सौंप दो या परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहो.

मुल्ला उमर ने अमेरिकी राष्ट्रपति की इस धमकी का विरोध किया. पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई ने जब उनसे इसका कारण पूछा तो उनका जवाब था, ‘मैं इतिहास में ऐसे व्यक्ति के रूप में नहीं जाना चाहता जिसने अपने मेहमान को धोखा दिया. मैं अपनी जान, अपना शासन देने को तैयार हूं. चूंकि हमने उसे शरण दी है, इसलिए मैं उसे अब बाहर नहीं निकाल सकता.’ 

बाहरी दुनिया के लिए यह पागलपन हो सकता है लेकिन यही तालिबान की पहचान है. उमर के इनकार के बाद अमेरिका और सहयोगी सैनिकों ने अफगानिस्तान में हवाई हमले शुरू किए और दिसंबर 2001 में तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया गया. तालिबानी कंधार को छोड़कर भाग गया. अमेरिका ने एक अंतरिम अफगान सरकार की स्थापना की. हामिद करज़ई राष्ट्रपति बनाए गए और अफगानिस्तान कागजों पर लोकतांत्रिक देश बन गया.

तालिबान-2 कितना अलग है?

नया तालिबान 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन करने वाले तालिबान से थोड़ा कम कट्टर है. 2021 में अपने आगमन से ही तालिबान ने घोषणा की थी कि जो लोग उसके खिलाफ लड़ रहे थे, वह उनसे बदला नहीं लेगा. उसने काबुल के हर दूतावास और विदेशी नागरिक को सुरक्षा का वादा किया था.

काबुल को अपने नियंत्रण में लेने के बाद तालिबान ने अमेरिकी या नाटो सैनिकों पर हमला नहीं किया था. कई विश्लेषकों का मानना है कि तालिबान पिछली गलतियों से सीख रहा है, हालांकि इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह अपने मूल सिद्धांत से कोई समझौता करेगा.

द वायर हिंदी से बात करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर संजय के. भारद्वाज ने कहा, ‘अपनी पिछली सरकार में ये बहुत सक्रिय थे. तब इनके पड़ोसी इनसे डरे हुए थे. लेकिन इस बार वैसी स्थिति नहीं है. वर्तमान सरकार से पड़ोसियों में कोई भय नहीं है. पिछली सरकार का पाकिस्तान से बहुत अच्छा संबंध था. लेकिन बार के तालिबान और पाकिस्तान में लगातार तनाव देखने को मिल रहा है. इसके अलावा इस बार अंदरूनी खींचतान भी है, जो पिछली सरकार में नहीं थी.’

प्रोफेसर भारद्वाज आगे कहते हैं, ‘अपनी खराब आर्थिक हालात की वजह से हो सकता है कि वह दूसरों के लिए कोई मुश्किल न खड़ी करें. लेकिन वे अपनी मूल इस्लामिक और रूढ़िवादी रवैये में कोई बदलाव लाएंगे, ऐसा मुझे नहीं लगता.’

तालिबान शासन में कितना बदला अफगानिस्तान

वैश्विक आतंकवाद सूचकांक-2024 के अनुसार, 2023 में अफगानिस्तान में आतंकवाद से होने वाली मौतों में भारी कमी देखी गई. साल 2022 में अफगानिस्तान में आतंकवाद से 638 लोगों की जान गई थी, जबकि 2023 में यह आंकड़ा 119 था यानी मौत के आंकड़े में 81 प्रतिशत की गिरावट आई है. 

2019 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है, जब आंतकवाद से सबसे अधिक प्रभावित देशों की सूची में अफगानिस्तान नंबर एक पर नहीं रहा. वैश्विक आतंकवाद सूचकांक की शुरुआत 13 साल पहले हुई थी. तब से नंबर एक और दो अफगानिस्तान और ईराक ही रहते थे. 2024 में इस सूचकांक के इतिहास में पहली बार अफगानिस्तान छठे नंबर पर है. 

अफगानिस्तान में तालिबान के आने के बाद यह आशंका व्यक्त की गई थी हिंसा और असुरक्षा बढ़ेगी. हालांकि, हिंसा घटी है. समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने एक रिपोर्ट में बताया है कि ‘पहले की तुलना में सुरक्षा व्यवस्था में सुधार हुआ है.’

काबुल में ड्राई फ्रूट की दुकान चलाने वाले हुसैन ने शिन्हुआ को बताया, ‘हमारी दुकान रात 12 बजे तक खुली रहती है और कोई हमें परेशान नहीं करता.’ राजधानी की सड़क पर सब्जी बेचने वाले मोहम्मदजान का कहना है, ‘सड़कों पर भिखारियों और चोरों की संख्या में भी धीरे-धीरे कमी आई है.’

लेकिन अफगान लोगों को गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. विश्व बैंक द्वारा अप्रैल में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो वर्षों में अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आई है, वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 26 प्रतिशत की भारी कमी आई है.

अफगानिस्तान की आर्थिक मंदी के लिए एक तरह से अमेरिका भी जिम्मेदार है. दरअसल, सैन्य वापसी के बाद वाशिंगटन ने नए अफगान प्रशासन पर प्रतिबंध लगा दिए हैं, जिससे अफगानिस्तान के केंद्रीय बैंक की अरबों अमेरिकी डॉलर की संपत्तियां फ्रीज हो गई हैं और देश आर्थिक संकट में फंस गया है. इसके अलावा प्रतिबंधों के कारण विदेशी पूंजी का अफगानिस्तान में प्रवेश कठिन हो गया है.

देश की कमाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अफीम की खेती से आता था. लेकिन सत्ता में आने के तुरंत बाद तालिबान ने अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए अफीम की खेती पर रोक लगा दी. अप्रैल 2022 में तालिबान ने अफीम पोस्त की खेती पर प्रतिबंध लगाने वाले सख्त नए कानून पेश किए.

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रतिबंध के बाद सात महीनों में पोस्ता की खेती और अफीम उत्पादन में 90 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई, जिससे हजारों किसानों और मजदूरों का प्रमुख व्यापार खत्म हो गया.

दुनिया में अफीम का सबसे बड़ा उत्पादक होने के नाते अफगानिस्तान लंबे समय से अवैध नशीली दवाओं के व्यापार से जूझ रहा है. देश में बड़ी मात्रा में हेरोइन और मेथ का भी उत्पादन होता है. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि देश में लगभग चार मिलियन लोग, यानी इसकी कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत, नशीली दवाओं का इस्तेमाल करता हैं. अब तालिबान अपने देश को नशे से मुक्ति दिलाने में जुटा हुआ है.

प्रोफेसर भारद्वाज हुए कहते हैं, ‘तालिबान अपने इस्लामिक एजेंडे के साथ सरकार चला रहे हैं. इसमें महिलाओं की आजादी, मानवाधिकार, पढ़ाई-लिखाई, आदि की बात नहीं है. वह आंतरिक रूप से खुद को जोड़ने में जुटे हुए हैं. लेकिन उनकी बाहरी गतिविधियां अभी देखने को नहीं मिल रही हैं. अमेरिकी प्रतिबंध आदि की वजह से वे आर्थिक अस्थिरता से जूझ रहे हैं. …कोई मदद के लिए आगे नहीं आ रहा है…”

बता दें कि तालिबान की वर्तमान सरकार को अभी तक किसी देश ने मान्यता नहीं दी है. हालांकि, भारत, चीन और ईरान समेत कई देशों ने राजनयिक संबंध बहाल कर रखे हैं. तालिबान की पिछली सरकार को पाकिस्तान समेत उसके चार पड़ोसी देशों ने मान्यता दी थी.