साल-दर-साल हम स्वतंत्रता की वर्षगांठें मनाते हैं. तिरंगे को फहरा-फहरा कर अपनी आज़ादी का पूरा यकीन कर लेते हैं. स्कूल से लेकर कारखानों तक, गली के नुक्कड़ से लेकर देश की संसद तक, सालों पहले पाई हुई स्वतंत्रता की याद में भाषण देते हैं, शहादतों को याद करते हैं. गरज कि स्वतंत्र देश के नागरिक होने की महत्ता को हर संभव तरीके से अभिव्यक्त करते हैं. पर क्या यह स्वतंत्रता सिर्फ़ ज़बानी है? क्या यह स्वतंत्रता सिर्फ़ काग़ज़ पर पाई गई है?
एक ऐसे तथाकथित ‘आधुनिक’ देश में जहां हर दिन तक़रीबन नब्बे स्त्रियां बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार होती हैं, वहां क्या स्वतंत्रता का जश्न मनाया जा सकता है? इस स्वतंत्रता ने स्त्रियों के लिए, इस देश की आधी आबादी के लिए क्या किया है?
ऊपर जिन आंकड़ों की बात की है वह तो सरकारी आंकड़े मात्र हैं. वास्तविकता तो इससे भी कहीं अधिक भयावह है. वह वास्तविकता जिसे बड़े शहरों से दूर होने के नाम पर, परिवार के मान-सम्मान के नाम पर, समाज के दबावों के नाम पर, कथित उच्च जातियों के आधिपत्य के नाम पर दर्ज़ भी नहीं किया जाता. कुछ-एक हिंसक घटनाओं की मीडिया और समाचार पत्रों द्वारा की जाने वाली कवरेज़ हमारा ध्यान स्थिति की भयावह गंभीरता से हटा देती है.
एनसीआरबी के आंकड़े ही यह बतलाते हैं कि अकेले साल 2022 में इक्कतीस हज़ार स्त्रियां यौन हिंसा का शिकार हुई हैं. पर इनमें से कितनी घटनाओं ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया का, राजनीति का, नागरिक समूहों का ध्यान अपनी ओर खींचा है? और जो एक-आध घटनाएं जिनकी हिंसा दिल ही नहीं मानवता को भी दहलाने के लिए काफ़ी होती हैं उन्हें मीडिया में बस तब तक याद किया जाता है जब तक उन्हें कोई ज़्यादा चटपटा मुद्दा नहीं मिल जाता.
लोगों की स्मृतियां भी मानो खबरों के द्वारा ही निर्देशित हैं. हमारा सारा ध्यान, सारी तवज्जो, सारा ग़ुस्सा, सारा शॉक भी तभी तक है जब तक कि वह घटना खबरों में रहती है. और जब तक फिर से कोई एक बड़ा हादसा जिस पर राष्ट्रीय मीडिया की नज़र नहीं पड़ जाती, तब तक हमारी सारी संवेदनाएं कहीं सोयी पड़ी रहती हैं.
अभी देश भर में कलकत्ता के आरजी कर मेडिकल हॉस्पिटल में एक ट्रेनी डॉक्टर के नृशंस बलात्कार और हत्या को लेकर तीव्र आक्रोश है. इस घटना को अंजाम देने की भयावहता ने सभ्य समाजों की नींदें उड़ा दी हैं. हैवानियत की सभी हदें तोड़ देने वाली इस घटना को लेकर सब एकजुट-एकमत हैं. देश भर में अस्पतालों में सेवाएं ठप हैं. न केवल डॉक्टर्स बल्कि अलग-अलग नागरिक समूहों ने देश भर में अपने विरोध प्रदर्शन किए हैं, प्रोटेस्ट मार्च निकाले हैं, विश्वविद्यालयों में रात को कैंडल लाइट विज़िल्स हुए हैं. घटना से विरोध जताने और स्थितियों पर शोक प्रकट करने की हर संभव कोशिशें हुई हैं. पर क्या यह कर देना काफ़ी है? हर बार अपना विरोध जतला देना काफ़ी है?
सत्ता से अपनी सुरक्षा मांगती स्त्रियां अपना मौलिक अधिकार पाना चाहती हैं ताकि वह भी बेख़ौफ़ जी सके. पर सत्तहत्तर साल की आज़ादी भी क्या वह देश गढ़ पाने में असफल हो गई, जहां स्त्रियों को अपने लिए सुरक्षा और आज़ादी, सत्ता से-सरकार से, समाज से मांगने की ज़रूरत है?
अपराध प्रायः सभी समाज में होते हैं. विशेषकर हमारे दक्षिण एशिया के पितृसत्तात्मक समाजों में तो स्त्रियों के प्रति हिंसा का अपना अलग इतिहास ही रहा है. कुछ दो सौ साल ही बीते हैं जब सती प्रथा के नाम पर स्त्रियों को ज़िंदा जला दिया जाना सामाजिक विधान था हमारे देश में. इसलिए आधुनिक समय में अपराधों ने भी अपने हुलिये बदल लिए हों तो कोई बड़े विस्मय की बात नहीं है. कभी दहेज के नाम पर, कभी परिवार के सम्मान के नाम पर और अधिकांश तो केवल स्त्री होने के नाम पर ही इस देश की स्त्रियों ने हिंसा को अपनी अस्मिता का एक स्याह हिस्सा मान कर अंतर्निहित (इंटर्नलाइज़) कर लिया है.
दर्द-पीड़ा-क्षोभ-शर्म-बेबसी-आक्रोश, यह सब स्त्रियों की एक पितृसत्तात्मक समाज में रोज़ाना महसूस की जाने वाली आम-सी संवेदनाएं हैं. हम बेटियों को बचाने और पढ़ाने की बात करते हैं इसलिए ताकि वह भी इस देश के निर्माण में, उसके विकास में एक अहम भूमिका निभा सकें. पर उस स्थिति का क्या, जहां वह यह सब कर लेने के बाद अपनी भूमिका निभाती हुई भी असुरक्षित है.
कलकत्ता में हुए हादसे में एक राह चलती हुई अनाम-अदृश स्त्री नहीं मारी गई है, बल्कि एक सरकारी अस्पताल के भीतर एक डॉक्टर के रूप में काम कर रही एक सशक्त स्त्री को अपनी मानवीय गरिमा और जान से हाथ धोना पड़ा है. कलकत्ते के इस नृशंस हादसे से पहले सालों पहले 1973 में मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में एक नर्स अरुणा शानबाग का अस्पताल के ही एक सफाई कर्मचारी ने ऐसा उत्पीड़न किया था कि 41 साल से भी अधिक समय तक वह एक कोमा में निष्क्रिय रहते-रहते अंततः 2015 में गुज़र गईं थीं. यह सब हमारे सारे लोकतांत्रिक दावों को, सामाजिक उत्थान के वादों को तार-तार कर के रख देने वाला है. हम बेटियों को बचा लेने, पढ़ा लेने के बाद भी समाज के घृणित हादसों से न बचा सकें तो यह स्वतंत्रता किस काम की?
एक ऐसी बंजर स्वतंत्रता जहां सिर्फ़ वह जी सकते हैं जो अपने शारीरिक-सामाजिक-आर्थिक रूप से श्रेष्ठ रह पाने के कारण विशेषाधिकार की स्थिति में हैं.
स्वतंत्र-विकसित देश में स्त्रियों का सुरक्षित न महसूस कर पाना तो हमारे लोकतंत्र और समाज की साझी असफलता है ही पर अपराध करने वाले अपराधी को समय से सज़ा न दे पाना उससे भी बड़े ख़ौफ़ और शर्म की बात है. राज्य और समाज सुरक्षा का आश्वासन न भी सही, पर अपराधियों को सज़ा दे कर अपना अपराध-बोध कुछ कम कर सकते हैं, पीड़ितों के दुख में साझेदार बन सकते हैं. पर यह सारे उपाय भी केवल बाहरी हैं- वैसे ही जैसे किसी नासूर से चुभने वाले दर्द पर ऊपर-ऊपर से पट्टी कर दी गई हो. अंदर के ज़ख़्म को, हमारी सामाजिक संरचनाओं के खोखलेपन को तो हमें अंदर से भरना होगा.
इस तरह की हिंसा की जड़ में निहित पितृसत्तात्मक सोच जो स्त्रियों को कमतर मानती है, उसे एक वस्तु मानती है- जब तक हम उसे नहीं बदलेंगे, तब तक हिंसा का सबसे आसान शिकार केवल स्त्रियां ही रहेंगी. स्त्री-पुरुष में समानता का वह ज़रूरी पाठ जो हम ज़बानी पढ़ते हैं, उसे घर-घर की, गली-गली की वास्तविकता बनाए बिना हर बार कोई-न-कोई हादसा यूं ही कभी रातों को तो कभी दिन-दहाड़े हुआ करता रहेगा. रक्षा बंधन को राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाने वाला यह देश स्त्रियों की सुरक्षा को उनका मौलिक और प्राकृतिक अधिकार कब बना पाएगा? कब तक हम बस रस्मों को निबाहते रहेंगे?
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने जब कभी लिखा था, ‘ज़र्द पत्तों का बन जो मिरा देस है, दर्द की अंजुमन जो मिरा देस है’ तो शायद हमारे मुल्कों की नियति ही लिख दी थी. एक ऐसी नियति जो इतने सालों की स्वतंत्रता के बाद भी उतनी ही हृदय-विदारक है, स्याह है. एक ऐसा देश, जिसे हम ‘भारत माता’ की संज्ञा देते आए हैं. आज़ादी की लड़ाइयों में जिस तथाकथित ‘माता’ को विदेशी आक्रांताओं के ज़ुल्म से छुड़ाना एक राष्ट्रवादी उद्देश्य बन गया, ऐसे देश में अगर स्त्रियां ही अपने शोषण की पीड़ा को ताउम्र झेलती रहेंगी तो यह स्वतंत्रता कितनी बेमानी और झूठी है.
एक बार स्वतंत्र करा ली गई माता की इस संस्थागत उपेक्षा और सामाजिक असुरक्षा को ख़त्म करना तो हमारी सामूहिक ही नहीं बल्कि निजी ज़िम्मेदारी भी होनी चाहिए. ज़र्द पत्तों सी उदास स्वतंत्रता तभी हरियाली में तब्दील हो सकेगी.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)