नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (23 अगस्त) को एक फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के खिलाफ किए गए सभी अपमान और धमकाने वाली टिप्पणियां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपराध नहीं होंगी.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने 1989 के विशेष कानून की व्याख्या करते हुए यूट्यूब चैनल ‘मरुनादन मलयाली’ के संपादक और प्रकाशक शाजन स्कारिया को अग्रिम जमानत दे दी. उन पर 1989 के अधिनियम के तहत केरल के विधायक पीवी श्रीनिजिन के खिलाफ अपमानजनक वीडियो अपलोड करने के आरोप में मामला दर्ज किया गया था. श्रीनिजिन अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य हैं.
स्कारिया की टिप्पणी स्पोर्ट्स हॉस्टल में कथित कुप्रबंधन के बारे में उनके द्वारा प्रसारित एक खबर से संबंधित थी. हॉस्टल की देखरेख जिला खेल परिषद के अध्यक्ष के रूप में श्रीनिजिन करते थे.
जस्टिस पारदीवाला ने कहा कि हमलावर, जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) का व्यक्ति नहीं है, को 1989 के अधिनियम के तहत केवल इसलिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके अपमान या धमकी भरे कृत्य का शिकार एससी/एसटी व्यक्ति था.
वहीं, दूसरी ओर यह अधिनियम तब लागू होगा जब पीड़ित को इसलिए जानबूझकर अपमानित किया गया हो, क्योंकि वह एससी/एसटी समुदाय का सदस्य है. अदालत ने माना कि जानबूझकर अपमान या धमकी के पीछे का एकमात्र कारण पीड़ित की एससी/एसटी समुदाय के सदस्य के रूप में पहचान होना चाहिए.
जस्टिस पारदीवाला ने तर्क दिया, ‘अपलोड किए गए वीडियो की कॉपी में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रथम दृष्टया यह संकेत दे कि अपीलकर्ता (स्कारिया) ने केवल इस तथ्य के आधार पर आरोप लगाए थे कि शिकायतकर्ता (श्रीनिजिन) अनुसूचित जाति से संबंधित है… क्या यह ऐसा मामला है कि शिकायतकर्ता यदि अनुसूचित जाति से नहीं होता, तो अपीलकर्ता ने आरोप नहीं लगाए होते? इसका उत्तर प्रश्न में ही निहित है.’
स्कारिया पर 1989 अधिनियम की धारा 3(1)(आर) और 3(1)(यू) के तहत मामला दर्ज किया गया था. पहला प्रावधान किसी एससी/एसटी व्यक्ति को अपमानित करने के इरादे से सार्वजनिक रूप से अपमानित करने से संबंधित था. दूसरा प्रावधान एससी/एसटी समुदायों के खिलाफ नफरत, दुर्भावना या दुश्मनी को बढ़ावा देने के अपराध की बात करता है.
फैसले में अदालत ने कहा कि केवल इस तथ्य का ज्ञान कि पीड़ित एससी/एसटी सदस्य है, धारा 3(1)(आर) को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. इस प्रावधान को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए किया गया ‘अपमान’ पीड़ित की जातिगत पहचान से गहराई से जुड़ा होना चाहिए.
जस्टिस पारदीवाला ने कहा, ‘एससी/एसटी समुदाय के किसी सदस्य का जानबूझकर किया गया हर अपमान या धमकी जाति-आधारित अपमान की भावना पैदा नहीं करेगी. यह केवल उन मामलों में होता है, जिनमें जानबूझकर अपमान या धमकी या तो अस्पृश्यता की प्रचलित प्रथा के कारण होती है या फिर ऐतिहासिक रूप से स्थापित विचारों, जैसे कि ‘उच्च जातियों’ की ‘निचली जातियों/अछूतों’ पर श्रेष्ठता, ‘पवित्रता’ और ‘अपवित्रता’ की धारणाओं आदि को मजबूत करने के लिए होती है. इसे 1989 के अधिनियम द्वारा परिकल्पित प्रकार का अपमान या धमकी कहा जा सकता है.’
अदालत ने कहा कि प्रथम दृष्टया ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे यह संकेत मिलता हो कि स्कारिया का वीडियो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के खिलाफ शत्रुता, घृणा या दुर्भावना की भावनाओं को बढ़ावा देने के लिए था.
अदालत ने तर्क देते हुए कहा, ‘इस वीडियो का अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लोगों से कोई लेना-देना नहीं है. उनका निशाना सिर्फ़ शिकायतकर्ता ही था.’