बांग्लादेश की आज़ादी के पचास वर्ष होने पर दिसंबर 2021 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने द टेलीग्राफ में पांच लेखों की श्रृंखला लिखी थी. आज जो हालात बांग्लादेश में है, उसकी आशंका इन लेखों के लिखे जाते वक्त भी थी. 2018 के चुनावों में अवामी लीग को बहुमत मिला था, लेकिन इन चुनावों की निष्पक्षता पर ख़ुद उनके नेताओं ने सवाल खड़े किए थे. बांग्लादेश की वर्तमान राजनीति को समझने में मदद करते ये लेख उसकी आज़ादी में भारत की भूमिका, दोनों देशों में जनतंत्र का स्वरूप और यह एहसास कि यदि एक देश धर्मनिरपेक्षता के रास्ते हो छोड़ता है तो दूसरा भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रह सकता, बांग्लादेश की अभूतपूर्व आर्थिक उन्नति जैसे मुद्दों पर केंद्रित हैं.
इन लेखों की प्रासंगिकता को देखते हुए हम शुभेन्द्र त्यागी द्वारा किया इनका अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं. पहला और दूसरा भाग यहां पढ़ सकते हैं.
§
विकास के सामाजिक, आर्थिक पैमानों पर उत्कृष्ट प्रदर्शन का गर्व हर बांग्लादेशी को है. ‘भारत हो या पाकिस्तान, हम दोनों से आगे रहे हैं!’ आंकड़े इस बात को साबित भी करते हैं.
कैंब्रिज के कॉलेज के दिनों से ही अमर्त्य सेन के परम मित्र रहे और बांग्लादेश के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री रहमान शोभन ने 6 दिसंबर 2021 को सेंटर फॉर पॉलिसी डायलॉग में दिए गए व्याख्यान की एक प्रति मुझे दी जिसका शीर्षक था ‘प्रोमिस केप्ट एंड प्रोमिसेज़ टू कीप’ (Promise Kept and Promise to Keep).
इस व्याख्यान में संक्षेप में आज़ादी के वक्त पाकिस्तान के इस पूर्वी हिस्से की तुलना पश्चिमी पाकिस्तान से की गई है और आज़ादी के 50 वर्ष होने पर बांग्लादेश पाकिस्तान के मुकाबले कहां खड़ा है, यह भी बताया गया है. आजादी के वक्त बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 90 डॉलर थी, जो अब बढ़कर 2,554 डॉलर हो गई है. उस वक्त अमेरिकी डॉलर में मापने पर इसकी प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान की तुलना में 61 प्रतिशत कम थी जो अब 64 प्रतिशत अधिक है! आज इसकी बचत का अनुपात पाकिस्तान से तीन गुना और निवेश का अनुपात दो गुना है. इसका असर तेजी से विकसित होते बुनियादी ढांचे में भी दिखाई देता है. आजादी के वक्त ऊर्जा तथा विद्युत उत्पादन पाकिस्तान से कम था, ‘आधी सदी बाद पाकिस्तान से 40 प्रतिशत अधिक है.’
मुझे यह भी बताया गया था कि पूरे विश्व में ग्रामीण इलाक़ों में सड़कों का सबसे सघन जाल बांग्लादेश में है. बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने मुझे बताया कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की औसत वार्षिक वृद्धि दर 1975 से 1990 के सैनिक तानाशाही के दौर में 3.2 प्रतिशत थी, फिर जब 1990 से 2008 तक गठबंधन सरकारें रहीं तब यह बढ़कर 4 प्रतिशत हो गई. जब 2009 में शेख हसीना की सरकार बनी तब से वृद्धि दर अप्रत्याशित रूप से बढ़कर 6.6 प्रतिशत हो गई है.
आजादी के वक्त बांग्लादेश का निर्यात 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो अब भारी वृद्धि के साथ 411 बिलियन डॉलर हो गया है. विदेशी मुद्रा भंडार 15 डॉलर (ये आंकड़ा आश्चर्य चकित करने वाला है लेकिन सही है क्योंकि आधिकांश विदेशी मुद्रा पर पाकिस्तान का ही कब्जा था) से बढ़कर 45 बिलियन डॉलर हो चुका है. निर्यात में हुई इस आशातीत वृद्धि में मुख्य हिस्सेदारी तैयार वस्त्रों (Readymade Garments- आरएमजी) की है; निर्यात से प्राप्त होने वाली कुल आय का 80 फीसदी इन्ही के निर्यात से प्राप्त होता है. यह थोड़ा आश्चर्यजनक भी है.
50 और 60 के दशक में जब तैयार वस्त्रों (आरएमजी) की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हुई तो पश्चिमी और जापानी वस्त्र अत्यधिक महंगे होने के कारण वैश्विक बाजार से बाहर होने लगे, तब भारत और ब्राजील जैसे देशों ने सूती वस्त्र उद्योग में जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड (GATT) के अत्यधिक कड़े कानूनों की बजाय सूती वस्त्र उद्योग में अधिक उदार समझौते के लिए प्रयास किया, जिसका प्रतिफल मल्टी फाइबर एग्रीमेंट ( इस पूरी प्रक्रिया में युवा राजनयिक की हैसियत से मैं भी शामिल था) के समझौते के रूप में हुआ. लेकिन इस समझौते का लाभ ‘विकासशील देशों’ को उतना नहीं हुआ जितना बांग्लादेश जैसे ‘कम विकसित देशों’ को हुआ; जिनके उत्पादों से बाजार पट गया.
इस कहानी की शुरुआत होती है दक्षिण कोरिया द्वारा 134 बांग्लादेशी नागरिकों को आरएमजी इकाइयों के संचालन और प्रबंधन के प्रशिक्षण के लिए अपने देश ले जाने से (ये 134 व्यक्ति बाद में बहुत सफल उद्यमी साबित हुए). इसके बाद दक्षिण कोरिया का निवेश, तथा डिज़ाइन और उत्पाद विकास के नजरिये से बेहतर मानी जाने वाली उनकी तकनीकी आई.( इस बात से ढाका में दक्षिण कोरिया के रेस्टोरेंटों की बढ़ती संख्या को भी समझा जा सकता है) बांग्लादेश के आरएमजी उद्योग को वैश्विक बाज़ार में शुल्क और करों की छूट का लाभ भी मिला, जो दक्षिण कोरिया जैसे विकसित देशों को प्राप्त नहीं था.
बांग्लादेश की आजादी के फलस्वरूप बांग्लादेशी महिलाओं में हुए साक्षारता और शिक्षा के प्रसार और रूढ़िवादी सोच से आजादी ने सहज श्रम उपलब्ध कराया, इनमें 47 मिलियन औरतें थीं; जो बांग्लादेश के ग्रामीण भागों में स्थित लघु और कुटीर उद्योगों से लेकर शहरी क्षेत्रों में अवस्थित उन्नत आधुनिक कारखानों में काम करतीं हैं.
आरएमजी में काम करने वाले कामगारों के सुरक्षा मानकों, आय और सामाजिक सुरक्षा को लेकर पश्चिमी दुनिया में खूब आलोचना हुई है, लेकिन इन समस्याओं के समाधान के लिए जरूरी कदम उठाए गए हैं. सरकार की नीतियां भी मददगार साबित हुई हैं. वेयर हाउस, जहां कच्चे माल को 6 महीने तक सुरक्षित रखा जा सकता है, और क्रेडिट पत्रों ने चालू पूंजी (Working Capital) की मांग को काफी कम कर दिया है. नगदी प्रोत्साहन (Cash Incentives); जो 25 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत हो गया है, ने रही-सही कसर पूरी कर दी.
युवा उद्यमियों की बड़ी संख्या अब आरएमजी में है जो इन नए उद्यमों में अपनी पसंद और स्वभाव के अनुसार काम करते हैं; ये आबादी जीविका के लिए पहले सरकारी नौकरी या एनजीओ का मुंह ताका करती थी. घरेलू उपयोग की वस्तुओं, चाहे साबुन हो या प्रसाधन सामग्री, के अब कई विकल्प मौजूद हैं. यही स्थिति इस्पात जैसे भारी उद्योग की भी है. इस्पात का उत्पादन 5 दशकों में 1 लाख टन से बढ़कर 8 मिलियन टन हो चुका है.
विनिर्माण क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व वृद्धि के फलस्वरूप सीमेंट उत्पादन में भी वृद्धि हुई है. आय में हुई वृद्धि ने कारखानों में बनने वाली शोधित चीनी (refined sugar) की मांग में बढ़ोत्तरी की है. जहाज के पुर्जे बनाने वाले कारखाने भी हैं जो मुख्य रूप से अपने उत्पादों का निर्यात करते हैं. इन सबके परिणाम स्वरूप जीडीपी में अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंशों के योगदान के अनुपात में भी परिवर्तन हुआ है, अब इसमें कृषि का नहीं बल्कि विनिर्माण क्षेत्र का अधिक योगदान है.
विनिर्माण क्षेत्र का जीडीपी में कुल योगदान एक तिहाई है. लगभग 2 करोड़ लोग मध्य वर्ग में शामिल हुए. धनमंडी जैसी ढाका की पुरानी बस्तियों की जगह पर भी अब ऊंचे ऑफिस और गगनचुंबी इमारतें हैं, और सड़कें चमचमाती एसयूवी गाड़ियों से पटी हुई है, साइकिल और रिक्शे वाले जिनसे जगह के लिए होड़ करते चलते हैं. इन्हीं के बीच ही पैदल चलने वाले लोग भी जगह बनाते हुए चलते हैं.
कृषि में बांग्लादेश का मजबूत प्रर्दशन वह आधारशिला है जिस पर यह पूरा विकास टिका हुआ है. बांग्लादेश के प्रमुख खाद्य चावल का उत्पादन चार गुना बढ़कर 40 मिलियन टन हो चुका है, जो पिछले पांच दशक में 75 मिलियन से बढ़कर 170 मिलियन हो चुकी आबादी का भरण पोषण करता है. आजादी से पहले जहां एक वर्ष में एक फसल होती थी आज दो या तीन फसलें हो जाती हैं.
मछली उत्पादन में बांग्लादेश का प्रदर्शन कृषि से भी बेहतर रहा है. मछली के निर्यात में बांग्लादेश का पूरे विश्व में चौथा स्थान है. फलों और सब्ज़ियों का उत्पादन बहुतायत में होता है और स्वच्छता का स्तर पहले से बेहतर है. आधिकांश जनता तक नल से पानी पहुंचता है. हर गांव में बिजली पहुंच चुकी है. ‘शहर और गांव के बीच अब कोई अंतर नहीं रह गया है.’
अर्थव्यवस्था के सभी अंग विकसित हो रहे हैं. लेकिन इस तरक्की का एक अनचाहा परिणाम भी रहा है, जहां आजादी के वक्त बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से जूट पर निर्भर थी अब जूट का कहीं जिक्र भी नहीं होता. बांग्लादेश जूट मिल कॉरपोरेशन की मदद से निष्प्राण हो चुके जूट उद्योग के पुनरुद्धार और विस्तार के प्रयास हुए हैं, जिससे यहां के छोटे-छोटे जूट कारखाने बैरकपुर की वृहद और प्रभावशाली जूट मीलों से प्रतियोगिता कर सकें. यह भी उम्मीद है कि जब ‘पर्यावरण हितैषी’ वस्तुओं की मांग पूरी दुनिया में बढ़ रही है तो पैकिंग के लिए जूट को फिर प्राथमिकता दी जाएगी. यदि जूट से वस्तुएं निर्मित की जाएं तो वैश्विक बाजार में जूट से बने बैग और डिज़ाइनर ड्रेसों की मांग में भी इजाफा हो सकता है.
बांग्लादेश की समृद्धि में प्रमुख योगदान विदेशों में काम कर रहे बांग्लादेशी कामगारों, जिन्हे ‘विकास का सहयोगी’ भी कहा जाता है; द्वारा भेजी जा रही विदेशी मुद्रा का है. वित्तीय वर्ष 2020-21 में विदेशी मुद्रा की आमद रिकॉर्ड 24.77 बिलियन डॉलर रही. बांग्लादेशी अपने परिवार के जीवनस्तर की बेहतरी और समृद्धि के लिए दुनिया में कहीं भी जाने और कोई भी काम करने के लिए तैयार रहते हैं. उनमें यह प्रवृत्ति इतनी अधिक है कि कुछ वर्ष पहले वेनिस जाने पर मुझे पिज्जा के लगभग सभी रेस्टोरेंटों के कुक बांग्लादेशी मिले!
यहां के विदेश मंत्री गर्व से कहते हैं, ‘निर्धनता अब 70 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत रह गई है. अब गांवों में भी सब कुर्सियों पर बैठते हैं. अब पहले की तरह कोई अर्धनग्न नहीं रहता.’ जन्मदर पहले 2.98 हुआ करती थी अब 1.3 रह गई है, इसे कम करने में गांव के मुल्लाओं ने भी सहयोग किया है.
इस चमत्कारपूर्ण बदलाव की शुरुआत 70 के दशक के मध्य से हुई जब मुहम्मद युनुस ने ग्रामीण बैंक की शुरुआत की. जब वे अर्थशास्त्र के अपने दर्शन को समझाते हैं तो कहावतें और मुहावरे मोतियों की तरह उनके वाक्यों में गुंथे होते हैं: ‘निर्धनता का कारण जनता नहीं है, बल्कि व्यवस्था निर्धनता को जन्म देती है.’ इसपर प्रश्न किया जा सकता है कैसे?
‘हमारी बैंक व्यवस्था उनको ही ऋण देती है जो पहले से अमीर हैं.अमीर ही ऋण के लिए उनके पास आते है. लेकिन हम गरीबों तक गए. वे पुरुषों के पास जाते हैं. हम स्त्रियों तक गए. उनकी शाखाएं शहरी क्षेत्रों में होती हैं हमने ग्रामीण क्षेत्रों 3000 शाखाएं स्थापित कीं. वे किसी सुरक्षा या प्रतिभूति (Collateral) के आधार पर ऋण देते हैं फिर भी ऋण की अदायगी न होने की समस्या से जूझ रहे हैं. हमने सिर्फ भरोसे पर गरीबों को ऋण दिया फिर भी 97 फीसदी ऋण की अदायगी हो गई.’ चूंकि बैंक कभी भी ऋण देकर गरीबों की सहायता नहीं करते इसी से गरीब महाजनों और साहूकारों के शोषण का शिकार होते हैं.
‘जब हम इतिहास में पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि मनुष्यों ने अपना जीवन आखेटकों (शिकारियों), खाद्य संग्राहकों के रूप में आरंभ किया था, जहां हर व्यक्ति खुद की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था. उसी भावना को फिर से जीवित क्यों नहीं किया जा सकता? सिर्फ इस बात की जरूरत है कि कोई उद्यम शुरू करने के लिए गरीबों को 5 डॉलर, 10 डॉलर के छोटे छोटे ऋण दिए जाएं. 20 डॉलर भी उनके लिए बड़ी राशि है. हम मानते हैं मुख्य चीज है धन, छोटी-सी धनराशि जो रचनात्मकता और नवाचारों को प्रोत्साहित कर नए उद्यमों की शुरुआत कर सके.
जब हम कोई चीज दान करते हैं तो उसे वापस पाने की इच्छा नहीं रखते. ‘समाजिक उद्यम’ का लक्ष्य इससे भिन्न है. ‘सामाजिक उद्यम’ (social business, युनुस के अर्थशास्त्र के सिद्धांत का यही नाम है) के तहत दिया गया ऋण आपको वापस मिलता रहता है.’
युनुस का वैचारिक विरोध ऐसे अर्थशास्त्रियों से है जो ‘नौकरी’ और ‘रोजगार’ को गरीबी के उन्मूलन के लिए आवश्यक मानते हैं, ‘लेकिन वास्तव में गरीबी के चक्र से मुक्त होने के लिए जरूरी है लघु उद्यमिता.’
‘वित्त, उद्यमिता के लिए ऑक्सीजन की तरह है.’ ग्रामीण बैंक का उद्देश्य वित्त की उपलब्धता सुनिश्चित करना है न कि लाभ कमाना. साथ ही लोगो को प्रेरित करने का लक्ष्य बैंकों और परंपरागत अर्थशास्त्रियों का नहीं होता है, लेकिन ग्रामीण बैकों द्वारा संचालित ‘सामाजिक उद्यम’ (social business) का प्रमुख उद्देश्य यही है. ग्रामीण बैंक की सहायता से अब तक 80,000 व्यवसायिक उद्यमों की शुरुआत की जा चुकी है. आज ग्रामीण बैंक प्रति वर्ष 3 बिलियन डॉलर का ऋण देते हैं. जिसमें 98 फीसदी ऋण की अदायगी हो जाती है. यह ऋण 90 लाख लोगों को दिया जाता है, जिनमें 97 प्रतिशत महिलाएं हैं, जो बांग्लादेश के हर हिस्से में रहती हैं.
युनुस ने ग्रामीण वेंचर कैपिटल फंड ( Grameen Venture Capital Fund) की भी स्थापना की है, जहां ऐसे नौजवानों को बिना भेदभाव के प्रशिक्षित किया जाता है जो रोजगार सृजन कर सकें न कि रोजगार के लिए भटकते फिरें. ‘शक्ति मनुष्यों में निहित है और स्त्रियां मनुष्य हैं’, यह उनका ध्येय वाक्य है. किसी ने मुझसे कहा था कि जब युनुस सामने हों तो यह आवश्यक है कि महिलाएं उन्हें सलाम करें.
जब मैंने उनसे इस बारे में पूछा गया तो उन्होनें सहजता से कहा था कि सलाम के कारण स्त्रियां अपने सिर को ऊपर उठाकर देखतीं हैं, अन्यथा वे जीवन को सिर झुकाए, अपने स्त्रीत्व के बोझ से दबे हुए, अपमानित होते हुए, बिना आत्मविश्वास के ही गुजार देती हैं.
अपनी बात को खत्म करते हुए युनुस अंत में कहते हैं, ‘स्वतंत्रता ने संभावनाओं के अनेक मार्ग खोल दिए हैं.यह एक लंबी छलांग थी. अब कुछ भी हमारी पहुंच से दूर नहीं है. स्वतंत्रता ने युवाओं की क्षमताओं को विकसित होने का अवसर दिया है.’
मानव विकास सूचकांक में बांग्लादेश 0.32 के साथ पाकिस्तान 0.563 से बहुत आगे है. यदि मानव विकास सूचकांक( इसमें स्वास्थ, प्रजनन दर, मातृ और शिशु मृत्यु दर, पोषण, शिक्षा, स्त्रियों की स्वतंत्रता आदि को शामिल किया जाता है) को प्रगति का मानक माना जाए तो बांग्लादेश पाकिस्तान और भारत दोनो देशों से आगे है. अब इसे दुनिया के 10 सबसे तेजी से विकसित हो रहे देशों में शामिल किया जाता है.
लिंग विकास सूचकांक में (0.904) के साथ बांग्लादेश पाकिस्तान के स्कोर (0.745) से बहुत आगे है और भारत के (0.820) से भी आगे है (जो हमारे लिए शर्मनाक है).
सतत सामाजिक आर्थिक विकास के फलस्वरूप यूएनडीपी के निर्धनता सूचकांक के अनुसार पाकिस्तान में निर्धनता दर 38.3 प्रतिशत है, भारत में 27.9 प्रतिशत और बांग्लादेश में 24.6 प्रतिशत है. (ये आंकड़े 2018 के हैं, कोविड महामारी के बाद यह अंतर शायद और भी ज्यादा हो चुका होगा.हमारे द्वारा टीके न दिए जाने के बावजूद भी बांग्लादेश ने कोविड महामारी से सफलतापूर्वक निपटा लिया है. हमने बांग्लादेश को टीके देने का वायदा किया था, और जिसके लिए उन्होंने हमें भुगतान भी किया था).
ढाका विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर कहते हैं, ‘हमारी जनता पहले से अधिक समृद्ध है. हर पीढ़ी का जीवन स्तर अपने पहले की पीढ़ी के जीवन स्तर से बेहतर है.’ जब वे यह कहते हैं तो उनके चेहरे पर संतुष्टि साफ झलकती है.
लेकिन इस अभूतपूर्व सामाजिक आर्थिक विकास का एक स्याह पक्ष भी है: राजनेताओं और उद्योगपतियों के बीच बढ़ता अटूट गठजोड़. एक स्वतंत्रता सेनानी इस पर टिप्पणी करते हैं कि इसने अवामी लीग के चरित्र को ‘आमूल चूल’ बदल दिया है. ‘अब यह पूंजीपतियों की पार्टी है. सरकार द्वारा आर्थिक नीतियों को कुछ एक पूंजीपतियों के अनुकूल बनाने के कारण बैंक ऋण की अदायगी न होने का संकट (Bank default crisis) पैदा किया है, इससे ईमानदार उद्योगपति प्रतियोगिता से बाहर हो रहे हैं.’
वे अफसोस के साथ कहते हैं, ‘यह व्यवस्था धीरे-धीरे प्रतियोगिता के अभाव में खुद नष्ट हो जाएगी. सस्ते कर और अमीरों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मुद्रा प्रोत्साहन की मात्रा गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी की अपेक्षा बहुत ज्यादा है.’
वे निराशापूर्वक कहते हैं, ‘सभी सरकारी नियामक अब वसूली करते हैं. उद्यमिता अब सरकारी सेवाओं का भी हिस्सा बन गई है! यदि कुछ पूंजीपतियों के हितों को सरकार की मदद से आगे न बढ़ाया जाता तो शायद पूंजीवाद अधिक सफल होता.’
एक समूह के सीईओ टिप्पणी करते हैं, ‘हम अपनी उत्पादन और बाजार लागत में घूस देने में होने वाले खर्च को भी शामिल करके चलते हैं.’
रहमान शोभन अपने 6 दिसंबर के व्याख्यान में ( जिसका जिक्र ऊपर था) इस बात से चिंतित दिखते हैं, इस खुले और व्यापक भ्रष्टाचार के कारण ही, ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में बांग्लादेश की हिस्सेदारी दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे कम हैं और दक्षिण एशिया के स्तर को देखते हुए भी काम है.’
बढ़ती हुई असमानता भी चिंता का विषय है. एक अर्थशास्त्री इस पर टिप्पणी करते हैं, ‘1970 में गरीबी थी लेकिन गैर बराबरी नहीं थी.’ गरीबी का मापन करने वाला गिनी सूचकांक 0.30 से बढ़कर 0.45 हो चुका है. बांग्लादेश में मानो ब्रैंको मार्कोविक (Branko Marcovic) की प्रस्थापना की व्यवहारिक जांच के लिए आदर्श स्थिति है:
‘हर राजनीतिक व्यवस्था में, चाहे वह लोकतंत्र ही क्यों न हो उसमें अमीरों का ही राजनीतिक शक्ति पर कब्जा होता है. आशंका इस बात की है कि राजनीतिक वर्चस्व का लाभ उठाकर ऐसी नीतियां बनाई जाएंगी जो संसाधनों पर अमीरों के वर्चस्व को और मजबूत करती हैं. असमानता जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक संभावना इस बात की है, कि हम जनतंत्र से तानाशाही की ओर बढ़ते जाएंगे.’ ( द गार्जियन लंदन 2 मई 2017) असमानता के विषय पर मार्कोविक विश्व के अग्रणी अर्थशास्त्री हैं. इस लेख के लेखन के समय वे सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क में प्रेसिडेंशियल विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे.
आशंका इस बात की भी है कि बांग्लादेश लोकतंत्र को छोड़कर तानाशाही के रास्ते पर पहले ही कदम बढ़ा चुका है. (दुर्भाग्य से भारत भी).
(मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखे गए इस लेख का अनुवाद शुभेन्द्र त्यागी ने किया है. वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)